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३४९ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ का ५ नियोगकारणतावचाः *
तदाऽस्तु लाघवात् तमः संयुक्तचाक्षुषं प्रत्येव विजातीयचक्षुर्मनोयोगस्य हेतुत्वम् । नच तमः कालीनचक्षुः संयोगादेवोऽऽलोक समवहिताघटादिचाक्षुषोदयदर्शनात् चक्षुर्मनोयोगस्या - प्येकस्यैव सम्भवात्कथमेवं ? इति वाच्यम्, मनसः त्वरितगतित्वे भाऽऽलोकसमवधानदशायां * जयलता GYO
| संयोगकार्यतावच्छेदकं विषयसमवायिदेशावच्छिन्नालोकविशिष्टविषयविषयकलौकिकचाक्षुषत्वं वदुत विषयविशिष्टविषयसमवायिदेशावच्छिन्नालोकविषयकलौकिकचाक्षुषत्वं ? इत्यत्र विनिगमनाभावः । ततश्च नोपदर्शितोच्छ्रङ्गखलमतं श्रद्धेयमिति विभाव्यते, तदाऽस्तु लाघवात् = कार्यतावच्छेदकधर्म लाघवात् तमः संयुक्तचाक्षुषं प्रत्येव विजातीयचक्षुर्मनोयोगस्य हेतुत्वमिति । प्रेचकादीनां विजातीयचक्षुः प्रतियोगिकमन: संयोगेनैव रात्री तमः संयुक्तघटादिचाक्षुषमस्मदादीनाञ्च तद्विरहेण न तदानीं तमः - संयुक्तघटादिगोचरचाक्षुषम् । इत्थञ्च तमः संयुक्तचाक्षुषत्वस्यैव विजातीयचक्षुः प्रतियोगिक मनः संयोगकार्यतावच्छेदकत्वं घटामश्वतीति कार्यतावच्छेदकघटकसंयोगाश्रयत्वेन तमसो द्रव्यत्वं सेत्स्यतीति भावः ।
ननु तमः संयोगविशिष्टस्यैव द्रव्यस्य पश्चादालोकसंयोगदशायां चाक्षुषमुपजायते । तच कथं घटते ? पूर्वोत्तरकालीनस्यैकपुरुषीयचक्षुःप्रतियोगिकविजातीयमन:संयोगस्याभिन्नत्वात् । अतो न तमः संयुक्तद्रव्यचाक्षुषं प्रति विजातीयचक्षुर्मनोयो| गस्य कारणत्वं घटामञ्चतीत्याशङ्कामपनोदयितुमुपदर्शयति न चेति । वाच्यमित्यनेनाऽस्याऽन्वयः । तमः कालीनचक्षुः संयोगात् विषयदेशावच्छिन्नतमःसंयोगाश्रयघटादिगोचरचक्षुः संयोगात् एव आलोकसमवहितात् आलोकसंयोगाऽवच्छेदकावच्छि न्नात् घटादिंचाक्षुषोदयदर्शनात् चक्षुर्मनोयोगस्य = चक्षुः प्रतियोगिकविजातीयमन:संयोगस्य, अपि एकस्यैव | सम्भवात् कथं एवं = विजातीयचक्षुर्मनोयोगस्य तमः संयुक्तद्रव्यचाक्षुषजनकत्वं ! आलोकसमवधानाः समवधानकालीनविषयरुचक्षुरादेर्भेदाभावेन चक्षुः प्रतियोगिकविजातीयमन:संयोगस्याऽयभिन्नत्वादालोकरग्भवधानदशायामिवाऽलोकाः समवधानदशायामपि घटादिचाक्षुषमस्मदादीनां स्यात् न स्याद्वाऽलोकसमवधानकालेऽपि तदिति शङ्काशयः ।
अभिन्नस्यैव,
तदूव्यपोहे प्रकरणकृद्धेतुमावेदयति- मनसः त्वरितगतित्वेनेति । मनसः चञ्चलत्वेनेति । आलोकसमवधानदशायां
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का निवेश अधिक है । दूसरी बात यह है कि विषयदेश भिन्न भिन्न होते हैं, जैसे घट का देश है कपाल, पट का देश है तन्तु । घटादि विषय का देश = समवायी अननुगत होने से उससे घटित कार्यतावच्छेदक धर्म भी अननुगत बनता है । कार्यतावच्छेदक धर्म अननुगत होने से विजातीय नयनमनमंयोग को आलोककालीन चाक्षुष साक्षात्कार का कारण नहीं माना जा सकता । तीसरा दोष यह है कि विजातीय नयनमनसंयोग के कार्यतावच्छेदकधर्मरूप से विषयदेशावच्छिन्नाऽऽलोकविशिष्टविषयविषयकचाक्षुषत्व का स्वीकार करना या विषयविशिष्टविषयदेशावच्छिन्नाऽऽ लोकविपयकचाक्षुपत्व का ? इस विषय में कोई विनिगमक नहीं है, क्योंकि घटसंयुक्तनयनप्रतियोगिक विजातीय मनोयोग के कार्यरूप में कपालावच्छिन्नाऽऽलोकविशिष्टघटचाक्षुष की भाँति घटविशिष्ट कपालावच्छिन्नालोकविषयक वाक्षुप का भी स्वीकार किया जा सकता है । इन तीन दोष की वजह चक्षुप्रतियोगिक विजातीय मनसंयोग को आलोककालीनद्रव्यविपयक चाप का कारण नहीं माना जा सकता" ←
ॐ अन्धकारसंयुक्तद्रव्यविषयक चाक्षुष भी विभातीयसंयोग का कार्य है स्याद्धादी +
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तदा उति । तब उचित यही है कि चक्षुप्रतियोगिक विजातीयमनसंयोग को आलोककालीनद्रव्यविषयक विषय देशावच्छिन्नालोकविशिष्टविषयविपयक चाप का कारण न मान कर अन्धकारसंयुक्तद्रव्यविषयक चाक्षुष का ही कारण माना जाय, क्योंकि यहाँ कार्यतावच्छेदक धर्म का शरीर लघु होता है । उल्लू, बिल्ली आदि को अन्धकारस्थित द्रव्य का चाक्षुप होने का कारण विजातीय नयनमनसंयोग ही है। यहाँ यह शंका हो कि “एक ही घट जब अन्धकारकालीन अन्धकारसंयुक्त होता है तब हमें उसका चाक्षुप नहीं होता है और जब उसी घट के पास दीपक लाया जाता है तब हमें उसी घट का चाप होता है । यहाँ अन्धकार और प्रकाश के काल में घट, पुरुष, नयन, नयनसंयोग में कोई भेद नहीं होने से पूर्वोत्तरकालीन नयनमनसंयोगविशेष भी अभिन्न = एक ही होता है, यह तर्कसिद्ध होता है । आलोक यदि चाक्षुष का कारण ही नहीं है और विजातीय नयनमनसंयोग पूर्वोत्तरकाल में एक ही है तब पूर्वकाल अबच्छेदेन (= अन्धकार काल में ) घट का चाक्षुष क्यों नहीं होता है ? और पश्चात् आलोककाल में उसी घट का चाक्षुष क्यों होता है ? या तो पूर्व काल में भी घट का चाक्षुष होना चाहिए या तो पश्चात् भी घट का चाक्षुप नहीं होना चाहिए, क्योंकि नयनमनसंयोगविशेष तो एक ही हे" तो यह ठीक नहीं है। इसका कारण यह है कि मन चंचल है, अस्थिर है, शीघ्र गति वाला है । इसी वजह
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