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३७१ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ का ५ वृत्त्यनियामकसम्बन्धेनाभावानङ्गीकारः
तदभावस्य तत्र सार्वदिकत्वात् । 'स्वाश्रयसंयोगसम्बन्धेन तदभावस्यैव तमस्त्वमिति नायं दोष' इति चेत् ? न तस्य वृत्यनियामकत्वेन तत्सम्बन्धावकिन्नाभावस्यैवाऽसिदेः ।
* जयलता
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योगिताकप्रकाशकरूपाभावस्य तत्र पृथिव्यादौ, सार्वदिकत्वात् = सर्वदा वर्तमानत्वात् । ततश्च मध्याह्नकाले सूर्यप्रकाशसंयुक्तेऽपि पृथिव्यादी समवायावच्छिन्नप्रतियोगिताकप्रकाशकरूपाभावस्य सत्त्वेन तमोव्यवहारप्रसङ्ग इत्यर्थः । परः शङ्कते स्वाश्रयसंयोगसम्बन्धेन तदभावस्यैव = स्वाश्रयसंयोगसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकप्रकाशकरूपाभावस्यैव, तमस्त्वमिति । एवकारेण समवायसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकस्य तस्य व्यवच्छेदः कृतः । स्वपदेन प्रकाशकरूपस्य ग्रहणम् । तदाश्रयेण सूर्यप्रकाशादिद्रव्येण संयुक्ते पृथिव्यादी स्वाश्रयसंयोगसम्बन्धेन प्रकाशकरूपस्य वर्तमानत्वेन तदा न तमोव्यवहारः संभवतीति हेतोः नायं दोषः = न पृथिव्यादौ सदा तमोव्यवहारप्रसङ्गः, आलोकसंयुक्तत्वदशायां पृथिव्यादी स्वाश्रयसंयोगसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकप्रकाशकरूपाभावस्य विरहात् । प्रकरणकार: तदपाकरोति नेति । तस्य = स्वाश्रयसंयोगसम्बन्धस्य, वृत्त्यनियामकत्वेन आधाराधेयभावाऽनियामकत्वेन तत्सम्बन्धावच्छिन्नाभावस्य स्वाश्रयसंयोगसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताका भावस्य एव असिद्धेरिति । अयोगव्यवच्छेदेऽयमेवकारः । वृत्तिनियामकसम्बन्धस्यैव प्रतियोगितावच्छेदकत्वात् स्वाश्रयसंयोगसम्बन्धस्य प्रतियोगितावच्छेदकत्वं न सम्भवति । न हि स्वाश्रयसंयोगसम्बन्धेन नीलपृथिव्यादौ प्रकाशरूपाधारता प्रतीयते । स्वाश्रयसंयोगसम्बन्धस्य वृत्त्यनियामकत्वेन प्रतियोगितानवच्छेदकत्वात् तदवच्छिन्नप्रतियोगित्वाऽसम्भवात् तादृशप्रतियोगित्वनिरूपकप्रकाशकरूपाभावस्याऽप्यप्रसिद्धेः न तमसः तदात्मकत्वं सम्भवति, अन्यथा तमसो बन्ध्यापुत्रत्वात्मकत्वमपि स्यात्, अविशेषात् ।
ननु स्वाश्रयसंयोगसम्बन्धस्य वृत्त्यनियामकत्वेन मात्रस्तु प्रतियोगितावच्छेदकत्वं प्रतियोगितावच्छेदकतावच्छेदकत्वं तु सम्भवत्येव । अतः स्वाश्रयसंयोगसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगितावच्छेदकतानिरूपकतादात्म्यसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगितानिरूपकस्य प्रकाशकरूपकद्भेदस्य तमस्त्वे नं कश्चिद्दोषः । प्रकाशकरूपवत्सौरालोकादिसंयुक्ते पृथिव्यादी स्वाश्रयसंयोगेन प्रकाशकरूपवत्प्रति| योगिक भेदस्याऽसत्त्वान्न तदा तत्र तमोव्यवहारप्रसङ्गः । न च वृत्त्यनियामकसम्बन्धस्य प्रतियोगितावच्छेदकत्ववत् प्रतियोगितावच्छेदकतानवच्छेदकत्वमेव किं न स्यादिति वक्तव्यम्, 'चैत्रो न पचती' त्यादौ 'अनुकूलत्वसम्बन्धेन पाकविशिष्टकृत्यभाववांचैत्र' इत्यन्वयबोधस्यानुभविकतया निरुक्ताभावीयकृतिनिष्ठप्रतियोगितानिरूपित पाकनिष्ठावच्छेदकताया वृत्यनियामकानुकूलत्वसम्ब
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'अन्धकारवती पृथिवी' 'अन्धकारवत् जले' इत्यादि शब्दव्यवहार एवं प्रतीति को मान्य करने की आपत्ति प्रगल्भमत में अनिवार्य बनेगी । यदि उक्त आपत्ति के निराकरणार्थ प्रगल्भ की ओर से यह कहा जाय कि "समवाय सम्बन्ध से प्रकाशक रूप का जहाँ अभाव हो वहाँ अन्धकारव्यवहार नहीं होगा, क्योंकि हम समवायसम्बन्धावच्छिनप्रतियोगिताक प्रकाशकरूपाभाव को अन्धकारात्मक नहीं मानते हैं, किन्तु स्वाश्रयसंयोगसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताक प्रकाशकरूपाऽभाव को ही अन्धकारस्वरूप मानते हैं । जब मध्याह्न काल होता है तब पृथ्वी आदि में सूर्यप्रकाश का संयोग रहता है, जिसका रूप प्रकाशक = भास्वर होता है । स्व = प्रकाशक रूप, उसके आश्रय सूर्यप्रकाशव्य (= सीरालोक) का संयोग पृथ्वी आदि में मध्याह्न काल में रहने से स्वाश्रयसंयोगसम्बन्ध से तब पृथ्वी में प्रकाशक रूप ही रहेगा, न कि प्रकाशक रूप का अभाव, क्योंकि प्रतियोगी अपने अत्यन्ताभाव का विरोधी होता है । जब रात का समय होगा और पृथ्वी आदि दीपक आदि की प्रथा एवं प्रकाश से शून्य होगी तब प्रकाशकरूप स्वाश्रयसंयोगसम्बन्ध से पृथ्वी आदि में नहीं रहेगा, क्योंकि तब पृथ्वी प्रकाशकरूपवाले द्रव्य से संयुक्त नहीं है । उस काल में पृथ्वी आदि में स्वाश्रयसंयोगसम्बन्धावच्छित्रप्रतियोगिताक प्रकाशकरूपाऽभाव रहने से 'अन्धकारबी पृथिवी' इत्यादि प्रतीति एवं व्यवहार निराबाधरूप से हो सकेगा । अतः स्वाश्रयसंयोगसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताक प्रकाशकरूपाभाव को अन्धकारात्मक मानने में कोई दोष नहीं है" तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि स्वाश्रयसंयोगसम्बन्ध नृत्यनियामक होने से प्रतियोगितावच्छेदक नहीं हो सकता है। जिस सम्बन्ध से आधाराधेयभाव की प्रतीति हो उस सम्बन्ध को वृत्तिनियामक कहा जाता है, जैसे कि समवाय । जिस सम्बन्ध से आधाराधेयभाव की प्रतीति न हो वह वृत्ति-अनियामक कहा जाता है जैसे स्वसमवेतत्वसंसर्ग । प्रतियोगितावच्छेदक नहीं हो सकता है । प्रस्तुत में स्वाश्रयसंयोगसम्बन्ध वृत्ति अनियामक है, क्योंकि उस सम्बन्ध से आधार - आधेयभाव का भान नहीं होता है । अतः स्वाश्रयसंयोगसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताक प्रकाशकरूपाभाव ही अप्रसिद्ध है, तब उसे अन्धकारात्मक कैसे माना जा सकता ? इसलिए स्वाश्रयसंयोग सम्बन्ध से अवच्छिन्न प्रतियोगिता के निरूपक प्रकाशकरूपाभाव की कल्पना केवल कल्पना ही है ।