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*आलोकसंयोगकारणतापक्षे लाघवप्रकाशनम् * || स्वावच्छेदकाच्छिमसंयोगवच्चनःसंयुक्तमन:प्रतियोगिकविजातीयसंयोगसम्बन्धेनेव कारणता कलयते । चक्षःसंयोगस्य स्वावच्छेदकावच्छिन्नालोकसंयोगावच्छेदकावच्छिमस्ववच्चन:संयुक्तमन:प्रतियोगिकविजातीयसंयोगसम्बन्धेन तथात्वे तु स्फुटमेव गौरवम्, सम्बन्धौर
=-., =* जयलता है | स्येति । 'कारणते' त्यनेनाऽस्याऽन्वयः । आत्मनिष्ठप्रत्यासत्तिबादी स्वपक्षे कारणतावच्छेदकसम्बन्धमाह - स्वावच्छेदकावच्छिन्नसंयोगवच्चक्षुःसंयुक्तमनःप्रतियोगिकचिजातीयसंयोगसम्बन्धेनेवेति । स्वपदेन आलोकसंयोगस्य ग्रहणम् । तदवच्छेदको यो विषयांऽशः तवचिदन्नः संयोगः = चन:संयोगः, तदाश्रपीभूतेन चक्षुषा संयुक्तं मनः तत्प्रतियोगिक आत्मानुयागिकः यो | विजातीयसंयोगः तत्सम्बन्धेनैवेत्यर्थः । तेन सम्बन्धेन आलोकसंयोग आत्मनि वर्तते तत्रैव च समवग्यसनन्धन दर्शितचामपं वर्तते । अन्धकारप्रत्यक्षे तमोव्याप्यालोकसंयोगाभावचाक्षुषे च नालोकसंयोगापेक्षति आलोकसंयोगकार्यघटकभेदकोटी तदाबविषयनिवेशः । न च कारणतावच्छेदकसम्बन्धी विजातीयत्वेन किमर्थं विशेषित इति वाच्यम, रासनादिसाक्षात्कार-जन ममन:संयोगव्यवच्छेदकृते तस्याऽवदयकत्वात् । यद्यपि प्रतिक्षणमात्ममन:संयोगो भिद्यते, मनसः चंचललान् तथापि चयूष - जनकतावच्छेदकजातिविशेषसत्त्वान्न व्यतिरेकव्यभिचार: । एवञ्चात्मनिष्ठप्रत्यासत्त्या आलोकसंयोगस्य कनिधकारणत्वेन लाघवमेव मत्पक्षे विनिगमकमिति भावः ।
___ नन भवतु ममाऽपि चक्षुःसंयोगस्याऽऽत्मनिष्ठप्रत्यासत्त्या कारणत्वमिति चक्षुःसंयोगकारणनावाद्य-शां मनसिकृत्य आलोकसंयोगकारणतावाद्याह - चक्षुःसंयोगस्येति । स्वावच्छेदकावच्छिन्नालोकसंयोगावच्छेदकावच्छिन्नस्ववच्चक्षुःसंयुक्नमनःप्रतियोगिकविजातीयसंयोगसम्बन्धेनेति । स्वपदेनाऽत्र चक्षुःसंयोगस्य ग्रहणम् । चक्षुःसंयोगस्या बच्छेदको यो वियवृत्तिः भागः तदवच्छिन्नो य आलोकसंयोगः तदवच्छेदकः पुनः स एव विषयांश: तदवच्छिन्नोऽपि पुनः स एव चक्षुःसंयोग . तद्वत् यचक्षः तत्संयक्तं यन्मनः तत्प्रतियोगिक आत्मानुयोगिको यो विजातीयः = रासनादिसाक्षात्कारजनकतावनछेदकज शन्यः संयोगः स आत्मनि वर्तते । अतः तेन सम्बन्धेन चक्षुःसंयोगोऽप्यात्मन्यैव वर्तते । एवञ्चाक्षात्मनिष्ठप्रत्यासत्त्या चक्षुः२. गस्य तधात्वे = तमस्तद्व्याप्यभिन्ननिरूपितलौकिकविषयितावच्चाक्षुषकारणत्ये, तु स्फुटमेव = स्पष्टमेव गौरवं = कारणतावक
| न कह कर 'तादृशविजातीयसयोग' ऐसा कहा है । यहाँ यह भी ध्यान में रहे कि आलोकसंयोग चाक्षुषमात्र का जनक नहीं होता है, क्योंकि अन्धकार = प्रकाशाभाव एवं उसके व्याप्य प्रकाशसंयोगाभाव का चाक्षुप प्रत्यक्ष आलोकसंयोग के बिना ही होता है । इसलिए आलोकसंयोग का कार्यताअवच्छेदक धर्म भी चाक्षुपत्व न हो कर अन्धकार-तद्व्याप्यभिन्नपदार्थनिरूपितलीकिकविपपिताश्रयचाक्षुपत्व ही होगा। यहाँ अनेक कार्य-कारणभाव की कल्पना अनावश्यक है, क्योंकि चाहे घटचाक्षुष हो, चाहे घटनीलरूपविषयक चाक्षुप हो, चाहे घटनीलरूपत्वविषयक चाक्षुष हो, राहे पटाभावविषयक चाक्षुप हो, चाहे घटनीलरूपवृत्तिपीतरूपाभावविषयक चाक्षुष हो, चाहे नीलरूपवजातिवृत्तिरूपाभावविषयक चाक्षुप हो, वे सभी समवाय सम्बन्ध से आत्मा में ही रहते हैं। अतः आत्मनिष्ठप्रत्यासत्ति (=सम्बन्ध) से आलोकसंयोग में कारणता का स्वीकार करने में अनेककार्य-कारणभावकल्पनाऽनावश्यकताप्रयुक्त लायब है। यह लायब ही विनिगमक होने से 'चाक्षुध का कारण चक्षुसंयोग है या आलोकसंयोग ?' इत्याकारक विनिगमनाविरह का अवकाश नहीं है । इसलिए आलोकसंयोग को ही उसका कारण मानना उचित है - यह फलित होता है।
* च संयोग को आत्मनिष्ठप्रत्यासति से. कारण मानने में गौरव चक्षुःसं. इति । यदि यहाँ चक्षुसंयोगकारणताचादी की ओर से यहा कहा जाय कि -> "यदि विषयनिष्ठप्रत्यासत्ति से चक्षुसंयोग को चाक्षुप साक्षात्कार का कारण मानने में दोष है तब उसे आत्मनिष्ठप्रत्यासत्ति से कारण मानो। जैसे आलोकसंयोग को आप आत्मनिष्ठप्रत्यासत्ति से कारण मानते हैं, ठीक उसी तरह चक्षुसंयोम को भी आत्मनिष्टप्रत्यासत्ति से चाक्षुष साक्षात्कार का कारण माना जा सकता है। अत: चिनिगमनाविरह दोष पुनः प्रसक्त होगा" - तो यह नामुनासिब है । इसका कारण यह है कि आत्मनिष्ठप्रत्यासत्ति से चक्षुसंयोग को चाक्षुष साक्षात्कार का कारण मानने का मतलब यह होता है कि चक्षुसंयोग आत्मा में रह कर के आत्मा में समवाय सम्बन्ध से चाक्षुप को उत्पन्न करता है । मगर चक्षुसंयोग केवल स्वाश्रयसंयुक्तमनःप्रतियोगिकविजातीयसंयोग सम्बन्ध से आत्मा में रह कर चाक्षुष को उत्पन्न नहीं कर सकता है, गाढ अन्धकार में अवस्थित घटादि द्रव्य के साथ चक्षुसंयोग होने पर भी घटादि का चाक्षुष होने लगेगा, क्योंकि तब भी चक्षुसंयोग स्व(= चक्षुसंयोग)आश्रय (चक्षु)संयुक्तमनःप्रतियोगिक विजातीयसंयोग वाले आत्मा में तादृश सम्बन्ध से रहता है। इसका निवारण करने के लिए यही कहना होगा कि चक्षुसंयोग स्वाबच्छेदकावच्छिनालोकसंयोगावच्छेदकावच्छिन्नस्ववचक्षुःसंयुक्त