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३८३ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ का. ५ * घटत्वादिना द्रव्यप्रतिबन्धकताग्रोतनम् *
तादृशजाते रस्त्याऽवयविन्यप्यभ्युपगमान जलत्वादिना साहूकर्राम् । न तैतं घटादीनामप्यारम्भकत्वं स्यात्, घटत्वादिना घटादेर्दव्यं प्रति प्रतिबन्धकत्वात् ।
* जयलता कै
रणस्य द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदकत्वं युक्तमिति समाधानाशयः ।
ननु जातिविशेषस्यैव द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदकत्वे जलत्वादिना साङ्कर्यं दुर्निवारम् । तथाहि कपाले तादृशजातिविशेषोऽस्ति जलत्वं च नास्ति, अन्त्यावयविनि जले जलत्वमस्ति तादृशजातिविशेषश्च नास्ति, तस्य द्रव्यानारम्भकत्वात् । परस्परत्र्यधिकरणयोः जलत्व-जातिविशेषयोरनन्त्यावयविनि जले समावेशाज्जलत्वादिना समं निरुक्तजातिविशेषस्य सङ्करप्रसङ्गेन जातिविशेषस्य न द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदकत्वं किन्तु स्पर्शवदनन्त्यावयवित्वस्यैव तत्त्वं कल्पयितुमुचितमित्याशङ्कादूरीकरणकृते आह - तादृशजातेरिति । द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदक-जातिविशेषस्य, अन्त्याऽवयविनि जलादो अपि अभ्युपगमात् अपिशब्देनाऽनन्त्याऽवयविसमुच्चयः कृतः । न जलत्वादिना साङ्कर्यम् । आदिपदेन पृथिवीत्वादिग्रहः । जलत्वादिना जातिविशेषस्य वैयधिकरण्याऽसिद्धेर्न परस्पराऽसमानाधिकरणयोरेकत्र समावेशलक्षणसङ्करावकाशः, अन्त्यादवयविनि अनन्त्याऽवयविनि च जलादौ तादृशजातेः सत्त्वाऽभ्युपगमादिति भावः ।
ननु घटादावन्त्यावयविन्यपि द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदकजात्यभ्युपगमे तु घटादेरपि द्रव्यारम्भकत्वं प्रसज्येत, तस्य द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदकवत्त्वात् । न च तस्य द्रव्यारम्भकत्वं कस्यचिदप्यभिमतम् । न च महापटस्याऽन्त्यावयविन: खण्डपटारम्भकत्वाऽन्यथानुपपत्त्याऽन्त्याऽवयविन्यपि तादृशजात्यङ्गीकार उचित इति वाच्यम्, खण्डपटस्य महापध्वंसजन्यत्वेन महापदोपादानोपादेयत्वाऽभ्युपगमात् । अतो नान्त्याञ्चयविनि द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदक जात्यभ्युपगमः प्रामाणिकः । एतेन जलत्वादिना साङ्कर्यनिवारणकृतेऽन्त्याऽवयविनि तादृशजात्यङ्गीकारो न्याय्य इत्यपि प्रत्याख्यातम्, न हि प्रयोजनक्षतिभयेन सामग्री कार्यं नाऽजयतीति उभयतः पाशरज्जुन्यायापात इत्याशङ्कानिराकरणायोपक्रमते न चेति । एवं = अन्त्याऽवयत्रिन्यपि द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदकजात्यभ्युपगमे सति घटादीनामप्यारम्भकत्वं स्यात् = प्रसज्येत । तद्युक्तत्वमाविष्करोति
घटत्वादिना रूपेण घटादेः अन्त्याऽवयविन: द्रव्यं प्रति प्रतिबन्धकत्वादिति । समवायेन द्रव्यत्वावच्छिन्नं प्रति तादात्म्येनाऽन्त्याऽवयविन: प्रतिबन्धकत्वमिति नियमो ऽस्माभिरङ्गीक्रियते । घटादिष्वन्त्याऽवयविषु द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदकजातेः सत्त्वेऽपि समवायेन द्रव्यं प्रति तादात्म्येन तेषामेव प्रतिबन्धकत्वान्न घटादिषु समवायेन द्रव्यमुपजायते, प्रति
* द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदक नाति में सांकर्य का निराकरण
तादृश इति । यहाँ यह शंका हो कि " जातिविशेष को द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदक मानने पर जलत्व आदि जाति के साथ सांकर्य होगा । वह इस तरह अन्त्य अवयवी जल में जलत्व जाति है, मगर उपर्युक्त जातिविशेष नहीं है । कपाल में जातिविशेष है, मगर जलत्व जाति नहीं है । परस्पर व्यधिकरण जलत्व जाति एवं द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदक जातिविशेष दोनों ही अनन्त्य जल द्रव्य में विद्यमान है, क्योंकि वह जल है एवं अन्त्य अवयवी जल का समवायिकारण है । परस्पर व्यधिकरण धर्म का एक धर्मी में समावेश होना ही सांकर्य है, जो कि जातिबाधक है । उक्त सांकर्य दोष के कारण ही द्रयसमवायिकारणतावच्छेदकविधया जातिविशेष का स्वीकार नहीं किया जा सकता' - तो यह भी नामुनासिव है, क्योंकि अन्त्य अवयवी में भी द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदक जातिविशेष का हम अंगीकार करते हैं। मतलब यह है कि जलत्व एवं उक्त जातिविशेप को परस्पर व्यधिकरण सिद्ध करने के लिए जो कहा गया था कि 'अन्त्य अवयवी जल में जलत्व जाति है, मगर द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदक जातिविशेष नहीं है वही असंगत है, क्योंकि उसमें दोनों ही जाति रहती हैं । अतः परस्परव्यधिकरण धर्म का एक धर्मी में समावेशस्वरूप सांकर्य दोष नामुमकिन है। यहाँ यह शंका हो कि 'अन्त्य अवयवी में द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदक जातिविशेष का स्वीकार करने पर तो घटात्मक अन्त्य अवयवी से भी अन्य द्रव्य की उत्पत्ति होने लगेगी, क्योंकि उसमें द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदक जातिविशेष विद्यमान है । अतः कपाल की भाँति घट में भी द्रव्यारम्भकत्व की आपति होगी" - तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि घट आदि अन्त्य अवयवी में द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदक जातिविशेष होने पर भी घटत्वादि धर्म नवीन द्रव्य की उत्पत्ति की प्रतिबन्धकता का अवच्छेदक होने से उसके आश्रय घटादि से नूतन द्रव्य की आरम्भकता = समवायिकारणता की आपत्ति नहीं दी जा सकती । नवीन द्रव्य की उत्पत्ति के प्रति तादात्म्य सम्बन्ध से घट आदि द्रव्य को घटत्वादिरूप से प्रतिबन्धक मानने से ही घटादि अन्त्य अवयत्री द्रव्य से नवीन