________________
* सिद्धहेमलघुन्याससंवादः *
. २८६ त्वं न स्यात्, न स्याग्च करमादांध घदपलाद घट-घटत्वधारपि स्वारसिको बोध इति चेत् ? | ज, अग्रिमसकृत्पदस्यैकधर्मावच्छिन्नार्थकत्वात् । ‘एवं सति भेदविवक्षायामप्येकेन शब्द
---- :-: :==* जयलता * पपत्तिः, 'यः शिष्यते स लुप्यमानार्थाभिधायी' ति ( ) वचनात् । अत एव शब्दानां द्रव्याभिधायकत्वपक्षे एकशेषारम्भोऽ
युपपद्यते । तदुक्तं सिद्धहेमलघुन्यासे मूलकारैः -> "एकेन शब्देनाऽनेकस्य द्रव्यस्याऽभिधानं नोपपद्यत इत्यनेकस्याऽर्थस्य | प्रतिपादनेऽनेकशब्दानां वाचकानां प्रयोगः प्राप्नोतीति द्रव्यपदार्थदर्शने एकशेषारम्भ'' « (सि.ह.ल.न्या. ३/१/११८ .
प्र.५०९) इति स्याद्वादिना समाहितं स्यात्तदा दोषान्तरमाह - न स्याचेति कस्मादपि घटपदात घटघटत्वयोरपि स्वारसिको | बोधः इति । शब्दानां केवलजात्यभिधायकत्वपक्षे केवलद्रव्यवाचकत्वमते वा प्रस्तुतदोषापादनं न सम्भवति किन्तुभयशक्तत्वदर्शने । एवेति ध्येयम् ।
स्याद्वादी तत्प्रत्याचष्टे - नेति । अग्रिमसकृत्पदस्य = 'सकृदुचरितः शब्दः सकृदेवार्थं गमयती'त्यत्र द्वितीयसकृत्पदस्य, एकधर्मावच्छिनार्थकत्वादिति । ततः एक पदमेकधावच्छिन्नमवार्थ बोधयती'त्येतन्न्यायार्थः इति प्राप्तम् । ततः 'घट' इत्यत्र घटत्वावच्छिन्नगोचरबोधो नानुपपन्नः । एवं 'घटा' वित्यत्र द्रित्वं द्विचनार्थः, प्रत्ययार्थस्य प्रकृत्यर्थेऽन्चयात् "द्वित्वविशिष्टी घाविति बोधः । 'घटा' इत्यत्र बहुवचनार्थों बहुत्वमिति 'बहुत्वविशिष्टा घटा' इति बोधः ।
वस्तुत 'एकपदस्य प्रधानतयाग्नेकधर्मावच्छिन्नबोधकत्वं युगपन्नास्ती'त्येब प्रकृतन्यायार्थः । एतेन सुप्तिङन्तं पदं (पा. १/४/१४) इति पाणिनिसूत्रात् 'घटा' इति बहुवचनान्तप्रकृतिनैकेन पदेन बहुत्व-घटत्वरूपानेकधर्मावच्छिन्नस्य बोधाद् एकपदस्य युगपदेकधर्मावच्छिन्नार्थबोधकत्वनियमभड़ग इति पराकृतम्, प्रधानभावेन घटत्वावच्छिन्नस्य गणभावेन च बहत्व. संख्यायाः प्रतीतेः, घटपदेन घटत्वावच्छिन्नद्रव्यं बोधयित्वैव संख्यादिबोधनात् । तदुक्तं 'स्वार्थमभिधाय शब्दो निरपेक्षो द्रव्यमाह समवेतम् ।
समवेतस्य तु वचने लिङ्गं संख्यां विभक्तियुक्तस्सन् ।। ( ) इति ।
ननु एकस्य पदस्य वाक्यस्य वा प्रधानभावेनाऽनेकधर्मावच्छिन्नवस्तुबोधकत्वानगीकारे प्रधानभावेनाऽशेषधर्मात्मकस्य वस्तुनः प्रमाणवाक्यं न घटाकोटिमाटीकेत । न च कालादिभिरभेदवृत्तिप्राधान्यादभेदोपचाराद्वा सकलस्य वस्तुनः प्रतिपादनस्य प्राग विवेचितत्वादिति वक्तव्यम्, एकधर्मावच्छिन्नविषयकबोधजनकेनेकेन पदेन वाक्येन वाऽभेदविवक्षायां नानाधर्मावच्छिन्नगोचरधीजनने तु भेदविवक्षायामपि तथात्वनसङ्गादित्याशयेन परः शकते - एवं सतीति । स्याद्वादी तत्रिरस्यति . नेति ।
| 'घटा:' पद से अनेक घट का एक काल में बोध होता है। मगर उपर्युक्त न्याय को मान्य करने पर वह नहीं हो सकेगा। दुसरी बात यह है कि 'घटः' इस पद से घटस्य से विशिष्ट घट का बोध होता है वह भी उपर्युक्त न्याय के सबर नहीं हो सकेगा । “घटः' पद से पा तो केवल घटत्व का या तो केवल घर का बोध हो सकेगा, क्योंकि एक पद से एक अर्थ का बोध हो सकता है। मगर दोनों का बोध नहीं हो सकेगा।
-दितीय 'सकृव' पद का अर्थ उत्तरपक्ष :. न, अ, इति । सकृदुचरित न्याय में जो आगे दुसरा सकृत् पद है, उसका अर्थ केवल 'एक अर्थ | ऐसा नहीं है, किन्तु 'एक धर्म से अवच्छिन्न' यह है । मतलब कि एक पद एक काल में एकधर्मावञ्चिन्न वस्तु का रोध कराता है . यह उक्त न्याय का अर्थ है। यह अर्थ मान्य करने पर उपर्युक्त दोष का अवकाश नहीं है । वह इस तरह - 'घटी' इस एकशेष समास से द्वित्वावच्छिन्न घट अर्थ का बोध होता है, वह द्वित्वस्वरूप एक धर्म से अवच्छिन्न अर्थ को ही अपना विषय बनाता है, न कि अनेक धर्म से अवच्छिन अर्थ को। तथा 'घटाः' इस एकशेषसमासगर्मित पद से बहुत्वधर्मावच्छिन्न पट का बोध होता है, वह बहुत्त्वात्मक एक धर्म से अवच्छिन्न घट को अपना विषय बनाता है। एवं 'घटः' पद से घटत्त्वावच्छिन्न अर्थ का बोध होता है, जो घटवलक्षण एक धर्म से भवच्छिन्न वस्तु को अपना विषय बनाता है। उपर्युक्त प्रत्येक पद एक एक धर्म से अवच्छिन्न अर्थ को ही बोध करा सकते हैं, न कि अनेक धर्म से अवच्छिन अर्थ का - यह उपर्युक्त न्याय का तात्पर्य है, जो उपर्युक्त बोथ की उत्पत्ति में बाधक नहीं है। अत: उक्त न्याय को मान्यता प्रदान करने पर एक भी दोष की संभावना नहीं है।
अभेदतितक्षा से नानाधविच्छिन्नबोधोपपत्ति