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२६१ मध्यमस्याद्वादरहस्य खगरः २ - का. *स्वभावपक्षानपणविमर्शः * || सर्वज्ञानस्वभावस्य चात्मनः तत्तदेश-तत्तत्काल-तत्तदविषयाद्याश्रित्य विचित्रज्ञानावरण- | || क्षयोपशमवशाद विचित्रज्ञानोत्पत्तो को वा विस्मय: स्यान्दादास्वादसुन्दरीधयाम् ? न ज्ञानस्वभावत्वमेवात्मनः कथमिति चेत् १ द्रव्यत्वेन गुणस्वभावत्वसिन्दो पारिशेष्या- || ।' दिति बूमः ।
= =* जायला *॥ ननु सुहृद्भावेन वयमापृच्छामो यदुत पेचकादीनां कुतोऽयमेव स्वभावो यद् दिवा ते न पश्यन्ति ? मानवानाञ्च कुतोऽयं स्वगावो यत्ते नक्तं न पश्यंति ! नश्वेतश्चमत्कारकारीदं समिति पराडकायां प्रकरणकारः प्राह - सर्वज्ञानस्वभावस्य चाऽऽत्मन इति । सर्वं ज्ञातुं स्वभावो यस्य स तथा. तस्य आत्मन इति । 'आत्मनः सर्वज्ञानस्वभावत्वे कुतः सर्वेषामात्मनां सर्वदा सर्ववस्तुगीचरज्ञानं न प्रादुर्भवती'त्याशड़कायामाह - तत्तद्देशेति । पेचकादीनां भवप्रत्यायको यं ज्ञानावरणकर्मक्षयोपशम: यन्महिम्ना ते दिवा न पश्यन्ति किन्तु निशायामेव । प्राकृतमानवानां चैवंविधा ज्ञानावरणक्षयोपशमो यद्वशात्सामान्यत:ते बहलतमें तमरि घटादिकं न प्रेक्षन्ते । अञ्जनादिद्रव्यविशेषमासाद्य गुर्वनुग्रह-शक्तिपातादिकं वा प्राप्य तथाविधः क्षयोपशमस्तंषामयोपजायते यद्भलादन्धतमस्यपि घटादिकं निहितनिध्यादिकञ्च तेऽवलोकन्ते अनाद्यपनयने तु नेति । दृश्यते हि साम्प्रतं मन्दतमनयना अपि पुरुषा बहिर्गोलकान्तर्गौलककाचनिर्मितयन्त्रविशेषाऽऽहितक्षयोपशमपाट्वेन सूक्ष्माक्षरादिकमीक्षमाणाः । ज्ञानावरणक्षयोपशमवैचित्र्यप्रयुक्तज्ञानवैचित्र्यज्ञातवतां को वा विस्मयः स्याद्वादास्वादसुन्दरधियां ? एकान्तवादविषयविषपानविगलित - ।' बुद्धीनामप्राप्तसर्वज्ञप्रवचनानामेव तत्राश्चर्यं न त्वनेकान्तबादमीमांसामांसलमतीनामस्माकमिति भावः ।।
पर: शकते - ज्ञानस्वभावलगेगा: मनः को रिसिद र सर्पशागस्वभावस्या उत्मनः' इत्यादिकं भवदुक्तं सर्वमेय बन्ध्यास्तनन्धयशृङ्गारसहोदरमामातीति शड़काशयः । तत्र समाधान .. द्रव्यत्वेन गुणस्वभावत्वसिद्धाविति । 'गुणपर्यायत्रद् द्रव्य (तत्त्वा. ५/३७) इति सूत्रेण द्रव्यत्वावच्छेदेन गुणपर्यायस्वभावत्वस्य साधनात् आत्मनो द्रव्यत्वानद्व्यापकगुणस्व. भावत्वं निरानाधम । तथापि ज्ञानस्वभावत्वसिद्भिः कथं स्यात्' : इत्याशङ्कायामाह - पारिशेष्यादिति । प्रसक्तप्रतिषेधे शिष्यमागसम्प्रत्ययः = पारिशेषन्यायः, तस्मादित्यर्थः । आत्मनो वर्णगन्धरसादिगुणस्वभावत्वं न सम्भवति, तस्याऽमृतत्वाद
है । उक्त प्रत्यक्ष में एकान्तवादी का यही मन्तब्य है कि - "बहिरिन्द्रियजन्य ज्ञान में उपनीत का विशेषणविथपा ही भान होता है एवं मानस प्रत्यक्ष में उपनीत का विशेषणविधया और विशेष्यविधया भान होता है, इस विषय में स्वभाव ही शरण है। इस तरह स्याद्वादी की ओर से भी यह कहा जाना उचित ही है कि स्वभावविशेष की वजह उल्लू आदि को दिन में घटादि का चाक्षुप प्रत्यक्ष नहीं होता है और मनुष्य को भी स्वभावविशेष के सबब ही घटादि का रात के अन्धकार में चाक्षुप नहीं होता है । वस्तुतः आत्मा का स्वभाव सब चीज को जानने का है मगर देशविशेष, कालविशेष, विषयविशेष आदि की अपेक्षा जीव का संसारी अवस्था में ज्ञानावरणकर्मविषयक क्षयोपशम विचित्र = भित्र भित्र होता है । ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम में विचित्रता होने से उससे नियम्य ज्ञान भी विभिन्न प्रकार के होते हैं । उल्लू आदि भव की अपेक्षा, अंजनादि द्रव्य की अपेक्षा ऐसा ज्ञानावरणक्षयोपशम होता है कि रात के गाद अन्धकार में रही हुई चीज का ज्ञान (चाक्षुप) हो सकता है । तथाविध क्षयोपशम के विरह में आम जनता को गाढ अन्धकार में रही हुई चीज का चाक्षुष प्रत्यक्ष नहीं होता है। इस विषय में स्याद्वाद का गहन अभ्यास करने वाले को आश्चर्य क्या ? अतः ज्ञानवरणक्षयोपशमात्मक योग्यताविशेप को ही चाक्षुपादि प्रत्यक्ष का नियामक मानना सुसंगत है।
HF ज्ञान आत्मस्वभाव है - स्यादादी I ज्ञानस्व. इति । यहाँ यह शंका हो कि --> "ज्ञानस्वभाववाली आत्मा कैसे हो सकती है ? यह जब तक सिद्ध न हो तब तक ज्ञानावरणकर्मक्षयोपशम के वैचित्र्य से ज्ञानवैचित्र्य का समर्थन नहीं हो सकेगा" - तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि द्रव्यमान गुणस्वभावबाला होता है, द्रव्यत्वावच्छेदेन गुणस्वभावत्व सिद्ध है। अतः आत्मा भी द्रव्य होने से गुणस्वभाववाली सिद्ध होनी है । वर्णगन्धादि तो आत्मगुण नहीं होने से आत्मा वर्ण-गन्धादिगुणस्वभाववाली नहीं हो सकती । एवं इच्छा, द्वेप आदि गुण भी मोक्षावस्था में नहीं होने से इच्छादिस्वभाववाली आत्मा नहीं हो सकती । इसलिए पारिश्ोप न्याय से ज्ञानगुण ही आत्मस्वभाव ! हो सकता है। इसलिए ज्ञानस्वभाववाली आत्मा होने में कोई दोष नहीं है । यहाँ यह शंका हो कि → "आत्मा ज्ञानस्वभाव। वाली है, तो फिर 'ज्ञान उत्पन्न हुआ इत्यादि व्यवहार कैसे हो सकेगा ?" -तो यह नामुनासिब है, क्योंकि ज्ञान आत्म