Book Title: Syadvadarahasya Part 2
Author(s): Yashovijay Upadhyay, 
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 124
________________ ३२१ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्ड: २ का. ५ * उतस्पर्शाभावस्य प्रतिबन्धकता तन, लाघवाद, वायोः स्पार्शनत्वस्य साम्प्रदायिकत्वाच्च समवायसम्बन्धावच्छिन्नोद्भूतस्पर्शाभावस्यैव स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धेन द्रव्यान्य- द्रव्यसत्त्वाचत्वावच्छिन्नं प्रति प्रतिबन्धकत्वं ॐ जयलता - प्रकरणकारः केचित्तुमतं प्रत्याचष्टे तत्रेति । लाघवादिति । लौकिकविषयतावच्छिन्नत्वाचाभावस्य प्रतिबन्धकत्वे उप|| नीतभानप्रयोज्यविषयत्वभिन्नविषयत्वसम्बन्धावच्छिन्न- त्वगिन्द्रियजन्यसाक्षात्कारत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकात्यन्ताभावत्वस्य || प्रतिबन्धकतावच्छेदकत्वं स्यात् । तदपेक्षया समवायसम्बन्धावच्छिन्नोद्भूतस्पर्शत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकात्यन्ताभावत्वस्य तत्त्वं लाघवं स्यात् । अतः लौकिकविषयतावच्छिन्नत्वाचाभावापेक्षया समवायावच्छिन्नोद्भूतस्वभावस्य प्रतिबन्धकत्वे लाघवादिति भावः । || द्रव्यान्यद् किल्ल, द्रव्याऽन्यद्रव्यवृत्तिगोचरस्पार्शनं प्रति लौकिकविषयत्वावच्छिन्नत्वाचा भावस्य स्वाश्रयसमवेतत्वेन सम्बन्धन प्रतिबन्धकत्वे वायुपस्पर्शनं न स्यात्, नव्यनैयायिकमते वायो: स्पार्शनत्वेऽपि जरनैयायिकसम्प्रदायें वायुस्पार्शनत्वस्यासिद्धत्वेन वायुस्पर्शे स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धेन प्रतिबन्धकस्य सत्त्वादित्याशयेन प्रकरणकारः हेत्वन्तरं प्राह- बायोरिति । स्पानित्वस्य || ” स्पर्शनिन्द्रियजन्यसाक्षात्कारप्रयोज्यविषयत्वस्य साम्प्रदायिकत्वाचेति । नन्यनैयायिकसम्प्रदायेऽस्मत्सम्प्रदाये च वायोः स्पार्शनत्वे सिद्धेऽपि प्राचीनैयायिकसम्प्रदाये तदसिद्धत्वेन वायुस्पार्शनत्वस्य नानासम्प्रदायविप्रतिपत्तिकवलितत्त्वाचेत्यर्थः । ततो लौकिकविषयत्वाच्छिन्नप्रतियोगिताकत्वाचा भावस्य तादृशप्रतिबन्धकत्वस्वीकारे तु प्राचीननैयायिकमतानुरोधेन वायुस्पर्शस्पार्शनं नैवोपपद्येत । विप्रतिपत्तिं विनैव वायुस्पर्शस्पार्शनोपपत्तये अपि लौकिकविषयत्वावच्छिन्नस्पार्शनाभावस्य प्रतिबन्धकत्वं न युक्तमित्याहसमवायसम्बन्धावच्छ्रित्रोद्भूतस्पर्शाभावस्यैव समवायसम्बन्धावच्छिन्नोद्भूतस्पर्शत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावस्यैव । एवकारेण लौकिकविषयतासम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकस्पार्शनाभावस्य व्यवच्छेदः कृतः । द्रव्यान्य- द्रव्यसत्त्वाचत्वावच्छिन्नं = वृत्ति तद्विषयकत्वाचत्वलक्षणप्रतिबध्यतावच्छेदकावच्छिन्नं प्रति प्रतिबन्धकत्वं कल्पयित्वेति । इत्थच सेवायुक्त स्पर्श में स्व (स्पार्शनाभाव) आश्रय (वायु) समवेतत्व सम्बन्ध से लौकिकविषयतासम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताक स्पार्शनाभाव रहता है । प्रतिबन्धक होने से वायुस्पर्शविषयक स्पार्शन प्रत्यक्ष प्रतिबध्य हो जायेगा, अनुत्पन्न ही रहेगा" - तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि वायु का स्पार्शन प्रत्यक्ष नहीं होता है यह बात अप्रामाणिक है । 'शीतं वायुं स्पृशामि इत्यादि अनुभव बर्फीले देश या काल में सुप्रसिद्ध ही है। इसलिए वायुस्पर्श में स्वाश्रयसमवेतत्व सम्बन्ध से लौकिकविषयतासम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताक स्पार्शनाभाव नहीं रहता है। वायुस्पर्श में प्रतिबन्धकाभावस्वरूप कारण होने से वायुस्पर्शविषयक स्पार्शन की उत्पत्ति होने में कोई अनुपपत्ति नहीं है । एवं त्रुटिस्पर्श के स्पार्शन की आपत्ति भी नहीं दी जा सकती, क्योंकि त्रुटि (= त्रसरेणु) का स्पार्शन प्रत्यक्ष न होने से वह स्पार्शनाऽभाव का आश्रय बन जाने की वजह स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्ध से लौकिकस्पार्शनसाक्षात्काराभावात्मक प्रतिबन्धक त्रुटिस्पर्श में रहता है । इसलिए नील त्रुटि में उद्भूत स्पर्श होने पर भी त्रुटिस्पर्शस्पार्शन का आपादन नहीं किया जा सकता। उद्भूत नील रूप तो उद्भूत स्पर्श का व्याप्य होने से अन्धकार को उद्धृतनीलरूपवान् मानने में उद्भूतस्पर्शाभाव बाधक हो सकता है । अतएव 'नीलं तमः ' यह प्रतीति भी भ्रम है। इसलिए रूपवत्त्व हेतु से अन्धकार में द्रव्यत्व की सिद्धि नामुमकिन है । स्वरूपासिद्ध हेतु स्वाभीष्ट साध्य की सिद्धि करने में सदा असमर्थ ही रहता है । उद्भूतम्परा भाव ही गुणादिरपार्थन का प्रतिबन्धक स्यादादी यद् द्रव्ये सत् - = = तन्त्र इति । उपर्युक्त अन्य नैयायिकमत के प्रतिकारार्थ व्याख्याकार श्रीमद्जी महोपाध्याय महाराजा कहते हैं कि यह मत अनुपादेय है। इसका कारण यह है कि लीकिकविपयतावच्चित्रत्वाचाभाव का मतलब है उपनीतज्ञानाऽप्रयोज्यविषयतावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्वगिन्द्रियजन्यसाक्षात्काराभाव | इसकी अपेक्षा समवायावच्छिन्नोद्धृतस्पर्शाऽभाव लघु है। अतः समवायावच्छिन्नप्रतियोगिताक उद्भूतस्पर्शाभाव को ही द्रव्येतरव्यवृत्तिविषयकत्वाचसाक्षात्कार का प्रतिबन्धक मानना उचित है। प्रतिबन्धकतावच्छेदकसम्बन्ध है स्वाश्रयसमवेतत्व | स्वपद से समवायावच्छिन्न उद्भूतस्पर्शाभाव का ग्रहण अभिप्रेत है। उसका आश्रय प्रभा आदि द्रव्य होते हैं, क्योंकि समवाय सम्बन्ध से उद्भूतस्पर्श प्रभा आदि में नहीं रहने से समवायसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताक उद्भूतस्पर्शाभाव का वह आश्रय होता है । उसमें जो गुणादि समवेत है उसमें स्वाश्रयसमवेतत्व सम्बन्ध से दर्शित उद्भूतस्पर्शाभाव रहता है, जो द्रव्येतर द्रव्यवृत्तिगुणादिविषयक स्पार्शन प्रत्यक्ष का प्रतिबन्धक है। अतएव प्रभा आदि द्रव्य के स्पर्श आदि का स्पार्शन साक्षात्कार नहीं हो सकता है। दूसरी बात यह है कि उक्त लघु प्रतिबध्य प्रतिबन्धकभाव का अंगीकार करने पर वायुस्पर्श का स्पार्शन साक्षात्कार भी उपपन्न हो सकता है, क्योंकि वायु में उद्भूत स्पर्श रहता ही है। वायुविषयक स्पार्शन

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