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३६७ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्ड २ का ५ * प्रकाशकरूपाभावतमांचादिप्रगल्भमतखण्डनम् *
तमसोऽतीन्द्रियत्वापत्तेः, अतीन्द्रियचन्द्रादिप्रभाप्रतियोगिकत्वात् विनिगमनाविरहेणोद्भूतरूपवत्त्वस्येवोद्भूतस्पर्शवावस्याऽपि प्रत्यक्षतायां तन्त्रत्वतात् तस्याऽतीन्द्रियत्वादिति । स पुलरप्रगल्भः, योग्यताविशेषस्यैव प्रत्यक्षप्रयोजकत्वात् ।
* जयलता
प्रकाशकतेजस्त्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकसंसर्गाभावस्य, तथात्वे = तमस्त्वे, तमसोऽतीन्द्रियत्वापत्तेः । तत्र हेतुमाह - अतीन्द्रियचन्द्रादिप्रभाप्रतियोगिकत्वादिति । वहिरिन्द्रियजन्यलौकिकप्रत्यक्षाऽगोचरचन्द्र-तारक ग्रहादिप्रभानिष्ठप्रतियोगितानिरूपकत्वात्, अतीन्द्रियप्रतियांगिकत्वेन प्रौढप्रकाशकयावत्तेजः संसर्गाभावलक्षणस्य तमसोऽतीन्द्रियत्वस्य न्याय्यत्वात् । प्रतियोगिनः चन्द्रादि| प्रभालक्षणस्य कथमतीन्द्रियत्वं उद्भूतरूपवत्त्वस्य तत्राऽबाधात् ? इत्याशङ्कानिराकरणायाऽऽह-विनिगमनाविरहेण विनिगमकाभावेन उद्भूतरूपवत्त्वस्येवोद्भूतस्पर्शवत्त्वस्याऽपि प्रत्यक्षतायां = बहिरिन्द्रियजन्यद्रव्यप्रत्यक्षतायां तन्वत्वात् = नियामकत्वात् उद्भूतस्पर्शशून्यत्वेन तस्य चन्द्रप्रभादेः, अतीन्द्रियत्वात् = प्रत्यक्षत्वाऽसम्भवात् । चन्द्रप्रभादेः प्रौढप्रकाशकयावदन्तर्गतब्येन तत्प्रतियोगिकसंसर्गाभावलक्षणस्य तमसोऽप्यतीन्द्रियत्वस्य वज्रलेपायित्वम् । न च तमसोऽतीन्द्रियत्वम्, 'तमः साक्षात्करोमी' ति प्रतीते: सर्वानुभवसिद्धत्वात् । अत एव तमसो न प्रौढप्रकाशकयाबत्तेजः संसर्गा भावत्वात्मकत्वं किन्तु प्रकाशकरूपाभावत्वमेव । युक्तःचैतत् प्रकाशकरूपे सति तत्र तमोऽज्ञानात्, प्रकाशकरूपाभावे सति च तदाश्रये तमोव्यवहारात्तयोः समनैयत्येनैक्यादिति प्रगल्भाऽभिप्रायः ।
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प्रकरणकारः तन्मतमपाकर्तुमुपक्रमते स = प्रगल्भः, पुनः अप्रगल्भः = अप्रवीणमतिः । स न यथा नाम तथा गुण इत्यर्थः तदेव भावयति योग्यताविशेषस्य तदंशे ज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमलक्षणस्य आत्मनिष्ठस्य प्राग्व्यावर्णितस्वरूपस्य एव प्रत्यक्षप्रयोजकत्वात्
साक्षात्कारविषयतानियामकत्वात् । एवकारेण विषयनिष्ठोद्भूतरूपस्पर्शो भयव्यवच्छेदः कृतः । चन्द्रादिप्रभाप्रत्यक्षेऽस्मदादियोग्यताविशेषस्याऽपेक्षितत्वात् तस्य चाऽस्मदादिष्वबाधान चन्द्रादिप्रभाया अतीन्द्रियत्वं वक्तुं पुज्यते । अत एव प्रगल्भं प्रत्यस्माभिः 'प्रौढप्रकाशकयावत्तेजः संसर्गाभावस्य तमस्त्वमित्युक्तौ न तेन किञ्चिद्वक्तुं पार्यते । इदञ्च प्रौढिवादेन ज्ञेयम्, स्वमते तमसो द्रव्यत्वादिति ध्येयम् ।
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ननु योग्यताविशेषस्य द्रव्यप्रत्यक्षत्वप्रयोजकत्वाभिधानं तु स्वगृहे एव प्रणिगद्यमानं शोभते न तु विद्वत्सभायामिति ही प्रत्यक्षविषयता का नियामक माना जाय, न कि उद्भूत स्पर्श को - इस विषय में कोई विनिगमक यानी एकतरपक्षपाती अनुकूल तर्क ही नहीं होने से दोनों को प्रत्यक्षविपयता का प्रयोजक मानना चाहिए । चन्द्रादि की प्रभा में उद्भूत रूप नहीं होने से उसका प्रत्यक्ष नहीं हो सकता । चन्द्रादि की प्रभा में उद्भूत रूप नहीं होने से उसका प्रत्यक्ष नहीं हो सकता । चन्द्रादि की प्रभा अतीन्द्रिय होने की वजह उसके अमावस्वरूप अन्धकार के मी अतीन्द्रिय होने की आपत्ति आयेगी, क्योंकि जिस अभाव का प्रतियोगी अतीन्द्रिय होता है, वह अभाव भी अतीन्द्रिय ही होता है, जैसे पिशाचाsभाव । अतः प्रौढप्रकाशक यावतेजद्रव्य के संसर्गाभाव को अन्धकाररूप मानने में तम अतीन्द्रिय होने की समस्या मुँह फाड़े खड़ी रहती है । अतः प्रकाशकरूपाभाव को ही अन्धकारस्वरूप मानना तर्कसंगत है ।
** प्रागत्भमतनिराकरण
स पुन इति । प्रकरणकार कहते हैं कि प्रगल्भ निपुणमतिवाला नहीं है। इसका कारण यह है कि प्रौढप्रकाशक यावतेजद्रव्य के संसर्गाभाव को अन्धकार नहीं मानने में उसने जो युक्ति दिखाई थी कि प्रत्यक्षविषयता में उद्भूत स्पर्श भी विनिगमकाभाव से नियामक होने से उससे शून्य चन्द्रादिप्रमा अतीन्द्रिय बनती है । अतएव तदभावात्मक अन्धकार अतीन्द्रिय बनेगा' <यह नामुनासिव है । इसका कारण यह है कि प्रत्यक्षविषयता में योग्यताविशेष ही प्रयोजक है । योग्यताविशेष होने की वजह ही चैत्रादि को चन्द्रादि की प्रभा का प्रत्यक्ष होने में कोई बाधक नहीं है। अतएव चन्द्रादि की प्रभा को अतीन्द्रिय नहीं मानी जा सकती । चंद्रादि की प्रभा का साक्षात्कार अनेक आदमी को होता ही है । अतः अन्धकार अतीन्द्रियप्रतियोगिक प्रौढप्रकाशकयावत्ते जद्रव्यसंसर्गाभावात्मक होने की और उसीकी वजह अन्धकार के अतीन्द्रियत्व अप्रत्यक्षत्व की आपत्ति को अवकाश नहीं है । दूसरी बात यह है कि प्रगल्म को भी द्रव्यचाक्षुष के प्रति उद्धृत रूप को ही हेतु मानना उचित है। जिस द्रव्य में उद्भूत रूप होता है, उसका चाक्षुष होता है, जैसे घट का । जिस द्रव्य में उद्भूत रूप नहीं होता है
१. स्वबुद्धपुत्कर्षप्रदर्शनार्थं प्रतिवादिवलपरीक्षणार्थं वा स्वानभिमतार्थकथनं
प्रौदिवादः ।
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