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* दिगर्थविभावने शङ्कराचार्यमतनिराकरणम् * । एतन्मते कपिसंयोगवति वृक्षे 'वृक्षे कपिसंयोमो नास्तीति न प्रमाणं, कपिसंयोगत्वावच्छेदेन वृक्षास्तित्वाऽभावाऽभावात् । 'मूले वृक्षे कपिसंयोगो नास्तीतितु प्रमाणमेव, कपिसंयोगत्वावच्छेदेनैव मूलाच्छिन्नवृक्षावच्छिन्नकालसम्बन्धाऽभावात् । 'घटः स्यादस्तित्ववान् स्यादस्तित्वाऽभाववानिति बोधान्तरादप्यस्तित्व-नास्तित्वयोः समावेशसिद्धिरिति कि ।
== = ====* जयलता. * विरहात् । एतेनेकत्र सादच्छिन्नास्तित्वधर्मज्ञानस्य निरवच्छिन्ननास्तित्वधीविरोधित्वमावेदितम् ।।
प्रकरणकार आह एतन्मते = प्रकृतेऽन्यमते, कपिसंयोगवति वृक्षे सति 'वृक्षे कपिसंयोगो नास्तीति वाक्यं न प्रमाणं | = प्रमाजनक, हेतुमाह-कपिसंयोगत्वावच्छेदेन = नर्थाभावधर्मितावच्छेदकीभूतकपिसंयोगत्वावच्छिन्ने, वृक्षास्तित्वाभावाभावात् = वृक्षावच्छिन्नसाम्प्रतकाल-संसर्गाश्रयत्वाऽभावविरहात, पर्वतादिवृत्तिकपिसंयोगे वृक्षावच्छिन्नास्तित्वाः नाबसवपि अनिकपिसंयोगे तद्विरहात् । तर्हि किम्भूतं तत्प्रमाणमित्याशङ्कायामाह प्रकरणकृत् - 'मूले वृक्षे कपिसंयोगो नास्ती' ति तु प्रमाणमेवेति । शाखावच्छेदेनैव वृक्षे कपिसंयोगसत्त्वदशायामिति गम्यते । तत्प्रमाणत्वे हेतुमाह-कपिसंयोगत्वावच्छेदेनैवेति । यकारोऽयोगव्यवच्छेदार्थः । मूलावच्छिन्नवृक्षावच्छिन्नकालसम्बन्धाभावात् = मूलावच्छिन्नो यो वृक्षः = वृक्षविदोपः तदवच्छिन्न यः कालः वर्तमानका संसर्ग अपाचनिरहर का । विशेष्यतावच्छेदकावच्छेदेनाऽन्धया बाधागदृशं वाक्यं योग्यमिति भावः । एवं च पुरावर्तिनि भूतले घटसत्त्वदशायां 'भूतले घटो नास्ती'ति वाक्यं न प्रमाणम, 'अन्यत्र भूतले घटो नास्ती'ति प्रमाणमिति भावनीयम ।
नन्वेवं नर्धात्यन्ताभावस्य धर्मितावच्छेदकाबच्छेदेनेवाऽन्वयाङ्गीकर्तृमतेऽस्तित्वनास्तित्वोभयधर्मनिवेशः कथं युक्तः स्यात् ? अनुयोगितावच्छेदकावन्छंदनाऽनुयोगितावच्छेदकसामानाधिकरण्येन वाऽस्तित्वबोधेनुयोगितावदकावच्छेदन नाम्कि-।- वयबोधस्याऽसम्भवादित्याशङ्कायामाह- 'घटः स्यादस्तित्ववान् स्यादस्तित्वाभाववानिति बोधान्तरादपीति । यतः २. द्रव्यादिचतुष्टयावच्छेदेनाऽस्तित्वान् परद्रन्यादिचतुष्टयावच्छेदेनाऽस्तित्वाऽभाववानि त्याकारकज्ञानविशेषादपीति । अस्तित्व-नास्नित्त्वयोः परस्परविरुद्धधर्मयोः एकत्र धर्मिणि समावेशसिद्भिः। स्वद्रव्यादिचतुष्टया वच्छिन्नाऽस्तित्ववनि घटेऽन्वयितावच्छेदकीभूत घटत्वाःबच्छेदेन नञर्थपरद्रव्यादिचतुष्टयावचिन्नाऽस्तित्वाऽभावान्वयस्याऽबाधात् । अपिशब्देन 'स्वद्रव्यादिचतुष्टयाऽवच्छेदेन घटोऽस्ती' - त्यस्य 'परद्रव्यादिचतुष्टयाऽवच्छेदेन घटो नास्ती' त्यस्याऽपि ग्रहणम् । एतेन 'एकस्मिन धर्मिणि सत्त्वाउसच्चयोविरुद्धयोधर्मयोरसम्भवात् सत्त्वे चैकस्मिन्धर्मेऽसत्त्वस्य धर्मान्तरस्याऽसम्भवादसत्त्वे चवं सत्त्वस्याऽसम्भवादसङ्गतमिदमाहत मतं' (.सू.२/ |२/३३ शां,भा.) इति ब्रह्मसूत्रशाङ्करभाष्यवचनं प्रत्याख्यातम् घटत्वाद्यवच्छेदेन वटादावकस्मिन् धर्मिणि स्वद्रव्यादिलक्षण
है घट और अनुयोगितावछेदक है घटत्व, मगर घटत्याऽवच्छेदेन भूतलास्तित्वाऽभाव रहता नहीं है । जहाँ जहाँ घटत्व रहता | है, वहाँ वहाँ भूतलावच्छिन्नाऽस्तित्वाऽभाव नहीं है । घटत्व तो भूतलस्थ घट में भी रहता है, मगर भूतलारितन्याभाव वहां रहता नहीं है। प्रस्तुत में नञ् (न पद) का समभिव्याहार होने के सवत्र अनुयोगितावच्छेदकावच्छेदेन नबर्ध अभाव का अन्वय साकाक्ष है। मगर उपर्युक्त प्रकार से वह बाधित है। अतएव यह प्रयोग अयोग्य ही है ।
पतन्मने. इति । इस तरह प्रकरणकार अन्य मत का उल्लेख करके उसके मतानुसार अपना वक्तव्य प्रकट करते हैं कि '- प्रस्तुत विद्वानों के मतानुसार जब पेड़ की शाखा में बंदर का संयोग होता है तब 'वृक्षे कपिसंयोगो नास्ति' यह वचन अयोग्य है, क्योंकि अनुयोगितावच्छेदकीभूत कपिसंयोगत्वाऽवच्छेदेन वृक्षावच्छिन्नाऽस्तित्वाऽभाव बाधित है। जहाँ जहाँ कपिसंयोगत्व रहता है, वहाँ वहाँ वृक्षाऽवच्छिन्नाऽस्तित्व नहीं रहता है । कपिसंयोगत्व नो वृक्षीयशाखारथ कपिसंयोग में भी रहना है, मगर उसमें वृक्षाऽवच्छिन्नास्तित्वाऽभाव नहीं रहता है, क्योंकि वह अनुयोगी वृक्षवृत्ति होने की वजह श्वाऽवच्छिन्नवर्तमानकालसंसर्गाश्रयत्वविशिष्ट है। मगर 'मूले वृक्षे कपिसंयोगो नास्ति' यह वाक्य तो योग्य ही है। वह इस तरह उक्त वाक्य में प्रथमारिभक्त्यन्त पद है 'कपिसंयोगः' । अतः बंदरसंयोग अनुयोगी = धर्मी है, क्योंकि प्रधमाविभक्तिविशिष्ट पद का अर्थ वाक्यजन्य शान्दबोध में अनुयोगी - धर्मी = विद्रोप्य होता है । अतः अनुयोगितावच्छेदक होया कपिसंयोगत्व । नन का सनिधान होने की वजह प्रकृत में अनुयोगितावच्छेदकाऽवच्छेदेन ही अभाव का अन्चय हो सकता है। अतः कपिसंयोगत्वाऽवच्छेदेन ही मूलावच्छिन्न वृक्ष से अवच्छिन्न वर्तमान काल के सम्बन्ध के आश्रयत्वरूप मुलावचित्रवृक्षास्तित्व के अभाव का अन्वय हो सकेगा और वह अगचित ही है । अतएव वह वाक्य प्रमाण है। यहाँ यह प्रश्न उपस्थित हो कि > 'अनुयोगिताअवछेदकाचच्छेदेन ही अभाव का अन्चय अङ्गीकार किया जाय तो एक धमी में अस्तित्व नास्तित्वोभय धर्म का समावेश कैसे हो सकेगा ? क्योंकि अस्तित्व नास्तित्व का विरोध करेगा' - तो इसका प्रत्युत्तर यह है कि 'घटः स्यादस्तित्ववान् स्यादस्तित्वाऽभाववान्'
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