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३३५ मध्यमस्यावादरहस्य खण्डः २ - का. * षड्विधकार्यकारणभाषद्योतनम् * | लाघवात् समवायेन तमस्तव्याप्यभिनीयलौकिकवियितावच्चाक्षुषं प्रत्यालोकसंयोगस्य |
---... -----...-.-....-----* जयलता *- =-=-=-- :लौकिकत्वाख्यविषयताविशेषोशदानम् । एवमग्रेऽपि स्वयमेव भावनीयम । (२) द्रव्यसमवेतनिष्ठलौकिकविषयतासम्बन्धेन चाक्षुषत्यावच्छिन्न प्रति आलोकसंयोगाबच्छेद कावन्छिन् चक्षुःसयोगाश्रयसमवायस्य स्वरूपेण यदा तादृशचक्षुःसंयोगस्य स्वाश्रयसमवायेन हेतुत्वं यथा घटरूपचाक्षुष प्रति दमित्रवरूपम्म । (३) द्रव्यसमवेतसमवेतनिष्ठलौकिकविषयतासंसर्गेण चाक्षुषत्वावच्छिन्न प्रति आलोक-संयोगावच्छेदकावच्छिन्नचक्ष मांगाश्रयसमगन्यमवायस्य स्वरूपेण यद्वा तादशचन:संयोगस्य स्वाश्रयसमवेत हेतुत्वं यथा घटापसमवेतरूपत्वचाक्षुषं प्रति व्यावर्णितलक्षणस्य । (४) द्रल्यवृत्त्यभावनिष्ठविशेषणतात्मकलांकिकविषयतासम्बन्धेन चाक्षषत्वावच्छिन्नं प्रति आलोकसंयोगावच्छेदकावच्छिन्नचक्ष:संयोगाश्रयविशेषणताया हेतत्वं यथा भूतलबुसिघटाभावचाक्षुषं प्रति तस्याः। (५) द्रव्यसमबेतवृत्त्यभावनिष्ठविशेषणतास्वरूपलौकिकविषयतासम्बन्धेन चाक्षुषत्वावच्छिन्न प्रति आलोकसंयोगावच्छेदकावच्छिन्नचक्षुःसंयोगाश्रयसमवेतविशेषणत्वस्य स्वरूपेण यद्वा तादृशचक्षुःसंयोगस्य स्वाश्रयसमवेतविशेषणतासम्बन्धेन कारणत्वं या घटनीलवृत्तिरूपाभाश्चाक्षुषं प्रति निरूपितहेतोः । (६) द्रव्यसमवेतसमवेतवृत्त्यभावनिष्ठविशेषणतालक्षणलौकिकविषयतासंसर्गेण चाक्षुषल्यावच्छिन्नं प्रति आलोकसंयोगावच्छेदकावच्छिन्नचक्षु:संयोगाश्रयसमवेतसमवेनविशेषणत्वस्य स्वरूपेण यद्वा तादृशचक्षुःसंयोगस्य स्वाश्रयसमरेतसमदेतविशेषणतासम्बन्धेन हेतुत्वं यथा रूपत्वबृत्तिरूपाभावचाक्षुषं प्रति व्याख्यातकारणस्य । कार्यता. वच्छेदककारणतावच्छेदकधर्मसम्बन्धान्यतमभेदेऽपि कार्यकारणभावो भिद्यते, घटकभेदे तटितभेदात् । ततश्च विषयनिष्ठप्रत्यासत्त्या चक्षुःसंयोगकारणतारादिनये प्रदर्शितषट्कार्यकारणभावाऽगीकारस्याऽऽवश्यकत्वान्महगौरवम् ।।
साम्प्रतमात्मनिष्ठप्रत्यासत्त्था आलोकसंयोगकारणतावादी स्वपक्षे लाघवमाविस्करोति - लाघवादिति । विषयनिष्ठप्रत्यासत्त्या चक्ष:संयोगकारणतापक्षाउपेक्षया लाघवादिति । समवायेनेति । अनेन कार्यतावच्छेदकसम्बन्धः प्रदर्शितः । तमस्तद्| व्याप्यभित्रीयलौकिकविषयितावच्चाक्षुषं = तमस्तद्व्याप्यभिन्ननिरूपितलौकिकविषयिताश्रयचाक्षुषलक्षणं कार्य प्रति आलोकसंयोग
लौकिकचाक्षुष न्यनिष्ठ लौकिक विषयता सम्बन्ध से घट में रहता है और उसी घर के एक ही भाग में आलोकसंयोग एवं चक्षुसंयोग रहने पर आलोकसंयोग के अपनटेदक भाग से अवञ्छेिन चक्षुसंयोग भी घट में रहता है। कार्य और कारण इस तरह विपयनिष्ठ सम्बन्ध से समानाधिकरण बनने से उन दोनों के बीच कार्यकारणभार संगत हो सकता है । मगर घटनीलरूपविपयक चाक्षुप की उपपनि प्रदर्शित कार्य-कारणभाव से नहीं हो सकती है, क्योंकि उक्त चाक्षुष का विपय घटनीलरूप है, जो गुण है न कि द्रव्य । अतः व्यनिष्ट लौकिक विषयता सम्बन्ध से वह चाक्षुष घटनीलरूप में न रह सकेगा (उत्पत्र नहीं हो सकेगा)। अतः यहाँ कार्यतावच्छेदक सम्बन्ध द्रव्यनिष्ठ लौकिक विषयता न हो कर द्रव्यसमवेतनिष्ट लौकिक विषयता होगा, क्योंकि घटनीलरूप घट द्रव्य में समवेत होने से द्रव्यसमवेतनिष्ठ लौकिक विषयता सम्बन्ध से घटनीलरूपचाक्षुप घटनीलरूप में रह सकता है । वहाँ चक्षुःसंयोग नहीं रह सकता, क्योंकि घटनीलरूप गुण है और चक्षुसंयोग भी गुण है तथा गुण में गुण नहीं रहता है । इसलिए आलोक-संयोगावच्छेदकावच्छिनचक्षुसंयोगाश्रयसमवाय को ही घटनीलरूपचाक्षुष का कारण मानना होगा । तादृश चक्षुसंयोग का आश्रय नील घट है, जिसका समवाय घटनीलरूप में रहता है । इसलिए द्रव्यसमवेतनिष्ठ लौकिकविषयता सम्बन्ध मे चाक्षुप के प्रति आलोकसंयोगावच्छेदकावच्छिनचक्षुसंयोगाश्रयसमवाय को कारण मानना होगा । यह दूसरा कार्य-कारणभाव हुआ। इस तरह अन्य कार्यकारणभाव का स्वीकार रूपत्वादिविषयक चाक्षुप के अनुरोध से करना पड़ेगा । अतः विषयनिष्ठप्रत्यासत्ति से चाक्षुप प्रत्यक्ष के कारणविभूया चक्षुःसंयोगादि की कल्पना गौरवदोषग्रस्त है ।
___* आत्मनिष्ठप्रत्यासति से आलोकसंयोग में कारणताकल्पना लघु है **
लाघवा. इति । विषयनिष्ठप्रत्यासत्ति से चक्षुसंयोग में कारणता की कल्पना की अपेक्षा आत्मनिष्ठप्रत्यासति से आलोकसंयोग में कारणता की कल्पना करने में लायब है। आत्मा में समवाय सम्बन्ध से चाक्षुष साक्षात्कार रहता है, क्योंकि बह गुण है। अतः कार्यतावच्छेदक सम्बन्ध समवाय है । चाक्षुपात्मक कार्य आत्मा में रहता है। इसलिए उसके कारण आलोकसंयोग का भी आत्मा में रहना आवश्यक है, क्योंकि कार्य और कारण समानाधिकरण होने पर ही उन दोनों में कार्य-कारणभाव हो सकता है। आलोकसंयोग और चक्षुसंयोग एक भाग में रहने पर ही चाक्षुप साक्षात्कार का उदय होता है । तथा उस चक्षुसंयोग के आश्रय चक्षु से मन का संयोग होता है और मन का विजातीय संयोग आत्मा के साथ होता है। अत: आलोकसंयोग स्व(आलोकसंयोग) अवच्छेदक (विषयभाग)अवच्छिनचक्षुसंयोगाश्रय(चक्षु) संयुक्तमनप्रतियोगिक-आत्मानुयोगिक-विजातीयसंयोगसंबन्ध से आत्मा में रहता है। यद्यपि ज्ञानमात्र के प्रति आत्ममनसंयोग कारण है। फिर भी चाक्षुषजनक आत्ममनःसंयोग स्पार्शनादिजनक आत्ममनःसंयोग से विजातीय = भिन्नजातिवाला होता है । इसलिए कारणतावच्छेदकसम्बन्ध में तादृशसंयोग