________________
३३२
* आलोकसयोगकारणतायां विनिगमनाविरहः | आलोकसंयोगस्याऽप्यवच्छेदकत्वसम्भवे विनिममनाविरहात् । एतेन -> स्वाऽवच्छेदकावच्छिनचक्षुःसंयोगसम्बन्धेनाऽप्यालोकसंयोगस्य कारणत्वं - प्रत्युक्तम्, चक्षुःसंयोगस्यापि स्वावच्छेदकावच्छिन्नाऽऽलोकसंयोगसम्बन्धेन तथात्वे विनिगमकाऽभावात् ।
= = =* जयलता * मुखत्वाऽयोगात, तथापि तादृाकारणताया असम्भवे हेत्वन्तरमाह- आलोकसंयोगस्याऽऽपीति । अवच्छेदकत्वसम्भवे = चक्षुःसंयोगाऽवच्छेदकयटकत्यकल्पने विनिगमनाविरहादिति । द्रव्यचाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रति चक्षुःसंयोगावच्छेदकावच्छिन्न-महदुद्भूतानभिभूतरूपबदालोकसंयोगः कारणं यदुत महदुतानभिभूतरूपबदालोकसंयोगावच्छेदकावच्छिन्न-चक्षुःसंयोगः ? इत्यत्रैकतरपक्षपातियुक्तिविरहात् द्रव्यचाक्षुषत्वावच्छिन्नक्षार्थतानिरूपितकार यतावच्छेदकयटकविधया चक्षुःसंयोग इव तादृशालोकसंयोगोऽपि कल्पयितुं शक्यत इति द्वितयमपि तादृशकारणतावच्छेदकघटकं स्यादित्युभयोरतिगुरुभूतयो: तटितयोः कारणताकल्पनापत्तिः । चक्षुःसंयोग-तादृशालोकसंयोगयो: स्वातन्त्र्येण हेतुत्वं तु एकावच्छेदेन तादृशालोकसंयोगवतो द्रव्यस्याऽपरभागावच्छेदेन चक्षुःसंयोगाचाक्षुषापत्तेः ।
एतेनेति । विनिगमनाविरहेणेति । अस्याऽग्रे 'प्रत्युक्तमित्यनेनाऽन्वयः । स्वावच्छेदकावच्छिन्नचक्षुःसंयोगसम्बन्धेनेति । स्वपदेनाऽऽलोकसंयोगस्य ग्रहणम् । आलोकसंयोगस्य = महत्परिमाणोद्भूतानभिभूतरूपवदालोकसंयोगस्य कारणत्वं = द्रव्य-चाक्षुषत्वावच्छिन्नकार्यतानिरूपितकारणत्वम् । विषयतासम्बन्धेन द्रव्यचाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रति महदुद्भूतानभिभूतालोकसंयोगः स्वावच्छेदकावच्छिनचक्षुःसंयोगसम्बन्धेन कारणम्, यथा नयनाभिमुखालोकसंयोगाश्रयद्रव्ये चक्षुःसंयोग-तादृशालोकसंयोगयोरवच्छेदकक्यतादशायां तादृशालोकसंयोग: स्वावच्छेदकावच्छिन्नचक्षुःसंयोगसम्बन्धेन यत्र द्रव्यांशे वर्तते तत्रैव विषयतासम्बन्धेन द्रव्यचाक्षुषं जायते । यदा त्वेकभागावच्छेदेन तादृशालोकसंयोगोऽपरभागावच्छेदेन च चक्षुःसंयोगः तदा तदवच्छेदकभेदात्तादृशालोकसंयोगः स्वावच्छेदकावच्छिन्नचक्षुःसंयोगेन न कुत्राऽपि वर्तते, तादृशचक्षुःसंयोगस्यालोकसंयोगावच्छेदकानवच्छिन्नत्वादिति केषाश्चिन्नैयायिकानां मतम् ।
प्रकरणकार: तन्निरासे हेतु कण्ठत आह - चक्षुःसंयोगस्याऽपि स्वावच्छेदकावच्छिन्नालोकसंयोगसम्बन्धेन तथात्वे = द्रव्यचाक्षुषकारणत्वसम्भवे, विनिगमकाऽभावादिति । विषयतासम्बन्धेन द्रव्यचाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रति किं महदुद्भूताननिभूतालोकसंयोगः स्वावच्छेदकावच्छिन्नचक्षुःसंयोगसम्बन्धेन कारणं यदुत चक्षुःसंयोगः स्वावच्छेदकावच्छिन्नमदुद्भूतानभिभूतालोकसंयोगसम्बन्धेन कारणं ? इत्यत्रैकतरसाधकबाधकयुक्तिविरहान्नैकस्यैव द्रव्यचाक्षुषकारणत्वं वक्तुं युज्यते । न हि चक्षुःसंयोगस्य स्वावच्छेदकावच्छिन्नालोकसंयोगसम्बन्धेन द्रव्यचाक्षुषकारणत्वे किमपि बाधकमस्ति, तयोरवच्छेदकाभिन्नत्वे एव चक्षु:संयोगस्य स्वावकछेदकावच्छिन्नालोकसंयोगसम्बन्धेनाश्रये विषयतासम्बन्धेन द्रव्यलौकिकचाक्षुषस्य जायमानत्वात् । परो विनिगमकअवच्छेदकशरीर के घटकविधया चक्षुःसंयोग की भाँति तादृशालोकसंयोग का भी निवेवा मुमकिन होने से निश्चित रूप से एक का ग्रहण नहीं हो सकता है और दोनों का ग्रहण करने में अत्यंत गौरव है। इसलिए द्रव्यचाक्षुष के प्रति दर्शित आलोकसंयोग को कारण नहीं माना जा सकता ।
प्रतेन, इति । यहाँ नैयायिक की ओर से यह कहा जाय कि -> "व्यचाक्षुष के प्रति आलोकसंयोग ही कारण है और कारणतावच्छेदक सम्बन्ध है स्वावच्छेदकावच्छिन चक्षुसंयोग । स्वपद से द्रव्यचाक्षुषकारणीभूत आलोकसंयोग का ग्रहण अभिमत है । वह द्रव्य के जिस भाग में रहता है, वह भाग आलोकसंयोग का अवच्छेदक होता है, उसी भाग में यदि चक्षुसंयोग रहता हो तब वह आलोकसंयोग स्वावच्छेदकावञ्छित्र चक्षुसंयोग सम्बन्ध से उसी भाग में रहता है और विषयता सम्बन्ध से द्रन्यचाक्षुप भी वहीं रहता है । भिन भिन्न भागावच्छेदेन आलोकसंयोग और चक्षुसंयोग द्रव्य में रहने पर चक्षुःसंयोग आलोकसंयोगावच्छेदक भाग से अवजिन्न नहीं होता है। अतएव तब द्रव्यचाक्षुष के उदय का आसदन नहीं किया जा सकता, क्योंकि उस अवस्था में द्रव्य में आलोकसंयोग स्वावच्छेदकावच्छिन्न चक्षुसंयोग सम्बन्ध से नहीं रहता है" - तो यह भी नामुनासिब है, क्योंकि अब भी विनिगमनाविरह दोष से नैयायिक मुक्त नहीं हो सकता । नैयायिक के उपर्युक्त कथन के खिलाफ में यह भी कहा जा सकता है कि विषयता सम्बन्ध से द्रव्यचाक्षुध का चक्षुसंयोग ही स्वारच्छेदकावच्छिनालोकसंयोगसम्बन्ध से कारण है । यह कथन अयुक्त है और नैयायिककथन युक्तिसंगत है . इस विषय में कोई साधक-बाधक तर्क नहीं है। इसलिए आलोकसंयोग-कारणता विनिगमनाविरहग्रस्त होगी। इस परिस्थिति में या तो दोनों में कारणता माननी पड़ेगी या