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३७३ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ का. ५ * तमसोऽभावत्वे प्रसिद्धव्यवहाराऽसम्भवः *
किच तमसोऽभावत्वं विधिमुखेन प्रत्ययः कथमुपपनीपद्यताम् ? 'ध्वंसादाविव क्वाचित्कनञ्प्रयोगं विनाऽत्रापि तदुपपत्ती किं विस्मयोत्कन्धरतयेति चेत् ? तथापि 'घटस्य ध्वंस' इतिवत् 'आलोकस्य तम:' इति प्रत्ययापत्या किं न बिभेषि 'आलोकाभाव एव
* जयलता *
कालावच्छेदेन देशे स्वाश्रयसंयोगसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगितावच्छेदकताकप्रकाशरूपवत्प्रतियोगिक भेदस्य तमस्त्वे गौरवात् । न च तदेशावच्छेदेन काले तादृशभेदस्यैव तमस्त्वमस्त्विति वाच्यम्, देशस्यैव तमोऽधिकरणत्वेन प्रतीतेरवच्छेदकत्वासम्भवात्, तादृशप्रणालीमविदुषीऽपि तमः प्रत्यया बेत्यादिसूचनार्थं दिगित्युक्तम् ।
अन्धकारस्याऽभावत्वपक्षे दोषान्तरं समुच्चिनोति किञ्चेति । तमसः = तमः पदवाच्यस्य अभावले महदुद्भूतानभिभूतरूपवद्यावदा लोकप्रतियोगिकाभावत्वे, तादृशकतिपयालोकप्रतियोगिकसंसर्गाभावत्वे आलोकदर्शनाभावत्वे प्रकाशकरूपात्यन्ताभावत्वे प्रकाशकरूपवत्प्रतियोगिकान्योन्याभावत्वे कालविशेषाभावत्वे वा विधिमुखेन = 'अत्र तमोऽस्ती' त्येवंविधान्वयरूपेण प्रत्ययः = ज्ञानं कथं उपपनीपद्यतां - सङ्गच्छतांतरां ? अभावस्य तु निषेधमुखेन भानं भवति 'घटो नास्ती'त्यादिवत् । तमसस्तु न निषेधमुखेन भानं भवति किन्तूक्तविधिमुखेनैवेति न तस्याऽभावत्वं सङ्गतिमङ्गतीति भावः । परः समाधत्ते ध्वंसादाविवेति । क्वाचित्कनञ्प्रयोगमिति । कादाचित्कनञ्प्रयोगमित्यपि पाठः । 'कपाले घटस्य ध्वंसोऽस्ति', 'भूतले घटाभावो वर्तते' इत्यादी ध्वंसादेरपि नञ्प्रयोगं विनाऽपि भानं भवति सर्वत्राऽभावस्थले प्रयोगाऽवश्यम्भावानियमात् । तथैव अत्रापि आलोकाभावाद्यात्मकतम: स्थलेऽपि तदुपपतौ नञ्प्रयोगमृते 'तमोऽस्ती' त्येवंविधिमुखभानसम्भवे किं विस्मयोत्कन्धरतया ? तमसोऽभावत्वे नैव विधिमुखप्रत्ययदर्शनेनाश्चर्यं कार्यमिति पराभिप्रायः । स्याद्वाद्याह तथापीति । तमोविधानमुखप्रतीत्युपपादनेऽपि 'कपाले घटस्य ध्वंस' इतिवत् उपलक्षणात् 'घटस्याऽभावोऽस्तीतिवत्, ' आलोकस्य तम' इति प्रत्ययापत्त्या = तादृशप्रत्ययप्रयोगयोः प्रामाण्यप्रसङ्गेन किं न विभेषि ? तयोः प्रमाणत्वं दुर्निवारमिति भावः । परः प्रत्युत्तरयति - आलोकाभावे एवेति । एवकारेण प्रतियोगिविनिर्मुक्ताभावस्य व्यवच्छेदः कृतः । तम:पदेनैवाऽभावप्रतियोगिविधया आलोकभानसम्भवान्न 'आलोकस्य तम' इति प्रतीतिः प्रयोगो वेति पराशयः ।
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क्योंकि भेद और भेदाभाव एक अधिकरण में नहीं रहते हैं । अन्धकार तो तादृश प्रकाशकरूपविशिष्टप्रतियोगिक भेदस्वरूप ही होने से उसके विरह से रात में भी आलोकाऽसंयुक्त भूतलादि में अन्धकार की प्रतीति एवं व्यवहार नहीं हो सकता । यह तो दिग्दर्शनमात्र है । इस विषय में अधिक भी विचार किया जा सकता है, इसकी सूचना देने के लिए श्रीमद्जी ने 'दिक्' पद का प्रयोग किया है । विशेषजिज्ञासु यहाँ जयलता टीका को देख सकते हैं ।
अन्धकार को .
[-अभावात्मक मानने में दोषपरम्परा
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किञ्च इति । प्रगल्भमत का निराकरण कर के प्रकरणकार श्रीमद्जी अन्धकार को अभावात्मक मानने वाले नैयायिकादि विद्वानों के मत की पुनः समालोचना करते हैं कि यदि अन्धकार अभावात्मक ही है, न कि भावस्वरूप तो फिर अन्धकार की विधिमुख से प्रतीति कैसे उपपन्न हो सकेगी ? अभाव का तो निपेधमुख से ज्ञान होना चाहिए। मतलब कि घटाभाव का 'घटो नास्ति' इस रूप से निषेधमुखी ज्ञान होता है वैसे अन्धकार का भी निषेधमुख से ज्ञान होना चाहिए । मगर 'तमः अस्ति' ऐसा विधिमुख से अन्धकार का ज्ञान होता है । अन्धकार को अभावस्वरूप मानने पर उक्त विधिमुख ज्ञान कैसे संगत होगा ? यह समस्या है । यहाँ यह कहा जाय कि 'ध्वंस अभावात्मक होता है फिर भी जैसे 'घटस्य ध्वंसोऽस्ति' ऐसा उसका विधिमुख ज्ञान होता है ठीक वैसे ही अन्धकार अभावात्मक होने पर भी 'तमोऽस्ति' ऐसा विधिमुख भान हो सकता है । इस विषय में विस्मय से अपने को उत्कण्ठित बनाना ठीक नहीं है" - तो यह नैयायिकादिकथन इसलिए अयुक्त है कि जैसे 'घटस्य ध्वंसः कपालेऽस्ति' ऐसा ज्ञान होता है वैसे ही 'आलोकस्य तमः' यानी 'आलोक का अन्धकार' ऐसा ज्ञान होने पर नैयायिकादि को डरना नहीं चाहिए । मतलब कि दोनों प्रतीति प्रमात्मक हो जायेगी। मगर नैयायिकादि विद्वानों को भी 'आलोकस्य तमः ' ऐसी प्रतीति नहीं होती है। अतः ध्वंस की भाँति अन्धकार को अभावस्वरूप नहीं माना जा सकता । यहाँ नैयायिकादि का यह कथन कि "तमः शब्द से ही आलोक की प्राप्ति हो जाने से पुनः 'आलोकस्य' ऐसा अधिक कहना जरूरी नहीं है । पुनरुक्ति दोष प्राप्त होने से 'आलोकस्य तमः' ऐसा शब्दप्रयोग होने का हमें खौफ नहीं है" - भी अयुक्त है, क्योंकि फिर भी 'करिकलभ' इत्यादि शब्दप्रयोग की भाँति 'आलोकस्य तमः' यह आपत्ति