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* शशधरमतसमालोचना* || दिनयनगोलकसंसृष्टाऽऽलोकस्य पेचकादिमात्रचाक्षुषं प्रति नानाकारणताकल्पने च महद- । गौरवादिति दिक् ।
उसहस्वास्तु → स्यालोककालीनचाक्षुषजनकविजातीयचक्षुर्मनोयोगाऽभावादेव तमसि न घटादिचाक्षुषोदय इति न तत्राऽऽलोकस्य कारणता ।
== =* जयलता *= = ==== न च तदालोकस्य पेचकादिचाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रति कारणत्वान्नान्येषां तदानीं चाक्षुषापादनमर्हति, अन्यचाक्षुषत्यावच्छिन्नं प्रति महदुन्द्तानभिभूतरूपयदालोकस्य कारणत्वादिति वाच्यम्, नानाकार्यकारणभावकल्पनाया गुरुत्वेनाप्रामाणिकत्वादित्याशयेनाऽऽहपेचकादिनयनगोलकसंसृष्टालोकस्य = आलोकविशेषस्य, पेचकादिमात्रचाक्षुषं प्रति = पेचकादिभिन्नचाक्षुषेतरत्वे सति पेचकादिचाक्षुषत्वावच्छिन्ने प्रति, कारणत्वं पेचकादिभिन्नचाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रति च महदुद्भूतानभिभूतरूपवदालोकस्य कारणत्वमित्येवं नानाकारणताकल्पने महगौरवादिति । किञ्च पेचकादिचाक्षुषं प्रति महदुद्भूतानभिभूतरूपवदालोकस्य प्रतिबन्धकत्वकल्पनाया आवश्यकत्वेन तदभावेनैव पेचकादिचाक्षुषोपपत्ती विजातीयालोककल्पनाया अनुत्थानपराहतत्वात्, सौरालोकेन विजातीयालोका:भिभवकल्पनायां त्वप्रामाणिकगौरवात् । एतेन पेचकादीनां बाह्यालोकनिरपेक्षं चक्षुहिकमित्यसिद्धमेव । तत्र तेजाउन्तरस्य विद्यामानत्वात् । अत एव ते दिया न पश्यन्ति, स; सौरालोकनामिनूतलात, तेषां तत्सहकृतचक्षुाहित्वनियमात्' (न्या. सि.दी. पृ.९१) इति न्यायसिद्धान्तदीपकृतः शशधरशर्मणो वचनं प्रत्युक्तम्, अनभिभूततेजोऽन्तरस्य पेचकाद्यन्यचाक्षुषं प्रति प्रतिबन्धकत्वकल्पने पेचकादिचाक्षुषं प्रति कारणत्वकल्पने चाऽदिपदार्थांननुगमेन तद्घटितप्रतिबन्ध्यतावच्छेदककार्यतावच्छेदकधर्माननुगमाचेत्यादिसूचना) दिगित्युक्तमिति विभावनीयं सुधीभिः ।
उच्छृङ्खलास्त्विति । अस्य चाऽऽहुरि त्यनेनाऽन्वयः । आलोककालीनचाक्षुषजनकविजातीयचक्षुर्मनोयोगाऽभावादेवेति । आलोकसमकालीनं यच्चानुषं तस्य जनको यो विजातीयः चक्षुःप्रतियोगिकमन:संयोगः तस्याऽभावादेवेत्यर्थः । स्पार्शनादिजनकस्य चक्षुःप्रतियोगिकमन:संयोगस्याऽपाकरणाय 'विजातीये' त्युक्तम् । तमसि न घटादिचाक्षुषोदयः इति न तत्र = आलोककालिकचाक्षुषे आलोकस्य कारणतेति । आलोककालीनचाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रति कारणत्वं विजातीयचक्षुःप्रतियोगिकमन:संयोगस्यैव न लालोकस्य । न च वैपरीत्यमंच किमिति न रोचयेरिति वाच्यम, आलोकस्य कारणत्वकल्पनेऽपि विजातीयचक्षुर्मन: संयोगस्याध्ययकल्पनीयत्वात्, आलोकस्य तत्संपादन एवोपक्षीणत्वेनाऽन्यधासिद्भत्वाच्च । एतेन दिवा जायमानं
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है, यह स्याद्वादी का कथन है। इसका कारण यह है कि गाट अन्धकार में आलोकविशेष से जैसे उल्लू, बिल्ली आदि को घटादिविषयक चाक्षुष साक्षात्कार होता है, ठीक उसी तरह उसी आलोक से हमें भी अन्धकार में बिना अंजनादिसंस्कार के घटादिविषयक चाक्षुप प्रत्यक्ष होना चाहिए - यह आपत्ति मुँह फाड़े खड़ी है। यहाँ यह तो नहीं कहा जा सकता है कि -> "उल्लू आदि के नयनगोलक से संयुक्त आलोकविशेष उल्लू आदि के चाक्षुप प्रत्यक्ष के प्रति ही कारण है, न कि मनुष्यवृत्ति चाक्षुष के प्रति । इसलिए उल्लू आदि के चाक्षुष के जनक आलोकविशेष से हमें अन्धकार में घटादि का चाक्षुप प्रत्यक्ष नहीं हो सकता"-। यह नैयायिककधन इसलिए अयुक्त है कि उलू आदि के चाक्षुष के प्रति विजातीय आलोक को कारण और महद्भतानभिभूतरूपवदालोक को प्रतिबन्धक मानना एवं नरवृत्ति चाक्षुष साक्षात्कार के प्रति महदद्भुतानभिभूतरूपबदालोक को कारण और अनभिभूत विजातीय आलोक को प्रतिबन्धक मानना इत्यादि कल्पना करने में अनेक कार्यकारणभाव के स्वीकार का महागौरव होता है, जो कि अप्रामाणिक होने से मान्य नहीं किया जा सकता। इसलिए पुन: उल्लचाक्षुपजनक आलोकविशेप से अन्धकार में हमें घटादिविषयक चाक्षुष साक्षात्कार होने की आपत्ति ज्यों कि त्यों बनी रहती है। अतएव चिजातीय आलोक में उल्लू आदि के चाक्षुष की कारणता मान्य नहीं हो सकती । अत: आलोक में चाक्षुषकारणता का व्यभिचार बज्रलेप बना रहता है।
* विजातीयचक्षुमनोयोग चाक्षुषजनक - उछृखलमत * जन्मृ. इति । यहाँ अन्य स्वतन्त्र विद्वानों का यह कथन है कि चाक्षुष साक्षात्कार के दो प्रकार होते हैं (१) आलोककालीन = आलोककाल में उत्पन्न होने वाला एवं (२) आलोकाऽकालीन = आलोककाल से भिन्न काल में होने वाला । आलोककालीन चाक्षुप का कारण विजातीय चक्षुमनःसंयोग है। जब अन्धकार होता है तब आलोककालीनचाक्षुषजनक विजातीय चक्षुमनसंयोग नहीं होता है। इसलिए अन्धकार में हमें घटादि का चाक्षुष साक्षात्कार नहीं होता है। अन्धकार में चाक्षुप की अनुत्पत्ति का