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* नत्र्यमतं इन्द्रियात्रयत्रप्वनुद्भूतस्पर्शानभ्युपगमः *
किस, नव्यनैयायिकेन चक्षुरादीन्द्रियावयवेष्वनुद्भूतस्पर्शमनभ्युपगच्छता जातिविशेष एव द्रव्यारम्भकतावच्छेदकत्वेनाऽभ्युपेयः । स तु तमस्यपि संभवतीति नानुपपत्ति: । च द्रव्यारम्भकत्वाऽन्यथानुपपत्यैव तत्राऽनुद्भूतस्पर्शोऽभ्युपगम्यतामिति वाच्यम्, अनन्ताबुद्भूतस्पर्शकल्पनामपेक्ष्य लघुभूतैकजातिविशेषकल्पनाया एवोचितत्वात् ।
ॐ जयलता
निरूपितम् । अतः तयोर्भिन्नत्वाऽभ्युपगमेऽपि न परस्य निस्तार इति स्याद्वाद्यभिप्रायः ।
प्रकरणकारः तमोद्रव्यत्वसाधनार्थमाचष्टे किचेति । नव्यनैयायिकेन चक्षुरादीन्द्रियावयवे अनुद्भूतस्पर्श मनभ्युपगच्छता त्वया जातिविशेष एव द्रव्यारम्भकतावच्छेदकत्वेन द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदकधर्मविधया, अभ्युपेयः । यद्यपि चक्षुराद्यवयवे प्राचीननैयायिकमते उद्भूतस्पर्शो नास्ति परन्त्वनुद्भूतस्पर्शोऽस्ति तथापि नव्यनैयायिकमतेऽनुद्भूतस्पर्शोऽपि तत्र नास्ति प्रमाणाभावात् । प्रकृते चाऽथवादी नव्यनैयायिक एव । तन्मतेऽपि स्पर्शवदनन्त्यावयवित्वस्यैव द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदकत्वम् । चक्षुराद्यवयवैः चक्षुरादीन्द्रियं जन्यते न च तन्मते तत्र स्पर्शोऽस्ति । अतः दर्शितकारणतायां व्यतिरेक'व्यभिचारों लब्धावकाशो दुर्निवारः । तदपाकरणाय चक्षुराद्यवयवसाधारणो जातिविशेष एव द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदकधर्मविधया नव्येन स्वीकर्तुमुचितः । स = द्रव्यारम्भकतावच्छेदकजातिविशेषः तु तमसि अवयवभूते अपि सम्भवति, तमः साधारणतादृशजातिविशेषकल्पनात् इति = तो : तमोऽवयवेषु तमसि वा स्पर्शविरहेऽपि नानुपपत्तिः = न तमसो द्रव्यत्वक्षतिः ।
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न चैति । अस्य वाच्यमित्यनेनाऽन्वयः । द्रव्यारम्भकत्वाऽन्यथानुपपत्त्यैव तत्र = चक्षुरादीन्द्रियावयवेषु, अनुद्भूतस्पर्शः अभ्युपगम्यताम् । स्पर्शबद्द्रव्यस्यैव द्रव्यारम्भकत्वदर्शनाच्चक्षुरादीन्द्रियारम्भकेषु तदवयवेषु स्पर्शोऽवश्यमभ्युपगन्तव्यः । स चोद्भूतो न सम्भवति, तदाश्रयस्पार्शनापत्तेः द्रव्यस्पार्शनं प्रति उद्भूतस्पर्शस्यैव कारणत्वात् । अत: पारिशेषन्यायेन चक्षुरादीन्द्रियावयवस्पर्शस्याऽनुद्भूतत्वं कल्प्यते । यदि च तत्राऽनुद्भूतस्पर्शोऽपि न स्यात्, गगनादिवत् द्रव्यारम्भकत्वमपि न स्यात् । अतो द्रव्यारम्भकत्वेन अन्ततोगत्वानुद्भूतः स्पर्शः कल्पनीय एवेति शङ्काशयः । प्रकरणकृत्तन्निराकरोति अनन्तानुद्भूतस्पर्शकल्पनां = अनन्तेषु चक्षुराद्यवयवेषु पृथक्पृधगनन्तानां अनुद्भूतस्पर्शानां कल्पनां, अपेक्ष्य लघुभूतैकजातिविशेषकल्पनाया: लघुभूतस्यैकस्य द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदकत्वेन जातिविशेषस्य कल्पनाया, एवोचितत्वात् । चक्षुराद्यवयवेषूक्तजातिविशेषकल्पनयैव द्रव्यारम्भकत्वोपपत्तावनन्तानुद्भूतस्पर्शकल्पनाया अन्याय्यत्वादिति जातिविशेषस्यैव तमश्चक्षुराद्यवयवसाधा
विभेद ही है, जो उससे अतिरिक्त है । अतएव उसको अवच्छेदक मानने में ज्ञप्ति में आत्माश्रय दोष का अवकाश नहीं है" - मगर यह कमन भी अयुक्त है, क्योंकि द्रव्यसमवायिकारणता और अन्त्याऽवयविभेद को परस्पर से अतिरिक्त मानने पर द्रव्यसमवायिकारणता के स्वरूप का ज्ञान न होने से अन्त्यावयविभेद किंस्वरूप द्रव्यसमवायिकारणता का अवच्छेदक बनेगा ? अतः उक्त रूप से द्रव्यसमवायिकारणता का ज्ञान मुश्किल है। इसके अतिरिक्त बात यह है कि प्रतिवादी नव्यनैयायिक चक्षु आदि इन्द्रिय के अवयवों में अनुद्भुत स्पर्श का भी अंगीकार नहीं करते हैं फिर भी उनसे चक्षु आदि इन्द्रिय का आरम्भ होता है । अतः स्पर्शचद् अनन्य अवयवी में स्पर्शवदनन्त्यावयवित्व नहीं होने से उसे द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदक मानना संगत नहीं है, किन्तु जातिविशेष को ही द्रव्यसमवायिकारणता का अवच्छेदक मानना युक्त है । चक्षु आदि इन्द्रिय के अवयवों में स्पर्शवदनन्त्याऽवयवित्व न होने पर भी जातिविशेष होने से उक्त कार्य कारणभाव में व्यतिरेक व्यभिचार का अवकाश नहीं होगा । अतः नव्य नैयायिक को भी जातिविशेष को ही द्रव्यसमवायिकारणता का अवच्छेदक मानना युक्त है । वह जातिविशेष जैसे चक्षु आदि इन्द्रिय के अवयवों में रहता है ठीक वैसे ही अन्धकार के अवयव में भी रहता है । अतः अन्धकार के अवयवों से अन्धकार की उत्पत्ति हो सकती है । अतः अन्धकार एवं अन्धकार के अवयवों में स्पर्श को न मानने पर भी अन्धकार को जन्य द्रव्य मानने में कोई दोष संभवित नहीं है, क्योंकि द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदक जातिविशेष से युक्त अन्धकारावयव से वह जन्य है । यहाँ यह शंका हो कि के अवयवों में उद्भूत स्पर्श न होने पर भी अनुद्भूत स्पर्श का अंगीकार करना ही युक्त है, अन्यथा उनमें द्रव्यारम्भकत्व
'चक्षु आदि के अवयवों में या अन्धकार
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द्रव्यसमवायिकारणत्व ही अनुपपन्न होगा; क्योंकि घटादि के अवयवों में स्पर्श होने पर ही उनसे घटादि का आरम्भ होता है, यह देखा गया है। अतः चक्षु और अन्धकार के अवयवों में अनुद्भूत स्पर्श का स्वीकार करना ही होगा ' <- तो वह भी ठीक नहीं है, क्योंकि अनन्त अवयवों में अनन्त पृथक् पृथक् अनुद्भूत स्पर्श की कल्पना करने में गौरव है । इसकी अपेक्षा एक जातिविशेष की कल्पना करना ही उचित है, क्योंकि इस कल्पना में लाघव है ।