________________
३५३ मध्यमस्याबादरहस्ये खण्डः २ - का. मीमांसाश्लोकवार्तिकमवादः * || स्यादिति शेत् ? तर्हि तमःसंयोगावच्छेदेकावच्छिन्नतामसेन्द्रियसंयोगस्यैव तमःसंयुक्तद्रव्यपाहकत्वमस्तु । विनिगमनाविरहस्तु परस्याऽपि तुल्य: । चन्द्रिकायां पेवकादेस्तु चाक्षुष
=-... --* चलता *-. ... पति सति तम:संयुक्तभित्त्यादरालोकसंयुक्तभागस्य तामसेन्द्रियेण प्रतीतिः स्यात्, भिल्यादे: तम:संयुक्तत्वात् । न चैवं तद्ग्रहो भवतीति दुर्निवारोइन्वयन्यभिचार इत्येकं सीव्यतो परप्रच्युतिरिति शड़काशयः ।
तामसेन्द्रियवादिनोऽत्र प्रतिविदधते - तहीति । तम:संयुक्तभित्त्यादेरालीकसंयुक्तभागस्य तामसेन्द्रियेणाऽग्रहे सतीत्यर्थः । तम:संयोगावच्छेदकावच्छिन्नतामसेन्द्रियसंयोगस्यैवेति । तम:संयोगस्य यो विषयदेशोऽवच्छेदकः तदवच्छिन्त्रस्य तामसेन्द्रिय. संयोगस्यति, एवकारेण तम: संयोगसहकृततामसस्य व्यवच्छेदः कृतः । तमःसंयुक्तद्रव्यग्राहकत्वं = तम: संयुक्तद्रव्यविषयकप्रत्यक्षजनकत्वं अस्तु । न च तमःसंयोगावच्छेदकावच्छिन्नतामसन्द्रियसंयोगस्य हेतुत्वं यदुन तामससंगोगावच्छेदकावच्छिन्ननम:संयोगस्येत्यत्र विनिगमकाऽभावान्नैतादशकार्यकारणभावसम्भव: इति वाच्यम. तब नयायिकस्यापि 'चक्षःसंयोगावच्छेद कावच्छिन्नालोकसंयोगस्य आलोकसंयुक्तद्रव्यचाक्षुषजनकत्वं यदुत्ताऽऽलोकसंयोगावच्छेदकावच्छिनचक्षुःसंयोगस्य ?' इत्यत्र विनिगमनायिरहस्य तुल्यत्वादित्याशयेन गदन्ति - विनिगमनाविरहस्त्विति । कारणविनिगमकाभावस्त्वित्यर्थः, परस्यापि = नैयायिकस्थापि, तुल्यः = समः । अत एब तेन नैतादृशः पर्यनुयोगः कर्तुं युज्यते । तदुक्तं श्लोकवार्तिके यच्चोभयोः समो दोष:, परिहारस्तयो: समः । नैक, पर्यनुयोज्य: स्यात्तादृगर्थविचारणे ।। ( ) इति । एतेनाऽऽलोकसंयोगावच्छेदकावच्छिन्नसंयोगसम्बन्धेन चक्षुष एबालोकसंयुक्तचाक्षुषकारणत्वं लाघवादिति नैयायिकवचनं प्रत्याख्यातम्, 'तम:संयोगावच्छेदकावच्छिन्नसंयोगसम्बन्धेन तामसस्यैव तम:संयुक्तद्रव्यग्राहकत्वं लाघबादित्यस्याऽपि सुवचत्वात् । न चैवमपि तमःसंयोगावच्छेदकावच्छिन्न संयोगसम्बन्धेन तामसस्य हेतुत्वं यद्रा तामससंयोगावच्छेदकावच्छिन्नसंयोगसम्बन्धेन हेतुत्वम् : इत्यत्र विनिगमनाविरह इति वक्तव्यम्, आलोकसंयोगावच्छेदकावच्छिन्नसंयोगसम्बन्धेन चक्षुषा हेतुत्वमाहीस्वित् चक्षुःसीमावदकावच्छिनासयोगसम्बन्धेना-लोकस्य ! इत्यत्र नयायिकरपाणि विनिगमकस्याऽन्वेषणीयत्वादिति तेषामभिप्रायः ।।
नन तम:संयोगावच्छेदकावच्छिन्त्रतामससंयोगस्य न तम:संयुक्तद्रव्यविषयकतामसग्रहजनकत्वं सम्भवति, राकायां सर्वतः चन्द्रिकाप्रसारे सति घटाद: तमोऽसंयुक्तत्वेन तम:संयोगावच्छेदकावच्छिन्नतामससंयं बजपि पेचकादे: तत्तामससाक्षात्कारोदयेन
माना जा सकता, क्योंकि भित्ति आदि के पत्रात भाग में अन्धकार संयोग होने पर आलोकसंयुक्त पुरोवर्ती भाग का तामस । इन्द्रिय से साक्षात्कार होने की आपत्ति मुंह फाड़े खड़ी रहती है । मगर वस्तुस्थिति यह है कि तब अन्धकारसंयुक्त भित्ति
के आलोकसंयुक्त भाग का प्रत्यक्ष चाक्षुष (= चक्षुजन्य) ही होता है, न कि तामसेन्द्रियजन्य । इसलिए अन्धकारसयोग तामस ' का सहकारी कारण नहीं माना जा सकता है" - तो यह नामुनासिब है, क्योंकि इसके परिहारर्थ यह कहा जा सकता
है कि तामसीय साक्षात्कार के प्रति अन्धकारसंयोग और तामसेन्द्रियसंयोग को स्वतंत्रकारण नहीं है किन्तु अन्धकारसंयोग ! के अवच्छेदक विषयदेश से अवच्छिन्न = नियन्त्रित तामसन्द्रियसंयोग ही कारण है। भित्ति के केवल पत्रात् भाग में अन्धकारसंयोग होने पर तामसेन्द्रियसंयोग अन्धकारसंयोगाऽवच्छेदक पश्चात् भाग से अवच्छिन्न नहीं होता है । विशेप्य होने पर भी अन्धकारसंयोगावच्छेदकावच्छिन्नत्वात्मक विशेषण का विरह होने से विशिष्टकारण का अभाव सिद्ध होता है। अतएव भित्ति के पुरोवर्ती आलोकसंयुक्त भाग का होने वाला साक्षात्कार तामसीय (= तामसेन्द्रियजन्य) नहीं होगा, किन्नु चाक्षुप (= चक्षुजन्य) ही होगा। यहाँ यह नयायिककथन हो कि -> "तामसीय प्रत्यक्ष के प्रति अन्धकारसंयोगावच्छेदकावच्छिन्न तामसेन्द्रियसंयोग को कारण माना जाय या तामसेन्द्रियसंयोगावच्छेदकावच्छिनान्धकारसंयोग को कारण माना जाय ! इस समस्या का समाधान कुमारिलभट्टानुयायी के एकदेशीय विद्वानों की ओर से नहीं किया जा सकता है" -- तो यह नामुनासिब है, क्योंकि आप नैयायिक महाशय को भी "आलोकसंयुक्तद्रव्यविपयक चाक्षुप प्रत्यक्ष का कारण आलोकसंयोगावच्छेदकावच्छिन्न चक्षुसंयोग माना जाय या चक्षुसंयोगावच्छेदकावच्छिन्नालोकसंयोग ' इस प्रश्न का प्रत्युत्तर देना ही पड़ेगा । यह दिनिगमनाविरह दोष नैयायिकमत में भी अप्रतिकार्य होने से उपर्युक्त दोष का उद्भावन उसकी ओर से नहीं किया जा सकता । उक्त समस्या के बारे में तो नैयायिक और मीमांसक को 'तेरी भी चुप और मेरी भी चुप' यही उचित है ।
चाँदनी में उल्लूवाक्षुष का स्वीकार ' चंद्रि. इति । यहाँ यह शंका हो कि -> 'अन्धकारसंयोगावच्छेदकावच्छिन्न तामसेन्द्रियसंयोग को तामसीय प्रत्यक्ष का