________________
* चन्द्रिकायां पेचकादः चाक्षुषाभ्युपगमः* | मेवाऽभ्युपेयम् । न च दिवाऽपि तद्ग्रहाऽऽपत्तिः, फलबलात् सौरालोकस्य तत्प्रतिबन्धकत्वकल्पनादित्याहू: ।
ततचा - 'तमः पश्यामी'तिप्रतीतेर्निरालम्बमत्वापत्तेः । अथ 'पश्यामीति विषयता न्यायनये चक्षुःसन्निकर्ष-दोषविशेषयोरिव तामसेन्द्रिय समि
* जयलता * | व्यतिरेकव्यभिचारादित्याशङ्कायां तयाहुः - चन्द्रिकायामिति । पेचकादेस्तु चाक्षुपमेवाऽभ्युपेयमिति । एक्कारेण तामससाक्षात्कारव्यवच्छेदः कृतः । तदानीं, पेचकादे: तामसेन्द्रियजन्यसाक्षात्काराऽनभ्युपगमादेव न व्यतिरेकव्यभिचारावकाश इति भावः । 'तर्हि राकायामिव दिवाऽपि ऐचकादेः पटादिचाक्षुशपत्तिः स्यादिति शङकामपनोदयन्ति - न चेति । तदपाकरणे हेतमावेदयन्ति - फलबलादिति । दिवा पेचकादेतचाक्षषानदयाऽन्यधानपपत्तेः सौरालोकस्य तप्रतिबन्धकत्वकल्पनादिति । पेचकादिवाक्षुषप्रतिबन्धकत्वाभ्युपगमादिति । चन्द्रालोके सत्यपि पेचकादीनां चाक्षुषोदयान्न तस्य तच्चाक्षुषं प्रति प्रतिबन्धकत्वं परं सीराब्लोके सति तेषां तदनुदयात सौरालोकस्य तमोक्षष प्रति प्रतिबन्धकत्वमुन्नीयते । इत्यश्च तमसि जायमानं साक्षास्कार प्रति तामसेन्द्रियस्य तम:संयोगावच्छेदकावच्छिन्नसंयोगसम्बन्धेन कारणत्वं फलितमिति तौतातिकैकदेशीयाभिप्रायः ।
ननु 'पश्यामी विज्ञाननिरूपितविषयता चक्षुःसन्निकर्षण नियम्या यथा 'शुक्तिं पक्ष्यामी' त्यादौ प्रमायां, यद्वा दोषविशेषेण नियम्या यथा 'रजतं पश्यामी'त्यादौ भ्रमे । यदि च तमसः तामसेन्द्रियजन्यसाक्षात्कारविषयत्वमुपेयेत तर्हि तस्य चाक्षुषत्वं न स्यात् । न स्याच 'तमः पश्यामी ति प्रतीतेः प्रमात्वम्, 'रजतं पझ्यामी त्यादिज्ञानवत् निरालम्बनस्वादित्याशयेन प्रकरणकार: तीतानिककदेशिमतं दूषयति - तत्तुच्छमिति । 'तमः पश्यामी'ति प्रतीतेः निरालम्बनत्वापत्तेः = निर्विषयत्वप्रसङ्गात् । न चेष्टापनिरिति वक्तव्यम्, सार्वजनीनत्वेन तरया भ्रमत्वा योगात, बाधका भावाच । अत एवातिरिक्ततामसेन्द्रियकल्पनाऽपि प्रत्याख्याता, गौरवात, मानाभावाचेति स्यादाद्याशयः ।
अतिरिक्ततामसेन्द्रियवादिनः साम्प्रतं स्वपक्षं साधयन्ति - अधेति । 'पश्यामीति विषयता = 'पझ्यामी तिप्रतीतिनिरूपितविषयता, न्यायनये चक्षुःसनिकर्ष-दोपविशेषयोरिव तामसेन्द्रियसनिकर्षस्यापि नियम्या, तन्मत इति शेष: । 'शक्ति
कारण मानने पर उल्लू को पूनम की रात में चारों ओर चाँदनी होने पर घटादि का तामसीय साक्षात्कार कैसे हो सकेगा? मगर उल्लू को चाँदनी में घटादि का साक्षात्कार तो होता ही है । इसलिए व्यतिरेक व्यभिचार होगा" - तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि उल्लू आदि को चाँदनी में घटादि का जो साक्षात्कार होता है, वह तामसीय नहीं होता है किन्तु चाक्षुप होता है । यदि तामसीय प्रत्यक्ष माना जाय तो कारण के बिना कार्य उत्पन्न होने से व्यतिरेक व्यभिचार का अवकाश होता। मगर तब हम तामसीय प्रत्यक्ष नहीं मानते हैं किन्तु चाक्षुप प्रत्यक्ष मानने हैं। इसलिए व्यतिरेक व्यभिचार का अवकाश नहीं है। यहाँ यह शंका हो कि -> "उल्ल आदि को रात में चंद्रालोक (= चाँदनी) होने पर भी यदि घटादि का चाक्षुष साक्षात्कार होता है, तब तो दिन में सौरालोक (= सूर्यप्रकाश) होने पर भी घटादि का चाक्षुप होने लगेगा"- तो बह ठीक नहीं है। क्योंकि दिन में उल्लू आदि को घटादि का चाक्षुप साक्षात्कार नहीं होता है, यह तो सर्वजनविदित होने से उसके रल से सूर्यप्रकाश को उल्लू आदि को होनेवाले चाक्षुष प्रत्यक्ष का प्रतिबन्धक मानते हैं । यदि सूर्यप्रकाश उल्लूचाक्षुप का प्रतिबन्धक नहीं होता, तब तो चन्द्रालोक की भाँति सूर्यालोक होने पर भी घटादि का उल्लू आदि को चाक्षुष होता । मगर होता नहीं है। इसलिए सूर्यप्रकाश को उसका प्रतिबन्धक मानना ही उचित है । मगर अँधेरी रात में उल्लू आदि को जो घटादि का प्रत्यक्ष होता है, वह तो तामसीय (= तामसेन्द्रियजन्य) ही होता है, न कि चाक्षुप । इस तरह हमें भी अन्धकार द्रव्य का प्रत्यक्ष होता है, वह तामसीय ही होता है, न कि चाक्षुप । अतः नामस इन्द्रिय की कल्पना तर्कसंगत ही है।
A मनोन्द्रियएल्पना अप्रामाणिक - स्यादादी उत्तरपक्ष :- तत्तुच्छम. इनि । प्रकरणकार तौतातिकैकदेशीयमत का खण्डन करते हैं कि - अन्धकार का तामसेन्द्रियजन्य साक्षात्कार मानना असंगत है, क्योंकि तब 'तमः पश्यामि' यानी 'अन्धकार को मैं देखता हूँ' यह प्रतीति निरालम्बन होने की आपत्ति मुँह फाड़े खड़ी रहती है। आशय यह है कि 'पश्यामि' यह प्रतीति चक्षु इन्द्रिय के कार्यत्व की झापक है, न कि तामस इन्द्रिय के कार्यत्व की । मगर आप मीमांसकदेशीय महाशय उक्त प्रतीति को चाक्षुष नहीं मानते हैं, जो कि मुमकिन है और तामसजन्य मानते हैं, जो कि प्रतीति के आधार पर नामुमकिन है । फलतः उक्त प्रतीति निरालम्बन हो जायेगी यानी भ्रमात्मक हो जायेगी । यहाँ तामसेन्द्रियवादी की ओर से यह कहा जाय कि -> "न्यायमतानुसार 'पश्यामि'