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३७५ मध्यमस्याद्भादरहस्ये खण्ड: २ - का
* उदयनाचार्यमतसमीक्षणम्
वस्तुतः कतिपय-तदभावो लाऽवतमसं, दिवा प्रकृष्टालोकेऽपि तत्सत्त्वात् । न च छायायामतिव्याप्तिवारणाय स्वन्यूनसंख्यबाह्यालोकसंवलने सतीति विशेषणावश्यकत्वात्,
ॐ जयलता
व्यवहर्तव्यज्ञानस्य कारणत्वात् घटकाज्ञाने च यदितानवबोधात् निरुक्तघटकाज्ञानवतीःन्धतमसत्वादिधीनं स्यात् न स्याच्चान्धतमसादिपदप्रयोगः । दृश्यते चैतादृशघटकाऽप्रतिसन्धानेऽपि अन्धतमसत्यादिप्रतिसन्धानं तथाव्यवहारश्चेति घटत्ववदन्धतमसत्वादेः जातित्वमेव न्यायमिति भावः । एतेन अभावप्रत्यक्षे प्रतियोगिज्ञानापेक्षायां विना प्रतियोगिज्ञानं जायमानं तमस्त्वप्रकारकं नमः प्रत्यक्षं तमसो भावत्वमेव साधयतीत्यपि दर्शितम् । अत एव आलोकं जानतामेव नमः प्रत्यक्षस्वीकारः । तदाहुराचार्याः किरणावल्यां 'गिरिदुरीविवरवर्तिनो यदि योगिनो न ते तिमिरावलोकिनः, तिमिरावलोकिन्तु नूनं स्मृतालोका: ' (१.३२) इति प्रत्युक्तम्, तेजसो प्रतिसन्धानेऽपि तमोऽनुभवस्य प्रत्यक्षसिद्धत्वात् । न चैवं तमसो भावत्त्वसाधनेऽपि द्रव्यत्वं कुतः ? इति वाच्यम्, नीलरूपायाश्रयत्वेन तस्य द्रव्यत्वसिद्धेः । इदं नीलमित्यादिधियां भ्रमत्वं तत्र 'नेदं नीलमि' त्यादिसाक्षात्कारे वस्तुस्वरूपस्यादृष्टविशेषस्य वा दोषस्य वा प्रतिबन्धकत्वं तत्राऽप्यप्रामाण्यज्ञानाऽभावविशिष्टतेजोऽभावत्वप्रकारकज्ञानादीनामुत्तेजकत्वमित्यादिकानेऽतिगौरवात् ।
वस्तु । कतिपयतदभावः = कतिपय
भूतानभिभूतरूपवदालोकाऽभावः नावतमसम् । कस्मात् ? इत्याह - दिवा प्रकृष्टालोकेऽपि भूतलादी तत्सत्त्वात् = देशान्तरवर्ति- कालान्तरीय-मदुद्भूतानभिभूतरूपवदालोकाभावस्य विद्यमानत्वात्, तदानीमवतमसप्रतीतिप्रयोगी प्रसज्येतामिति भावः । न होकत्रैकदा यावदुक्तालोकसम्भवो घटाकोटिमाटीकते । अतः कतिपयतादृशालोकाभावस्य नावतमसत्वं युक्तमिति स्याद्वाद्याशयः ।
परशङ्कामपाकर्तुमुपक्रमते न चेति । अस्य 'वाच्यमित्यनेनाऽन्वयः । अवतमसभिन्नायां छायायां कतिपयमहदुद्भू| तानभिभूतरूपवदालोकाभावत्वयुक्तायां अतिव्याप्तिवारणाय = अवतमसलक्षण प्रवेशनिराकरणकृते, 'स्वन्यून सङ्ख्यबाह्यालोकसंबलने सतीति विशेषणावश्यकत्वादिति । संवलनं नाम एकदेशकालयोरस्तित्वम्, ततश्च स्वसमानदेशत्व-स्वसमानकालीनत्वोभयसम्बन्धेन स्वापेक्षया स्वप्रतियोग्यपेक्षया वा न्यूनसङ्ख्यकनिरुक्ताऽऽलोकविशिष्टत्वे सति कतिपयमहदुद्भूतानभिभूतरूपवदालोका भम्बोऽवतमसमिति तल्लक्षणं पर्यवसितम् । स्वपदेन निरुक्तालोकाभावस्य ग्रहणम् । छायायास्तु स्वसमान| देशत्व-स्वसमानकालीनत्वोभयसम्बन्धेन स्वापेक्षया स्वप्रतियोग्यपेक्षया वाकसङ्ख्यका लोकविशिष्टत्वान्नातिव्याप्तिः । निरुक्तो - में ही होता है न कि अभाव पदार्थ में । अन्धकार में प्रसिद्ध अबाधित उत्कर्ष, अपकर्ष की प्रतीति की अन्यथा अनुपपत्ति से अन्धकार भावात्मक द्रव्यात्मक सिद्ध होता है । अन्धकार में नील रूपादि की प्रतीति तो सर्वजनविदित ही है । दूसरी बात यह भी ध्यातव्य है कि अन्धकार के स्वरूप से नैयायिक विद्वानों में भी मत-मतान्तर है । कोई नैयायिक अन्धकार को महदुतानभिभूतरूपवद्यावदालोक के अभावस्वरूप मानते हैं तो कोई महदुद्भूतानभिभूतरूपवत् कतिपय आलोक के अभाव को ही अन्धकार मानते हैं। मगर इसमें से एक भी मत श्रद्धेय नहीं हो सकता है । इसका कारण यह है कि अभाव की ज्ञान में प्रतियोगी का ज्ञान एवं तादृश अभाव का ज्ञान कारण होता है। प्रतियोगी घट एवं विशेषण घटाभावत्व के ज्ञान के बिना घटाभाव का ज्ञान नहीं होता है। इसी तरह अन्धकार का ज्ञान भी महद्भूतानभिभूतरूपवत् यावत् आलोक एवं तादृशालोकप्रतियोगिकाभावत्व के ज्ञान के बिना या तादृश कतिपय आलोक एवं तादृशकतिपय आलोकप्रतियोगिकाभावत्व के ज्ञान के बिना नहीं होना चाहिए। तथा तादृश ज्ञान के विरह में अन्धकारव्यवहार भी नहीं होना चाहिए। मगर तथाविध प्रतियोगी एवं तथाविध अभावत्व के ज्ञान के बिना भी अन्धकार की प्रतीति एवं व्यवहार होता है । इसलिए अन्धकार को तादृशालोकाभावात्मक नहीं माना जा सकता । घटक के ज्ञान के बिना घटित का ज्ञान नहीं हो सकता है, विशेषण के ज्ञान के बिना विशिष्ट का बोध नहीं होता है यह सर्वमान्य सिद्धान्त है ।
(*) कतिपय आलोकविशेष का अभाव अन्धकार नहीं हो सकता
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वस्तुत इति । वस्तुस्थिति यह है कि महत्परिमाणयुक्त एवं उद्भूत अनभिभूतरूपवाले कतिपय आलोक का अभाव अवतमस = मन्द अन्धकार नहीं हो सकता है, क्योंकि दिन में प्रकृष्ट आलोक होने पर भी कतिपय तादृश आलोक का अभाव होने से मध्याह काल में भी अवतमस की प्रतीति एवं व्यवहार के प्रामाण्य की आपत्ति होगी। सारे जहाँ के सभी प्रकृष्ट आलोक एक काल में और एक देश में नहीं होते हैं । अन्यत्र एवं अन्यदा तादृश भालोक की विद्यमानता होती ही है । अतः