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३५१ मध्यमस्याद्वादरहरये खण्डः २ . का.५ * तमोग्राहकतामसेन्द्रियकल्पना*
तमोगहसाभवामाऽनुपपत्तिः । न च निमीलितनयनस्यापि तदग्रहाऽऽयत्ति:; चक्षुःश्रव:श्रोत्रवत् तस्य चक्षुर्गोलकाधिष्ठानत्वात् । न चेन्द्रियान्तराऽग्राह्यस्वमागुणाभावात् तादृशेन्द्रियाऽ
--- ..= = ...==* जयलता है तौतातिकपदेनोच्यन्ते । कुमारिलभट्टसिद्धान्तैकदेशाश्रयत्वे सति स्वतन्त्रार्थप्रतिपादकाः नौततिलकदेशिन इति गीयन्ते । तुः नयाथिकाद्यपेक्षया विशेषबोधकः । विशेषश्चार्य - द्रव्यचाक्षुपं प्रत्यालोकसंयोगस्य हेतुत्वेऽभ्युपगम्यमानेऽपि तामसेन्द्रियेण चक्षुरादिपश्चेन्द्रिवत्र्यतिरिक्तेन एव तमोग्रहसम्भवात् = तमोद्रव्यप्रत्यक्षसम्भवात् नाऽनुपपत्तिः । एतेन द्रव्यचाक्षुषं प्रत्यालोकसंयोगस्य हेतुत्वे आलोकसंयोगमृते दृश्यमानस्य तमसः कथं द्रव्यत्वमिति प्रत्युक्तम्, तमसः चक्षुरग्राह्यत्वेनाइचाक्षुपत्वात् । चक्षुषस्तमोऽग्राहकत्ये पिहितनयनस्यापि पुरुषस्य तमःसाक्षात्कार स्यादित्याशकां निराकुर्वन्ति । न चेति । तद्ग्रहापतिः = तमःप्रत्यक्षप्रसङ्ग । प्रकृतापादनस्याऽपाकरणे ते हेतुमुपदर्शयन्ति - चक्षुःश्रवःश्रोत्रवत् = भुजङ्गमश्रोत्रमिय, 'चक्षुषी एव श्रवसी यस्य स सप: चक्षुःश्रवः पदेन प्रतिपाद्यते । वासुकिश्रोत्रं यथा नेत्रगोलकान्तर्ति तथा तामसेन्द्रियमपि नयनगोलकाधिष्ठितमित्यर्थः । तस्य = तामसरप, चक्षुर्गालकाधिष्ठानत्वात् = अक्षिगालके वस्थितत्वात् । यथा भोगी नेत्रे निमील्य न किश्चिदपि पश्यति शृणोति वा तदीयश्रोत्रनयनेन्द्रिययोः चक्षोलकस्थत्वेन चक्ष:पिधानदशायां तयोः स्वविषयाऽसनिकृष्टत्वात् तथैव दयमपि नयने पिधाय न घटादिकं चक्षुरिन्द्रियेण तमो बा तामसेन्द्रियेण विज्ञातुं शक्नुमः, अस्मदीयचक्ष:तामसेन्द्रिययोः नेत्रगोलकवर्तितया नयननिमीलनावस्थायां तमसः स्वविषयासनिकृष्टत्वादिति न निमीलितनयनीयतमःप्रत्यक्षप्रसगावकाश इति तेषामाशयः |
ननु तामसस्येन्द्रियत्यसिद्धौ तमसस्तद्ग्राह्यत्वं सिध्यति । न च तस्येन्द्रियत्वं सम्भवति, तमसि चक्षुरादीन्द्रियाऽग्राह्यत्वे सति तामसग्राहागुणस्याऽभावात् । यथा पृथिव्यां चक्षुरादीन्द्रियाऽग्राह्यस्य घ्राणग्राह्यस्य गन्धगुणस्य सत्त्वाद् प्राणस्य चक्षुरादीन्द्रिया :तिरिक्तेन्द्रियत्वं सिध्यति तथा नाऽन बक्तुं शक्यते इति न तामसस्य चक्षुराद्यतिरिक्तेन्द्रियत्वसिद्धिरिति शङ्कामपहस्तयितमपक्रमन्ते - न चेति । इन्द्रियान्तराऽग्राह्य-स्वग्राह्यगुणाभावात् = तमसि तामसेतरचक्षुरादीन्द्रियाऽग्राह्य -तामसग्राह्यगुणस्य बिरहात्, तादृशेन्द्रियाऽसिद्धिः = चक्षुराद्यतिरिक्तेन्द्रियत्वेन तामसस्य न सिद्भिः । इन्द्रियान्तरत्वव्यवस्थापकगुणविरहान्न तामसेन्द्रियसिद्धिरिति शङ्ककाशयः ।
में व्यभिचार नहीं है, क्योंकि अंधकार का चाक्षुष प्रत्यक्ष नहीं होता है किन्तु तामसेन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष होता है। अन्धकारसाक्षात्कार में चाक्षुपत्वस्वरूप कार्यतावच्छेदक धर्म नहीं होने से उसका जन्म, बिना आलोकसंयोग के, होने पर भी व्यतिरेक व्यभिचार नहीं कहा जा सकता । अन्धकार का प्रत्यक्ष चक्षु इन्द्रिय से नहीं होता है किन्तु तामस नाम की छठी इन्द्रिय से होता है । यहाँ यह शंका करना कि -> "अन्धकार के साक्षात्कार के प्रति यदि चक्षु इन्द्रिय कारण नहीं है, किन्तु तामस इन्द्रिय ही कारण है, तब तो जैसे आँखें मूंद कर श्रवणेन्द्रिय से शब्द का प्रत्यक्ष होता है, ठीक वैसे ही अन्धकार का भी तामस इन्द्रिय से प्रत्यक्ष होने लगेगा" - नामुनासिब है। इसका कारण पह है कि सर्पकर्ण की भाँति तामसेन्द्रिय भी चक्षुगोलक में अधिष्ठित होती है । आशय यह है कि नाग की श्रवणेन्द्रिय आँख में ही होती है। इसलिए जब वह आँखें बंद करता है, तब उसकी कर्णेन्द्रिय का शब्द से सत्रिकर्ष नहीं होने से वह शब्द को नहीं सुन सकता है। ठीक इसी तरह हमारी तामस इन्द्रिय भी नेत्रगोलक में ही अधिष्ठित होती (= रहती) है । इसलिए जब हम आँखें बंद करते . हैं, तब हमारी तामस इन्द्रिय का अन्धकार द्रव्य के साथ संयोग नहीं होने से उस समय अन्धकार का प्रत्यक्ष हमें नहीं होता है । यहाँ यह शंका हो कि -> "तामस नाम की अतिरिक्त इन्द्रिय की कल्पना नहीं की जा सकती, क्योंकि अन्धकार द्रव्य को कोई भी गुण ऐसा नहीं है, जो तामस इन्द्रिय से ग्राह्य हो और उससे भिन्न इन्द्रिय से ग्राह्य नहीं हो । इन्द्रियत्व का व्यवस्थापक असाधारण गुण होता है, जो भिन्न इन्द्रिय से अग्राह्य हो एवं अपने से ग्राह्य हो । जैसे कि पृथ्वी में गन्य गुण ऐसा है, जो प्राण से ही ग्राह्य है एवं उससे अतिरिक्त चक्षु आदि इन्द्रिय से ग्राह्य नहीं है । इसलिए चक्षु आदि से नाक को भिम इन्द्रिय मानी जाती है । मगर अन्धकार में कोई भी ऐसा गुण नहीं है, जो तामस से भिन्न इन्द्रिय से अग्राह्य एवं तामस से ही ग्राह्य हो। इसलिए तामस में चक्षु आदि से अतिरिक्त इन्द्रियत्व ही नहीं माना जा सकता। तब तो अन्धकार का चाक्षुष ही मानना पड़ेगा, जिससे आलोकसंयोगनिष्ठ कारणता में व्यभिचार प्रसक्त होगा" <
र इन्द्रियान्तराऽग्राह्यग्राहकाप ही मिनेन्द्रियत्त का व्यवस्थापक लाघवा, इति । तो यह शंका ठीक नहीं है, क्योंकि इन्द्रियान्तराऽग्राह्य-स्वग्राह्यगुणग्राहकत्व को अतिरिक्त इन्द्रियत्व