Book Title: Syadvadarahasya Part 2
Author(s): Yashovijay Upadhyay, 
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 184
________________ ३८१ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्ड: २ का ५ अनन्त्यावयवत्वस्य कारणतावच्छेदकत्वम् हात्, अनन्त्याऽवयवित्वस्य द्रव्यसमवायिकारणत्वपर्यवसितस्य कारणतानवच्छेदकत्वाच्च । अथ द्रव्याऽसमवायिकारणं द्रव्यं अन्त्याऽवयवितद्भेदश्चाऽभावत्वेन प्रतीयमानत्वादतिरिक्त एव, न तु द्रव्यसमवायिकारणत्वमेव । स एव चात्र कारणतावच्छेदक इति चेत् ? ा, द्रव्यसमवायिकारणतापरिचयं विनाऽनेनाऽपि रूपेण कारणताया दुर्बहत्वात् । * जयलता अनन्त्याऽवयवित्वं सति स्पर्शवत्त्वं ? इत्यत्र विनिगमकाभावात् । आदिपदेन अन्त्याऽवयविभिन्नत्वे सति स्पर्शवदवयवित्वमुतत् स्पर्शवदवयवित्वे सति अन्त्यावयविभिन्नत्वं तथा । इत्यस्य ग्रहणम् । कारणतावच्छेदकधर्मविनिगमकाभावात्तादृशकार्यकारणभावा सम्भव इति भावः । अस्तु तर्हि अनन्त्यावयवित्वस्यैव जन्यद्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदकत्वभित्याशङ्कायां सत्यां हेत्वन्तरमाह - अनन्त्यावयवत्वस्य द्रव्यसमवायिकारणत्वपर्यवसितस्य कारणतावच्छेदकत्वाचेति । समवायिकारणतावच्छेदकत्वाऽसम्भवाचेत्यर्थः । अयमनिप्रायः अलगाववापिकाः समनयत्येनैकत्वम् । अत एव जन्यद्रव्यत्वावच्छिन्नसमवायसम्बन्धाबच्छिन्नकार्यतानिरूपिततादात्म्यसम्बन्धावच्छिन्ना अन्त्यावयवित्वावच्छिन्नसमवायिकारणताकल्पनभयुक्तम्, दर्शितसमवायिकारणतावच्छेदक-समवायिकारणतयोरैक्येन ज्ञप्तों आत्माश्रयप्रसङ्गात्, अवच्छेद्यावच्छेदकयोर्भिन्नत्वनियमात्, अप्रसिद्धेनाऽप्रसिद्धज्ञापनायोगात् । अत एव मुक्तावलीकृतां कार्यं विहाय संयोगस्य समवायिकारणतावच्छेदकतया द्रव्यत्वजातिसिद्धिकल्पान्तरानुसरण| मप्युपपद्यते इति विभावनीयं न्यायविद्भिः । ननु ब्रयसमवाथिकारणीभूतस्य द्रव्यस्य भावत्वेन प्रतीतिर्भवति, अनन्त्यावयवित्वस्य तु अन्त्यावयविभिन्नत्वपर्यवसितस्याभावत्वेन प्रतीतिर्भवति । समनैयत्येऽपि विरुद्धधर्माध्यासान्तयोरतिरिक्तत्वमेव । अतः समवायिकारणत्वानन्त्यावयविवयोऽभेदः । न च समनियतयोरैक्यमिति नियमांऽपि प्रामाणिकः, अप्रयोजकत्वात् । घट-तदभावा भावयोरयतिरिक्तत्वस्यैव मयाऽभ्युपगमात् । एतेन द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदककोटी समवायिकारणतात्मकस्यानन्त्याऽवयवित्वस्य प्रवेशादात्माश्रय इत्यपि प्रत्युक्तम्, द्रव्यसमवायिकारणतातिरिक्तस्यैवाऽनन्त्यावयवित्वस्य तत्कुक्षी प्रवेशादित्याशयेन नव्यनैयायिकः शङ्कते अथेति । स एव = द्रव्यसमवायिकारणतातिरिक्तः अन्त्याऽवयविभेद एव च अत्र जन्यद्रव्यस्य स्पविदनन्त्यावयव्यारभ्यत्वस्थले, कारणतावच्छेदकः = द्रव्पराभवायिकारणतावच्छेदकः । शेषञ्चावतरणिकायामेव भावितम् । - *** प्रकरणकार : तन्निराकुरुते नेति । द्रव्यसमवायिकारणतापरिचयं = जन्यद्रव्यत्वावनिसमवायसम्बन्धावच्छिन्नकार्यतानिरूपितसमवायिकारणतास्वरूपावबोधं विना अनेन = अन्त्यावयविभिन्नत्वावच्छिन्नत्वेन, अपि रूपेण कारणतायाः प्रकृते द्रव्यसमवायिकारणताया, दुर्ग्रहत्वात् = दुर्ज्ञेयत्वात् । अस्तु द्रव्यसमवायिकारणताया अन्त्याऽवयविभेदातिरिक्तत्वं तथापि तत्स्वरूपानवबोधेऽन्त्यावयविभेदः किभ्वरूपाया: कारणताया अवच्छेदकः स्यात् ? न च तत्स्वरूपमद्यावधि नव्येन विषय में विनिगमनाविरह = एकतरपक्षपातियुक्तिविरह होने से स्पर्शचदनन्त्यावयवित्व को जन्यद्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदक नहीं माना जा सकता । दूसरी बात यह है कि अनन्त्य अवयत्री का मतलब है समवायी कारण अतः अनन्य अवयवित्व भी समवायिकारणतावच्छेदकस्वरूप फलित होगा । इस स्थिति में जन्यद्रव्यत्वावच्छिन्न समवायसम्बन्धावच्छिन्न जन्यद्रव्यनिष्ठ कार्यता से निरूपित तादात्म्यसम्बन्धावच्छिन्न समवायिकारणता के अवच्छेदकविधया अनन्य अवयवित्व का स्वीकार नहीं हो सकता, क्योंकि समवायिकारणता अनन्त्यावयवित्वस्वरूप होने से अनन्त्यावयवत्व ही अनन्यावयवित्व का अवच्छेदक बनेगा, जिससे ज्ञप्ति में स्पष्टरूप से error दोष प्राप्त है । अवच्छेदक धर्म कारणता का परिचायक ज्ञापक होता है, कारणता उससे परिचायित = ज्ञापित होती है । इसलिए अवच्छेदक धर्म अवच्छेद्य कारणता से भिन्न एवं प्रसिद्ध होना चाहिए । मगर यहाँ समवायिकारणतावच्छेदक और समवायिकारणता एक बन जाने से आत्माश्रय दोष प्रसक्त होता है । अतएव अनन्त्यावयवित्व जन्यद्रव्यनिरूपित समवायिकारणता का अवच्छेदक नहीं बन सकता है । न गातिविशेष को द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदक मानना उचित अथ इति । यहाँ नव्यनैयायिक मनीषिओं का यह कथन है कि द्रव्य के समवायिकारणीभूत द्रव्य अन्य अवयवी और उसके भेद से अतिरिक्त ही है । यद्यपि जहाँ जहाँ द्रव्यसमवायिकारणता रहती है वहाँ वहाँ अनन्त्याऽवयवित्व = अन्त्या5विभेद रहता है फिर भी द्रव्यसमवायिकारणता की भावत्वेन प्रतीति होती है और अन्त्यावयविभेद की अभावत्वेन प्रतीति होती है । विरुद्ध धर्म का अभ्यास होने से वे दोनों परस्पर भिन्न हैं । द्रव्यसमवायिकारणता का अवच्छेदक अन्त्यावय

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