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* तमसो द्रव्यत्वसमर्थनम् * सहकेतितस्तम:शब्द इति न तदापत्त्या बिभेमीति चेत् ?' तथापि 'करिकलौ'त्यादिवत् | किं न तथा प्रयुहक्षे ? 'अप्रयोगादेव न प्रयुञ्ज' इति चेत् ? तथापि 'आलोके नालोक' इतिवत् 'आलोकेऽन्धकारः' इत्यपि किं न व्यवहरसि ?
अपि चाऽन्धतमसावतसत्वाद्युत्कर्षापकर्षदर्शनादपि तस्य द्रव्यत्वम् । महद्धतानभिभूतरूपवद्यावत्तेजोऽभावत्वकतिपयतदभावत्वयोरज्ञानेऽपि तद्व्यवहारात् ।
= = = = = =* रायलवा *
स्याद्वाद्याह - तथापीति । तमस आलोकाभावे सङ्केतकरणेऽपि । 'करिकलभेत्यादिवदिति । कलभशब्दस्य करि| संताने एव सङ्केतितत्वेन कलभपदेनैव करिज्ञानसम्भवेऽपि 'करिकलभे'त्यादिप्रयोगः दृश्यत एब । तद्वदेव किं न तथा || 'आलोकतमः' इत्यपि प्रयुझे ? 'करिणः कलमे त्यादिवत् 'आलोकस्य तम' इत्यस्याऽ'युपलक्षणम् । परो वदति - अप्रयोगादेव न प्रयुञ्ज इति । लोके 'आलोकतम' इत्याद्यप्रयोगादेव तथाऽहं न प्रयोगं कुर्वे, 'करिकलभ' त्यादिप्रयोगस्य लोके
(लौकिकप्रयोगाणामिति पराभिप्रायः । प्रकरणकृदभ्युपगम्य दोषान्तरमाह - तथापीति । तमः पदस्यालोकाभावे सड़केतिनत्वेऽपि । 'आलोके नालोक' इतिवत् 'आलोके अन्धकार' इत्यपि किं न व्यवहरसि ? सप्तम्यन्तालोकपदसभिव्याहृतेन नञा अत्यन्ताभावस्यैव बोधनात् 'नालोक' इत्यनेनालोकात्यन्ताभावस्यैव ग्रहात् तमसश्च तद्रूपत्वात् तत्स्थानेऽन्धकारपदप्रयोगस्य न्याय्यत्वादिति प्रकरणकृदभिप्रायः ।
तमसोऽभावत्वे उत्कर्षांपकर्षाऽसम्भवादन्धतमसावतमसादिविशेषो न स्यादित्यतोऽपि तस्य द्रव्यत्वं युक्तमित्याह अपि | चेति । अन्धतमसावतमसत्वाद्युल्कापकर्षदर्शनादपि तस्य = तमसः द्रव्यत्वम् । उत्कर्षापकर्षों नाऽभावे सम्भवत: किन्तु भाव एव । दृश्येते च अन्धकार-न्धतमस्त्यावतमसत्वलक्षणाबुत्कर्षापकर्षों । तदन्यथानुपपत्त्या तमसो भावत्वं सिध्यति । ननु महदुद्भूतानभिभूतरूपवद्यावत्तेजोऽभावोऽन्धतमसं कतिपयतदभावश्वाऽवतमसम् । इत्यञ्च तमसोऽभावत्वेऽपि महदुद्भूतानभिभूतरूपवद्यावत्तेजोऽभावत्वेन अन्धतमसत्वप्रकारकप्रतीते: कतिपयतदभावत्वेन चाऽवतमसत्वप्रकारकप्रतीते: सम्भव इति पराऽऽशङ्कायामाह - महदिति । अज्ञानेऽपि = एतावघटकाज्ञानेऽपि तदव्यवहारात् = अन्धतमसावतमसव्यवहारात् । व्यवहारे
अनिवार्य है । आशय यह है कि कलभशब्द का संकेत संस्कृतभाषा में हाथी के बच्चे में होता है । कलभ कहने से ही 'करि = हाथी का रथा' ऐसा ज्ञान होता है। फिर भी 'करिकलभ' ऐसा शब्दप्रयोग शतशः दिखाई देता है । कलभशन्द से ही 'करि' का ज्ञान मुमकिन एवं आवश्यक होने पर भी 'करि' वान्द का कलभशब्द के आगे प्रयोग किया जाता है। ठीक वैसे ही आलोकाभाव में तम शब्द का संकेत होने पर भी 'आलोकस्य तमः' ऐसे वाक्यप्रयोग की आपत्ति होगी। अर्थात् 'करिकलभ' यह प्रयोग प्रामाणिक है ठीक वैसे ही 'आलोकस्य तमः' यह वाक्यप्रयोग भी प्रामाणिक हो जायेगा । तो पिर नैयायिकादि चिद्वान 'आलोकस्य तमः' ऐसा प्रयोग क्यों नहीं करते हैं? इस समस्या का कोई समाधान नैयायिकादि के पास नहीं है। यहाँ नैयायिकादि की ओर से यह कहा जाय कि → “आलोकस्य तमः-ऐसा लोक में प्रयोग नहीं होता है । इसलिए हम वैसा वाक्यप्रयोग नहीं करते हैं। 'करिकलभ' इत्यादि प्रयोग लोक में होता है। इसलिए हम तथाविध वाक्यप्रयोग करते हैं" <- तो यह ठीक नहीं है। इसका कारण यह है कि तुम्हारे मत में अन्धकार आलोकाभावात्मक होने से जहाँ आलोकाभाव का प्रयोग होता है वहाँ अन्धकारपद का प्रयोग होना अनिवार्य होने से 'आलोके नालोकः' इस प्रयोग के स्थान में 'आलोकेऽन्धकार' इस वाक्यप्रयोग की आपत्ति तो दुर होगी । 'आलोक में आलोक नहीं है। ऐसा वाक्यप्रयोग तो लोक में सहस्रशः होता है, जिसमें 'आलोक नहीं है' का अर्थ आलोकात्यन्ताभाव होता है, जो अन्धकार है, ऐसा नैयायिकादि को अभिमत है । अतः उसके स्थान में अन्धकारपद का प्रयोग होना चाहिए । अत: 'आलोके अन्धकारः' = 'आलोक में अन्धकार है' यह प्रयोग भी नैयायिकादि के मत में प्रामाणिक हो जायेगा ।
अभावात्मक अन्धकार में तारतम्य की अमुपपत्ति के अपि च, इति । इसके अतिरिक्त यह भी विचारणीय है कि अन्धकार यदि आलोकाभावस्वरूप ही है तो फिर 'यहाँ गाढ अन्धकार है', 'वहाँ मंद अन्यकार है ऐसे उत्कर्ष, अपकर्ष का अन्धकार में भान कैसे होगा ? अभाव में उत्कर्ष या अपकर्ष नहीं होता है । 'यहाँ गाढ घटाभाव है वहाँ मन्द पटाभाव है' इत्यादि प्रतीति या प्रयोग लोक में या शास्त्र में अप्रसिद्ध हैं । अत: गाढ अन्धकार का अर्थ गाह आलोकाभाव इत्यादि नहीं हो सकता है । उत्कर्ष या अपकर्ष भाव पदार्थ
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