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*जात्यन्धानामपि चाक्षुषत्वोपगमः* ज्ञाने उपनीतस्य विशेषणत्वेनैव भाननियमात 'नीलं तम' इति प्रतीत्यनापत्तेश्चेति किमधिकमन्दविवादक्षोदेन ! प्रगल्भस्तु प्रकाशकरूपाभाव एव तमः, प्रौढप्रकाशकयावत्तेज:संसर्गाभावस्य तथात्वे
- जयलता == पस्थापितस्य, विशेषणत्वेनैव भाननियमादिति । एक्कारेण विशेष्यत्वेन तद्भानप्रतिक्षेपः कृतः । 'तमः पश्यामी ति बहिरिन्द्रियजन्यज्ञाने आलोकज्ञानाऽभावलक्षणस्य तमसो विशेष्यत्वेनैव भासनात्र तदंशोऽलौकिकचाक्षुषत्वं सम्भवतीति भावः । तत एव दोषान्तरमाह - 'नीलं तम' इतिप्रतीत्यनापतेश्चेति । आलोकज्ञानाभावस्य नीरूपत्वेन तत्स्वरूपे तमसि नीलत्वभानाsनुपपत्तेः । एतेन 'नीलं तम' इति धीस्तु स्मृतनीलिम्ना सममालोकज्ञानाभावस्याऽसंसर्गाग्रहादित्यपि प्रत्याख्यातम्, तथाननुभवात्, अप्रामाणिकगौरवात्, अस्खलवृत्तेश्च तस्या 'इदं रजतमि' त्यादिप्रतीतिवदसंसर्गाऽग्रहेणोपपादनाऽसम्भवात् । सौरालोकाद् | मध्यंदिने आलोकवद्गर्भगृहं प्रविशत: तमःप्रत्ययश्च भ्रम एव, आलोकज्ञानप्रतिबन्धकदोषस्य तत्र स्वीकारावश्यकत्वादिति दिक् ।
मीमांसाकुतूहले तु कमलाकरभट्टेन प्रभाकरमतमपनोदयता 'सौरालोकेऽपि तदप्रतिसन्धाने तमस्त्वापत्तिः, तमसि आलोकस्मरणे तदभावापत्तेश्च' (मी.कु.) इत्याद्युक्तम् ।
वस्तुतस्तु क्षयोपशमविशेषस्यैव चाक्षुषविषयतानियामकत्वं चक्षुरादेस्तु तत्रैवोपक्षीणत्वाचाक्षुषं प्रत्यन्यथासिद्भत्वम् । इत्यमेव जात्यन्धानामपि चाक्षुषमुपपद्यते । तदुक्तं व्यवहारसूत्रभाष्ये 'जो जाणइ य जचंधो बने रूवे विकप्पसो । न ते बावरिते तस्य विनाणं तं तु चिट्ठइ ।। (न्य.उ.१०, भा.गा.६६) इति । अत्र मलयगिरिसूरिवृत्तिश्चैवं . 'यो नाम जात्यन्धः स्पष्टचक्षुर्वर्णान् रूपाणि च विकल्पशोऽनेकप्रकार जानाति तस्य नेत्रेऽप्यावृते तत् विज्ञानं तिष्ठति अन्धीभूतोपि वर्णविशेषान् रूपविशेषांश्च स्पर्शतो जानातीत्यर्थः' (व्य.सू.उ.२०, भा.गा.६६ वृ.) । इत्थमेव 'स्वप्ने रथादयो मया दृष्टा इत्यादिप्रतीतेख्यार्थत्वमप्युपाया इति विभावनाय कोविदः ।
__ प्रगल्भ इति । तत्त्वचिन्तामणिव्याख्याकारविशेषः । तुः पूर्वोपदर्शितमतापेक्षया विशेषणे । तदेवाऽऽह - प्रकाशकरूपाsभाव एवं तमः । एवकारेण प्रौढप्रकाशकयावत्तेज:संसर्गाभाव-मदतानभिभूतरूपबदालोकाभावाऽऽलोकज्ञानाभावाऽऽलोककालविशेषाभावाऽतिरिक्तद्रव्यादेर्व्यवच्छेदः कृतः । तदेव लेशतो दर्शयति - प्रीदप्रकाशकयावत्तेजःसंसर्गाभावस्य = प्रौढ
के विशेषणरूप में ही भान होता है, न कि विशेष्यरूप से । ठीक वैसे ही आलोकदर्शनाभावस्वरूप अन्धकार का उपनीतभान मानने पर उसका चक्षुइन्द्रियजन्य ज्ञान में विशेषणविधया ही भान होना चाहिए मगर 'तमः पश्यामि' इस चाक्षुष प्रतीति में तमस्त्व के विशेष्यरूप में ही अन्धकार का भान होता है । इसलिए उक्त प्रतीति को अन्धकारांश में अलौकिक नहीं मानी जा सकती। इसी तरह 'नीलं तमः' यह चाक्षुष प्रतीति भी अन्धकार को आलोकज्ञानाभावात्मक मानने पर प्रभाकर मत में अनुपपत्र ही रहेगी, क्योंकि नील रूप कभी अभाव में नहीं होता है । अभाव तो नीरूप होता है । अतः नील रूप के विशेष्यरूप में अन्धकार का प्रामाणिक चाक्षुष प्रत्यक्ष प्रभाकरमत में अनुपपत्र ही रहेगा । इस तरह अन्धकार को आलोकदर्शनाभावात्मक मानने पर अनेक दोषों की परम्परा प्राप्त होने से प्रमाकरमत मान्य नहीं हो सकता । मंद व्यक्ति के साथ बहत विवाद के परिश्रम से क्या फायदा ?
प्रकाशकरूपाभाव ही अन्धकार - प्रगल्भप्रगल्भ. इति । यहाँ प्रकरणकार श्रीमद्नी तत्त्वचिन्तामणिग्रन्थ के व्याख्याकार नव्यनैयायिक प्रगल्भ के मत का निरूपण करते हैं। प्रगल्भ का कहना है कि अन्धकार और कुछ नहीं है, मगर प्रकाशकरूपाभाव ही अन्धकार है। जहाँ जहाँ प्रकाशक रूप का अभाव होता है वहाँ वहाँ अन्धकार का व्यवहार होता है, न कि अन्यत्र । अतः लापवसहकार से अन्धकार को प्रकाशक-रूपाभावस्वरूप ही मानना उचित है। प्रौत प्रकाशक यावत्तेजद्रव्य के संसर्गाभाव को तो अन्धकार नहीं माना जा सकता । इसका कारण यह है कि प्रौढप्रकाशक यावत्तेजद्रव्य में चन्द्र, तारा, नक्षत्र आदि की प्रभा का भी समावेश होता है। मगर चन्द्रादि की प्रभा तो अतीन्द्रिय है, क्योंकि उसमें उद्भुत रूप होने पर भी उद्भुत स्पर्श नहीं होता है। चन्द्रादि की प्रभा के स्पर्श का हमें कोई अनुभव नहीं होता है, तर उसे उद्भुत कैसे माना जाय ! बहिरिन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष में केवल उत रूप नियामक नहीं है, किन्तु उद्भुत स्पर्श भी नियामक है। जैसे जहाँ उद्भुत रूप नहीं होता है, उसका साक्षात्कार नहीं होता है । ठीक वैसे ही जिसमें उद्भुत स्पर्श नहीं होता है उसका भी प्रत्यक्ष नहीं होता है । अतः उद्भूत रूप को