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* सिद्धान्तलक्षणदीधिति - जागदीशीसंवादः *
तत्सम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगितावच्छेदकताकतद्वद्भेदस्य तथात्वे तु निशीथिन्यामपि भूतलादौ तमोव्यवहारानुपपत्तिः, अन्योन्याभावस्य व्याप्यवृत्तित्वादिति दिक् ।
* गयलता कै
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न्धावच्छिन्नतायां विवादाऽभावेन वृत्त्यनियामकसम्बन्धावच्छिन्नाऽपि प्रतियोगिताऽवच्छेदकता सर्वसम्मतैव । तदुक्तं सिद्धान्तलक्षणदीधितिजागदीश्यां "वृत्त्यनियामकसम्बन्धस्य प्रतियोगितावच्छेदकत्वाभावेऽपि प्रतियोगितावच्छेदकताघटकसम्बन्धत्वं सर्वसम्मतमेव, 'चैत्रो न पचतीत्यादौ वृत्त्यनियामकाऽनुकूलत्वसम्बन्धेन पाकविशिष्टायाः कृतेरभावस्य चैत्रादावन्चयदर्शनात् " (सि.ल.जा. पु. २२९) इति । तथा च प्रकृताऽभावीय प्रकाशकरूपवभिष्ठप्रतियोगितानिरूपितप्रकाशकरूपनिष्ठावच्छेदकताया वृत्त्यनियामकस्वाश्रयसंयोगसम्बन्धावच्छिन्नतायां विप्रतिपत्त्यसम्भवादित्याशङ्कानिराकरणकृते प्रकरणकृदाह - तत्सम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगितावच्छेदकताकतद्वद्भेदस्य = स्वाश्रयसंयोगसम्बन्धावच्छिन्न-प्रकाशकरूपनिष्ठप्रतियोगितावच्छेदकताकप्रकाशकरूपवत्प्रतियोगिकभेदस्य, तथात्वे = तमस्त्वेऽभ्युपगम्यमाने इति शेषः । अत्र प्रतियोगितावच्छेदकतावच्छेदकसम्बन्धः स्वाश्रयसंयोगः प्रतियोगितावच्छेदकधर्मः प्रकाशकरूपं प्रतियोगितावच्छेदकसम्बन्धश्च तादात्म्यसंसर्ग: सौरालोकादिशून्य एव देशे स्वाश्रयसंयोगसम्बन्धेन प्रकाशकरूपविशिष्टस्य भेदो वर्तत इति तत्रैव तमसः प्रतीतिर्व्यवहारश्चेति प्रकाशकरूपवद्भेदलक्षणत मोवाद्यभिप्रायः ।
प्रकरणकारः तदपाकरणे हेतुमाह - त्विति । पूर्वाऽपेक्षया विशेषद्योतनार्थः । तमेवाऽऽह निशीथिन्यामपि भूतलादौ तमोव्यवहारनुपपत्तिः । कुतः ? इत्याह - अन्योन्याभावस्य व्याप्यवृत्तित्वादिति । दिवा भूतलादी स्वाश्रयसंयोगसम्बन्धेन प्रकाशकरूपाश्रयस्य भेदः स्वरूपेण न वर्तत इत्यत एव तदानीं तत्र न तमसो ज्ञानं व्यवहारश्च । प्रकाशकरूपवत्प्रतियोगिकभेदस्य भूतलादी सौरालोकादिसंयुक्तत्वदशायामवर्तमानत्वात्र निशायामपि स तत्र भवितुमर्हति भेदस्य व्याप्यवृत्तित्वेन स्वाभावाधिकरणेऽवर्त्तमानत्वात् । न च काले देशस्येव देशेऽपि कालस्याऽवच्छेकत्वसम्भवादालोककालीने भूतलादौ तादृशभेदस्याsसत्त्वेऽपि आलोकशून्यकालावच्छेदेन निरुक्तभेदसत्त्वे बाधकाभावेन न नक्तं तत्र तमोव्यवहारानुपपत्तिरिति वाच्यम्, अत्यन्ताभावस्थले एव देशे कालस्य काले च देशस्याऽवच्छेदकत्वसम्भवात् न त्वन्योन्याभावस्थले । यद्वा भक्तु पाकानन्तरं रक्तनादशायां 'इदानीं नाज्यं श्याम' इत्यनुभवबलेन पाकानन्तरकालस्याऽन्योन्याभावस्थलेऽपि देशावच्छेदकत्वं तथापि आलोकभिन्नकालावच्छेदेन निरुक्तभेदस्य तमस्त्वं न सम्भवि, निशीधिन्यामप्यन्यदेशावच्छेदेनाज्ज्लोकसम्भवात् । तद्देशावच्छिन्नालोकभिन्न
* स्वाश्रयसंयोग को भेदप्रतियोगितावच्छेदकतावच्छेदकसम्बन्ध मानने में दोष स्याद्वादी
तत्सं० इति । यदि प्रगल्भ की ओर से यह कहा जाय कि > "स्वाश्रयसंयोग सम्बन्ध वृत्ति अनियामक होने से प्रतियोगितावच्छेदक मत हो, मगर प्रतियोगितावच्छेदकतावच्छेदक तो बन सकता है। ऐसा मानना तो नैयायिकमत में प्रसिद्ध ही है । अतः स्वाश्रयसंयोगसम्बन्ध से प्रकाशकरूपवान् के भेद को ही अन्धकारात्मक माना जा सकता है। मतलब यह है कि प्रकाशक- रूपवत्प्रतियोगिक भेद ही अन्धकार है । यहाँ प्रतियोगितावच्छेदक सम्बन्ध तादात्म्य है एवं प्रतियोगितावच्छेदकतावच्छेदकसम्बन्ध है स्वाश्रयसंयोग । प्रतियोगितावच्छेदकधर्म है प्रकाशक रूप । प्रकाशक रूप स्वाश्रयसंयोगसम्बन्ध से सूर्यप्रकाशादिसंयुक्त भूतलादि में रहता है, क्योंकि उक्त सम्बन्ध में स्वपद से प्रकाशक रूप को लेने पर उसका आश्रय सूर्यप्रकाशादिस्वरूप द्रव्य है, जो भूतलादि से संयुक्त है । अतः तादृश भूतलादि द्रव्य स्वाश्रयसंयोगसम्बन्ध से प्रकाशकरूपविशिष्ट बनेंगे । उसका भेद सूर्यप्रकाशादि से असंयुक्त देश में रहेगा । अन्धकार तादृश भेदात्मक ही है, क्योंकि तादृश भेद जहाँ जहाँ रहेगा, वहाँ वहाँ अन्धकार की प्रतीति एवं व्यवहार होता है । अतः स्वाश्रयसंयोगसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियागितावच्छेदकता एवं तादात्म्यसम्बन्धावच्छिनप्रतियोगिता के निरूपक प्रकाशकरूपविशिष्टप्रतियोगिक भेद को ही अन्धकार मानना तर्कसंगत है' - तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर भेद व्याप्यवृत्ति होने से रात्रि में भी भूतलादि में अन्धकारव्यवहार की अनुपपत्ति होगी, क्योंकि अन्योन्यामाव व्याप्यवृत्ति है । आशय यह है कि जिस अधिकरण में अन्योन्याभाव का अमाव रहता हो वहाँ अन्योन्याभाव नहीं रहता है तथा जहाँ अन्योन्याभाव का अभाव रहता हो वहाँ अन्योन्याभाव नहीं रहता है तथा जहाँ अन्योन्याभाव रहता है वहीं उसका अभाव नहीं रहता है। दिन में भूतल में सौरालोकसंयोग होने पर वहाँ स्वाथयसंयोगसम्बन्ध से प्रकाशक रूप से विशिष्ट का तादात्म्यसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताक भेद नहीं रहता है, क्योंकि स्व = प्रकाशक रूप के आश्रय सूर्यप्रकाश का संयोग तब भूतल में होने से स्वाश्रयसंयोगसम्बन्ध से तब वह प्रकाशकरूपविशिष्ट है। अपने में अपना मेद नहीं रहता है। अतएव तब भूतलादि में अन्धकार की प्रतीति एवं व्यवहार नहीं होता है। जब यह सिद्ध हो गया कि भूतलादि मे तादृश भेद नहीं रहता है, यानी तादृशभेद का अभाव रहता है, तब रात में भी तादृशभेद भूतलादि में नहीं रह सकता,
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