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३१९ मध्यमस्याहादरहस्ये रमण्डः + - का.'. * व्यासज्यवृत्तिगुणाऽस्पार्शननिर्वाहविचारः * [ केचित् -> व्यासज्यवृतिगुणाऽस्पार्शननिर्वाहाय प्रकृष्टमहत्वोद्भुतस्पर्शयोः प्रत्यासत्य----.. :-=- ===- =-===* जयतता * = --- ----- योगिकसमवायस्य तादृशप्रत्यासत्तित्वकल्पना । अनेनोद्भुतनीलरूपस्योद्भूतस्पर्शव्याप्यत्वकल्पनाऽपि प्रत्युक्ता, नीलत्रसरेणी ।। न्यभिचामत् । अत एव तमस उद्भूतरूपवत्त्वे उद्भूतस्पर्शाभाव एव बाधक इत्यपि निराकृतम् । इत्थश्च 'नीलं तम' इति प्रतीते; प्रमात्वेन रूपबत्त्वात्तमसो द्रव्यवसिद्धिरिति स्याद्वादिनोऽभिप्रायः ।।
अध द्रव्यान्य-द्रव्यसमवेतस्यानिं प्रति स्वसंयुक्त-प्रकृष्टमहत्त्वोद्भूतस्पर्शवदनुयोगिकसमबायेन स्पर्शनेन्द्रेियस्य कारणत्वे यटाकाशसंयोग-द्वित्वादिव्यासज्यवृत्तिगुणस्पार्शतप्रसङ्गः । न च तद्भवति । अतो नोक्तप्रत्यासत्तिमध्ये प्रकृष्टमहत्त्वोद्भूतस्पर्शयोनिवेशः समीचीनः । व्यासज्यवृत्तिगुणस्पार्शनवारणाय ज्यासज्यबृत्तिगुणत्वाचं प्रति स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धेन लौकिकविषयत्वावच्छिन्नत्वाचाभावस्य प्रतिबन्धकत्वमावश्यकम् । तस्य च प्रतिबध्यतावच्छेदकं न व्यासज्यवृत्तिगुणत्वाचत्वं, गुणादित्वाचं प्रति प्रकृष्टमहत्त्ववदुद्भुतस्पर्शवत्समवायस्यातिरिक्तकारणत्वकल्पनापत्तेः । अपि तु निखिलगुण-कर्मत्वाचसाधारणं द्रव्यान्य-सत्त्वाचत्वमेव तयतिबध्यतावच्छेदकम् । एवञ्च घटायेकैकप्रतियोगिकल्वक्संयोगदशायां न घटपटवृत्तिव्यासज्यवृत्तिसंयोग-द्वित्वयोः स्पार्शनप्रसङ्गः, लौकिकविषयत्वावच्छिन्नत्वाचाभावलक्षणप्रतिबन्धकस्य स्वसंयुक्तफ्टसमवेतसंयोगद्वित्वयोः सत्त्वात् । अन्न त्वक्संयोगस्य कार्यताबच्छेदकः सम्बन्धो न विषयत्वमात्रम्, 'चैत्रस्यायं पुत्र' इत्यादिस्वार्शने चैत्राद्यशे व्यभिचारात, किन्तु लौकिकत्वाभिधानो विषयताविशेषः इत्याद्याशयवतां मतं प्रकरणकारः प्रदर्शयति- केचित्त्विति । व्यासज्यवृत्तिगुणाऽस्पार्शननिर्वाहाय = द्रव्यान्यव्यसमवेतसंयोग द्वित्वादिगोचराऽस्पार्शनोपपत्तये । अस्यानुपदं 'प्रकृष्टमहत्त्वोद्भूतस्पर्शयोः प्रत्यासत्यघटकत्वेने त्यबाऽन्वयः ।
की अपेक्षा इन दोनों का प्रवेश करने में लाघव है। द्रव्य में महत्त्व और उद्भुत रूप अनन्त नहीं होते हैं । नैयायिक की ओर से यहाँ यह शंका की जाय कि --> 'विषयतासम्बन्ध से द्रव्यान्य-द्रव्यसमचेतविषयक त्याच प्रत्यक्ष के प्रति स्वसंयुक्तमहत्त्वोद्भूतस्पर्शाश्रयानुयोगिक समवाय सम्बन्ध से त्वगिन्द्रिय को कारण मानने पर त्रसरेणुस्पर्श के स्पार्शन प्रत्यक्ष की आपनि होगी, क्योंकि स्व (स्पर्शनेन्द्रिय) संयुक्त त्रसरेणु में महत्त्व और उद्भूतस्पर्श होने से स्पर्शनेन्द्रिय स्वसंयुक्त महत्त्वोद्भूतस्पर्शाश्रयानुयोगिक समवाय सम्बन्ध से त्रसरेणुस्पर्श में रहती है तो यह असंगत है, क्योंकि त्रसरेणुस्पर्श के स्पार्शन प्रत्यक्ष के अभाव की उपपत्ति तो त्रसरेणुस्पर्श को अनुद्भुत मानने पर भी हो सकती है। मतलब कि सरेणु में महत्व होने पर भी उद्भूत स्पर्श नहीं होने से त्रसरेणुस्पर्श में स्वसंयुक्त-महत्त्वोद्भुतस्पश्रियानुयोगिक समवाय सम्बन्ध से स्पर्शेन्द्रिय नहीं रहती है । कारणताअवशेदक सम्बन्ध से कारण की कार्याधिकरणलेन अभिमत में अनुपस्थिति होने से कार्योत्पत्ति का आपादन नहीं किया जा सकता। इस तरह त्रुटिस्पर्धा के अस्पार्शन की उपपत्ति हो सकती है। मगर इस परिस्थिति में उद्भुत नील रूप उद्भुत स्पर्श का व्यभिचारी हो जायेगा, क्योंकि नील त्रुटि में उद्धृत नीलरूप होने पर भी उद्भूत स्पर्श नहीं रहता है । उद्भूत स्पर्श उद्भुत नील रूप का अव्यापक होने से अन्धकार को नीलरूपवान मानने में उद्भूतस्पर्शाभाव बाधक नहीं हो सकेगा। अतः रूपबत्त्व हेतु से अन्धकार में द्रव्यत्व की सिजि निरापराध है . यहाँ प्रकरणकार का यह तात्पर्य ध्वनित होता है।
* आश्रयस्पार्शजाभाव गुणादिस्पार्शन में प्रतिषन्धक - नैयायिकैकदेशीमत
केचित्त. इति । अन्य नैयायिक विद्वानों की यह राय है कि द्रव्यान्य-द्रव्यसमवेतविषयक स्पार्शन प्रत्यक्ष के प्रति स्पर्शनेन्द्रिय को स्वसंयुक्तप्रकृश्महत्त्वाद्भूतस्पर्शविशिष्टानुयोगिक समवाय सम्बन्ध से कारण मानने पर घट-पट परस्परसंयुक्त होने की दशा में केवल घट के साध स्पर्शनेन्द्रिय का संयोग होने पर भी घट-पटसंयोग का पार्शन प्रत्यक्ष होने लगेगा, क्योंकि संयोग व्यासज्यवृत्ति गुण होने से घट और पट दोनों में समवाय सम्बन्ध से रहने की बजह स्पर्शनेन्द्रिय स्वसंयुक्त एवं प्रकृष्टमहत्त्व और उद्भूत स्पर्श वाले घट में समवेत घटपटसंयोग गुण में स्वसंयुक्त-प्रकृष्टमहत्त्वदुद्भुतस्पर्शवदनुयोगिक समवाय सम्बन्ध से रहती है। इसलिए विषयतासम्बन्ध से घटपटसंयोम में स्पार्शन प्रत्यक्ष उत्पन्न होना चाहिए, अर्थात् घटपटसंयोगविषयक स्पार्शन साक्षात्कार होना चाहिए। मगर हकीकत यह है कि घट-पटसंयोग का स्पार्शन साक्षात्कार केवल घट के साथ स्पर्शनेन्द्रिय का संयोग होने पर नहीं होता है, किन्तु घट-पटोभय के साथ स्पर्शन इन्द्रिय का संयोग होने पर ही होता है। संयोग, द्वित्व आदि व्यासज्यवृत्ति गुण के एक आश्रय के साथ स्पर्शेन्द्रिय का संयोग होने की अवस्था में उन व्यासज्यवृत्ति (अनेकवृत्ति) गुण के स्पार्शन साक्षात्कार का निवारण कारणतावच्छेदक सम्बन्ध की कुक्षि में प्रकृष्ट महत्त्व और उद्भुत स्पर्श का निवेश करने पर भी नामुमकिन होने से द्रव्यान्य-द्रव्यसमवेतगुणादिगोचरसाक्षात्कारकारणतावच्छेदक सम्बन्ध के शरीर में उन दोनों का निवेश करना अनावश्यक है। इसका निराकरण करने के लिए निम्नोक्त प्रतिबध्य-प्रतिबन्धकभाव का स्वीकार करना आवश्यक है । वह इस तरह - द्रन्यान्य