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३६३ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ . का.५ * तमोद्रव्यत्वपक्षेऽन्योन्याश्रयापाकरणम् *
हित्वस्य बाधकस्याऽभावात् तमसो द्रव्यत्वसिन्दिरित्यन्योन्याश्रय इति कस्यचिदभिधानं ८- तदनुस्वधानम्, पेचकादीनां घटादिग्रहार्थमेव साध्यमानस्य तस्य तदयाहकत्वेन सिन्देः । प्रामाकरास्तु आलोकज्ञानाभाव एव तमः । अत एव आलोकवद्गर्भगृहं प्रविशतस्तमोधीः । = =--
जयलता * त्वस्य = महदद्भुतानभिभूत-रूपवदालोकनिरपेक्षचक्षुर्गोलकाधिष्ठितेन्द्रियजन्यज्ञाननिरूपितलौकिकविषयत्वस्य. बाधकस्याऽभावात् | तमसो द्रव्यवसिद्धिरिति ज्ञप्तौ अन्योन्याश्रय इति । तदश्रद्धेयत्वमाविष्करोति - पंचकादीनां नक्तं घटादिग्रहार्थमेवेति । एवकारेण 'तमोग्रहार्थ मित्यस्य व्यवच्छेद: कृतः । तस्य = तामसेन्द्रियस्य, पेचकादीनां तद्ग्राहकत्वेन = अन्धकारस्थितघटादिज्ञानजनकत्वेन, धर्मिग्राहकप्रमाणेन सिद्धेः । नक्तं पेचकादीनां घटादिग्रहान्यथानुपपत्तेः तामसेन्द्रियसिद्भिसम्भवादित्याशयः । इदञ्च परमताभ्युपगमेनोक्तमिति द्रष्टव्यम् । स्वमते तु पूर्वोक्तरीत्या भवप्रत्ययिकज्ञानावरणक्षयोपशमविशेषलक्षणयोग्यताबलादेव तदुपपत्तेर्न तामसेन्द्रियसिद्धिरिति ध्येयम् ।
प्राभाकरा इति । मीमांसकधुर्यकुमारिलभट्टशिष्य-गुर्वपराभिधान-प्रभाकरमियानुयायिन इति । आलोकज्ञानाभावः = आलोकचाक्षुषाभायः एव तमः । एवकारेण आलोकाभावो द्रव्यं या न तम इति दर्शितम । उपलब्धियोग्यालोकचाक्षषाऽभावे सति तमोऽभावाप्रतीते; तमोल्यवहाराच तमस उपलब्धियोग्यालोकचाक्षुषत्वावच्छिन्त्रप्रतियोगिताकाभावत्वमेध, लायन समनियतयॉरेक्यादिति । जात्यन्ध-निमीलितनयनपुरुषादरालोकचाक्षुषाभायेऽतिव्याप्तिवारणार्थं 'उपलब्धियोग्ये ति विशेषणमिति तेषामाशयः । अत एवेति । तमस आवश्यकाइलोकाऽभावानात्मकत्वादेव । सौरालोकवशात् आलोकवद्गृहं = महदनभिभूतोद्भूतरूपवता सौरालोका पेक्षया मन्देनाऽलोकेन युक्तं गृहं. प्रविशतः पुरुषादेः क्षणमेक 'अत्राऽन्धकार' इत्याकारिका तमोधीः उपपद्यते । तमस आवश्यका लोकाभावात्मकत्वे तु कथं तादृशाप्रतीतिरुपपद्येत ? अत: तमस उपलब्धियोग्याऽऽलोकचाक्षुषाभावात्मकत्वमेव युक्तम् । न चैवं सति 'नीलं तम' इति प्रीतिः कथं सङ्गच्छते ? इति वक्तन्यम्, स्मृतनीलिम्ना सममुपलब्धियोग्यालोकदर्शनाभावस्या संसर्गाऽग्रहादेव तदपपत्तेः । अत एच सौरालोकोपेतबहिर्देशादालोकवदर्भगृहं विशतः पुरुषादे: प्रथममालोकाग्रहे 'नीलं तम' इति धीः । तदुक्तं 'अप्रतीतावेव प्रतीतिभ्रमो मन्दानां' ( ) इति तेषामाशयः ।
मगर यह कथन अयुक्त है, क्योंकि तामसन्द्रिय की सिद्धि के लिए कुमारिलभट्टानुयायी के एकदेशीय की ओर से यह कहा जा सकता है कि तामस इन्द्रिय की सिद्धि अन्धकार में व्यत्व की सिद्धि पर निर्भर नहीं है, किन्तु उल्ल आदि को रात्रि
में घटादि के साक्षात्कार की अन्यथा अनुपपत्ति पर अवलम्बित है। अन्धकारस्थ घटादि के उल्लूचाक्षुप के लिए सिद्ध की जाने !' वाली तामसन्द्रिय की उसके ग्राहक (= ज्ञान-जनक) रूप में ही सिद्धि हो सकती है। अन्धकार में द्रव्यत्व की सिद्धि पर । तामस इन्द्रिय की सिद्धि आधार नहीं रखती है, जिसके फलस्वरूप में अन्योन्याश्रय दोप का प्रसङ्ग उपस्थित हो सके ।
आलोकज्ञानाभात ही अन्धकार है - प्रभाकरमत प्राभा, इति । मीमांसक के नीन भेद हैं (१) कुमारिलभट्ट के अनुयायी (२) कुमारिलभट्टशिप्य प्रभाकरमिश्र के अनुयायी (३) मुरारिमिश्र के अनुयायी । कुमारिलभट्टानुयायी के एकदेशीय विद्वानों के मत का निरूपण एवं निराकरण कर के प्रकरणकार
अब प्रभाकरमिश्र के अनुयायी के मत के खण्डनार्थ पहले उसके मत का प्रतिपादन करते हैं। । प्रभाकर के अनुयायिओं का कहना है कि -> "आलोकज्ञान का अभाव ही अन्धकार है । इसका आशय यह है | कि जिस स्थान में मनुप्य को आलोक नहीं दीखता, वहाँ वह अन्धकार का व्यवहार करता है, इससे सिद्ध होता है कि 'आलोकदर्शनाभाव ही अन्धकार है । जब विशेप्यता-सम्बन्ध से या प्रकारतासम्बन्ध से तन्देश में आलोकदर्शन का अभाव होता है, तभी वहाँ अन्धकार की प्रतीति एवं व्यवहार होता है । जब मनुप्य बाहर के प्रवल आलोक से गृह के भीतर प्रवेश करता है तो सहसा उसे वहाँ स्थित आलोक का दर्शन (चाक्षुष प्रत्यक्ष) नहीं होता और वह झट से बोल पड़ता है 'अत्र अन्धकारः' - 'यहाँ अन्धेरा है । इस व्यवहार से भी यही सिद्ध होता है कि आलोकदर्शनाभाव ही अन्धकार है, अन्यथा यदि आलोकाभाव तम होता नो आलोक तो वहाँ है ही, फिर आलोकाभावस्वरूप अन्धकार का चाक्षुप एवं व्यवहार कैसे हो सकता ? इस प्रकार आलोकज्ञानाभाव को अन्धकार मानने में युक्ति की अनुकूलता को देख कर प्रभाकरानुयायी कहते हैं कि अन्धकार दुसरा कुछ नहीं है, मगर आलोकदर्शनाभाव है। यह मीमांसक अग्रणी प्रभाकर के अनुयायिओं का मन्तव्य है।