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* आत्मनो ज्ञानस्वभावत्वसाधनम् * ज्ञानोत्पत्तिव्यवहारः पुनरावरणविगमादाविर्भावनिबन्धन:; भानुप्रकाशोत्यत्तिव्यवहारवत् । न चाऽऽविर्भावस्य सदसदविकल्पो स्यान्दादिना दोषाय; रूपभेदेनैव सदसत्त्वाऽभ्युपगमादित्याय विस्तरः । यतु -> तमसो द्रव्यत्वसिन्दौ तद्ग्रहार्थं तामसेन्द्रियसिन्दिः, तत्सिन्दौ चालोकनिरपेक्षचन
=-* जयला * -- पौगलिकत्वाच्च, औपाधिकानां तु तेषामुपाधिविलय मोक्षाऽवस्थायामननुवृत्तेस्तत्स्वभावत्वाऽयोगात् । अत एबन्छाद्वेषादिगुणस्वभावत्वमपि नाऽऽत्मनः सम्भवति, अदृष्टस्य तु पौलिकत्वस्य पूर्वमेव साधनेन गुणत्वाऽयोगाचेति प्रसक्तप्रतिषेधादात्मनः ज्ञानात्मगुणस्वभावत्वं सिध्यतीत्याशयः |
ननु ज्ञानस्वभावत्वं चेदात्मनः तदा 'आत्मनि ज्ञानमुत्पन्नं विनष्टमि' त्यादिव्यवहारो न स्यात् । न हि जलपरमाणो: शीतस्पर्शस्वभावत्वे तत्र तदुत्पत्तिविनाशन्यवहारः सम्भवति, सर्वदा तत्र तत्सत्त्वादित्याशङ्कायामाह - ज्ञानोत्पत्तिव्यवहार इति । 'आत्मनि ज्ञानमुत्पन्नं' इति शब्दप्रयोगः इति । आवरणविग़मात् = ज्ञानावरणकर्मबिलयात् आविर्भावनिबन्धनः = अभिव्यक्तिनिमित्तकः भानुप्रकाशोत्पत्तिव्यवहारवदिति । यधा सवितुः प्रकाशस्वभावत्वेऽपि घनाघनाम्बुवाहच्छन्नदशायां सूर्यप्रकाशो | नोपलभ्यते किन्तु तद्विलयावस्थायामेव । त्र्यवहन्ति च लोका अपि तदानीं यदुत 'सूर्यप्रकाश उत्पन्नोऽधुने ति । पुनश्च बारिवाहाऽऽवरणकाले 'सूर्यप्रकाशो विनष्ट' इति ब्यबहारोऽपि दृष्टचर एव । तथैव प्रकृते आत्मनो ज्ञानस्वभावत्वेऽपि धनज्ञानावरणकर्मच्छन्नावस्थायां 'मूढोऽयं न वनि किञ्चन' इति व्यवहार: तद्भिगमे पुनः 'ज्ञानमुत्पन्न' तदागमे च 'ज्ञानं विनष्टमिति व्यवहार इति आत्मनो ज्ञानस्वभावत्वेऽपि ज्ञानावरणविल्यादिनिमित्तकज्ञानाविर्भावादिनिमित्तकत्वेनाऽपि ज्ञानोत्पत्तिविनाश व्यवहारोपपत्तेरिति तात्पर्यम् ।
ननु ज्ञानस्वभावत्वेऽपि तदाविभांवे तदुत्पत्तिव्यबहार: तदावरणे च तद्विनाशव्यवहारो न पुनः सर्वधा तदुत्पत्त्यादि । व्यवहारः इति स्याद्वाद्यभ्युपगमो न युक्तः, तदाविर्भावस्याऽपि सदसद्विकल्पग्रस्तत्वात् । आविर्भावस्य पूर्व सत्त्वे पूर्वमपि ज्ञानोपलब्धिप्रसङ्गात् पूर्वमसत्त्वे च पश्चादप्यसत्त्वापत्तेरिति शङ्कामपनोदयति - न चेति । तदपाकरणे हेतुमाह - रूपभेदेनेव सदसत्त्वाऽभ्युपगमादिति । ज्ञानाऽऽविभविस्य पूर्व द्रव्यतन सत्त्वात् पर्यायत्वेन चा सत्त्वान्न दोषः । सदसत्कार्यबादसमर्थक. पूर्वोक्तयुक्त्यनुसारण भावनीयमिदम् ।
- यत्त्विति । तदुरववधानमित्यनेनाऽस्याऽन्वयः । तद्ग्रहार्थं = तमोद्रव्यज्ञानकृते इन्द्रियान्तराग्राह्यग्राहकत्वेन तामसेन्द्रियसिद्धिः । तमोद्रव्यत्वसिद्भिश्च कुतः ? इत्यावेदयति तत्सिद्धी = तामसेन्द्रियसिद्धी सत्यां च आलोकनिरपेक्षचक्षुर्गाद्य
स्वभाव होने पर भी ज्ञानावरण के विलय से ज्ञान का आविर्भाव होता है, उस निमित्त से 'ज्ञानं उत्पन' पह व्यवहार हो सकता है । यह ठीक उसी तरह संगत होता है जैसे सूर्यप्रकाशोत्पत्ति का व्यवहार । सूर्य प्रकाशस्वभाववाला होता है फिर भी जब वातावरण में बादल छा जाते हैं तब सूर्यप्रकाश नहीं दिखता है, बादलस्वरूप आवरण दूर होने के बाद 'सूर्यप्रकाश उत्पन्न हुआ' यह व्यवहार सूर्यप्रकाश के आविर्भावस्वरूप निमिन से होता है। इसी तरह ज्ञानोत्पत्तिव्यवहार भी ज्ञानाविर्भावनिमित्तक हो सकता है । यहाँ यह शंका करना कि ---> "ज्ञानाविर्भाव ज्ञानावरणविलय के पूर्व में विद्यमान है या अविद्यमान ? यदि विद्यमान है, तब तो पूर्व में उसका अनुभव होना चाहिए । यदि पूर्व में वह अविद्यमान है, तो पत्रान् कैसे विद्यमान हो सकेगा ? इसलिए ज्ञानावरणविलय से ज्ञान की उत्पत्ति माननी चाहिए, न कि आविर्भाव" - स्याद्वादिमत में संगत नहीं है। क्योंकि ज्ञानाविभांच भी द्रव्यत्वरूप से पूर्व में विद्यमान है, पर्यायरूप से अविद्यमान है। ज्ञानावरणविलय के पश्चात् पर्यायात्मना ज्ञानाविर्भाव विद्यमान होता है । इसलिए पश्रात् ज्ञान का साक्षात्कार होगा, पूर्व में नहीं । इस विषय का विस्तार से निरूपण प्रकरणकार ने अन्यत्र किया है, इसलिए विशेप जिज्ञासु अन्य ग्रन्थ का अवलोकन कर सकते हैं।
तामसेन्द्रियमापना में अन्योन्याश्रय दोष का जिराकरण यत्तु त. इति । यहाँ प्रकरणकार अन्य विद्वानों के वक्तव्य को खण्डनार्थ बताते हैं । उन मनीषियों का यह कथन : है कि -> "अन्यकार जब द्रव्यात्मक सिद्ध हो जाय तब अन्धकारद्रव्यज्ञानार्थ तामसेन्द्रिय की सिद्धि होगी। मगर तामसेन्द्रिय । की सिद्धि होने पर ही आलोकनिरपेक्ष चक्षु से ग्राह्यत्व अन्धकार में माना जा सकता है, जिसके फलस्वरूप में अन्धकार में द्रव्यत्व की सिद्धि होगी। इस तरह अन्धकार में द्रव्यत्व की सिद्धि तामस इन्द्रिय की सिद्धि से होगी और तामसेन्द्रिय की सिद्धि से अन्यकार में द्रव्यत्व की सिद्धि हो सकेगी। इसलिए अन्योन्याश्रय दोष प्रसक्त होगा" -