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* योगसिद्धान्त तदेकदेशिमतभेदविद्योतनम्
न, तथापि त्रसरेणोरुद्भूतस्पर्शवत्त्वे तत्स्पर्शस्पार्शनप्रसङ्गात् ।
ॐ जयलता
एतेन नीलत्रसरेण्वनुद्भूत स्पर्शाऽसमवायिकारणकस्पर्श उद्भूतः अदृष्टादिनिमित्तविशेषसमवहितत्वात् अतितप्ततैलान्तः पातिदहनाऽ| वयवाऽनुद्भूतरूपाऽसमवायिकारणरूपविशेषवदिति पराकृतम् । इत्थञ्चोद्भूतनीलरूपस्योद्भूतस्पर्शव्याप्यत्वेन तमसि प्रकटस्पर्शाभाव एवोद्भूतनीलरूपवत्त्वे बाधक इति न तमसो द्रव्यत्वसिद्धिरिति नैयायिकैकदेशीयाशयः ।
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इदन्त्वत्राऽवधेयम् - न्यायसिद्धान्तनये नियतारम्भवादस्वीकारात् समवायेन कार्यसमवेतगुणं प्रति कारणसमवेतसदृशगुणस्य स्वसमवायिसमवायसम्बन्धलक्षणया कारणैकार्थं प्रत्यासत्त्याऽसमवायिकारणत्वम्, यथा घटनीलरूपं प्रति कपालनीलरूपस्य । अत | एव तन्मते जन्यसमवेतोद्भूतगुणं प्रति स्वसमवायिसमवायेनोद्भूतगुणस्यैव कारणत्वम् जन्यसमवेतानुद्भूतगुणं प्रति स्वनुद्भूतगुणस्य । | न्यायैकदेशिनये तुद्भूतगुणं प्रत्युद्भूतगुणस्यैव स्वसमवायिसमवायसंसर्गेण कारणत्वेऽपि जन्याऽनुद्भूतगुणं प्रति नानुद्भूतगुणस्य | कारणत्वं किन्न्बुद्भूता कारणत्वम् । एवमेव जन्याऽनुद्भूतस्पर्शं प्रति स्वाश्रयसमवायेनोद्भूतस्पर्शाऽभावस्य प्रतिबन्धकाभावविधया कारणत्वम् । तथा जन्यानुद्भूतरूपं प्रत्युद्भूतरूपाभावस्य कारणत्वम् । न चोद्भूतरूपाभावस्यैवाऽनुद्भूतरूपत्वं लाघवादिति वाच्यम्, नीरूपे आत्मादावुद्भूतरूपाऽभावस्य सत्त्वेऽप्यनुद्भूतरूपविरहेण तयोरसमनैयत्यात् । घटं प्रति तन्तुभिन्नस्य कपालस्य कारणत्वे यथा तन्तोरकारणत्वं तथैव जन्याऽनुद्भूतरूपं प्रत्यनुद्भूतरूपभिन्नस्योद्भूतरूपाऽभावस्य कारणत्वेऽनुद्भूतरूपस्याऽन्यथासिद्धत्वमिति । न च विनिगमका भावेनानुद्भूतेतररूपाभाववत् अनुद्भूतरूपस्याऽपि जन्याऽनुद्भूतरूपं प्रति कारणत्वमनिराकार्यमिति वाच्यम् अनुद्भूतरूपं प्रति प्रतिबन्धकाऽभावविधया अनुद्भूतेतररूपाभावकारणताया उभयमतसिद्धत्वात्, अनुद्भूतरूपकारणताया उभयमता सिद्धत्वेनाऽक्लृप्तत्वात् । उद्भूतरूपाभावस्यैवाऽनुद्भूतरूपजनकत्वेनाऽनुद्भूतरूपस्योद्भूतरूपजनकत्वदृष्टान्तविप्रतिपत्तेः, ततैले उद्भूतरूपाश्रयज्वालालक्षणाऽनलस्य तप्ततैलस्थाऽनुद्भूतरूपाश्रयबह्वचवयवैरुद्भूतरूपविशिष्टदहनाऽवयवसहकारिभिर्जन्यत्वेऽपि यथा घटरूपाऽसमवायिकारणत्वं कपालस्थस्य रूपस्यैव न तु गन्धादेः तथैव प्रकृते ज्वालोद्भूतरूपाऽसमवायिकारणत्वमुद्भूतरूपस्यैव न त्वनुद्भूतरूपस्येति फक्किकार्थः ।
स्याद्वादी तत्प्रत्याचष्टे नेति । तथापि उद्भूतस्पर्शस्य कदाप्यनुद्भूतस्पर्शजन्यत्वानुपगमेऽपि, त्रसरेणोः नीलचतुरगुकसमवायिकारणीभूतत्रसरेणोः उद्भूतस्पर्शवत्त्वे तत्स्पर्शस्पार्शनप्रसङ्गात् = तादृशनीलत्रसरेणुसमवेतोद्भूतस्पर्शविषयक
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कथन युक्त नहीं है कि 'अनुद्भूत रूप से उद्भूत रूप की उत्पत्ति होती है, वैसे अनुद्भुत स्पर्श से उद्भूत स्पर्श की उत्पत्ति हो सकती है' इसका कारण यह है कि अनुद्भूत रूप से उद्भूत रूप की उत्पत्ति ही हमें अस्वीकार्य है । वास्तविकता तो यह है कि जन्य अनुद्भूत रूप के प्रति अनुद्भूतेतर (= उद्भूत) रूप का अभाव कारण है, जो अनुद्भूतरूपस्वरूप नहीं है। जैसे नील रूप के प्रति नीलेतररूपाभाव प्रतिबन्धकाभावविधया कारण है, ठीक वैसे ही अनुद्भूत रूप के प्रति अनुद्भूते तररूपाभाव प्रतिबन्धकाभावविधया कारण होता है । अत्यन्त गरम तेल आदि में जो अग्नि रहती है, वह अनुद्भूतरूपविशिष्ट होती है; मगर उस गरम तेल आदि में भीतर उद्भूतरूपवाले अनलावयव रहते हैं । उद्भूतरूप अनुद्भूत रूप की उत्पत्ति का प्रतिबन्धक होने की वजह अतितप्त तेल में अनुद्भूतरूप की उत्पत्ति नहीं हो सकती है । वहाँ रूप सामान्य की सामग्री उपस्थित है और अनुद्भूत रूप का प्रतिबन्धक भी विद्यमान है। अतः पारिशेष न्याय से उत्कटरूपवाले सूक्ष्म दहनावयव से अतितप्त तेल में ज्वाला के रूप में उत्कट रूपविशिष्ट अग्नि की उत्पत्ति हो सकती है । अतः अनुद्भूत रूप से उद्भूत रूप की उत्पत्ति का दृष्टांत हमें मान्य नहीं है । तप्त तेल में अनुद्भुत रूप वाले दहनावयव होने पर भी ज्वालास्वरूप अग्नि के उद्भूत रूप की उत्पत्ति अन्य दहनावयत्र के उत्कट रूप से ही होती है । प्रदर्शित दृष्टांत असंगत होने से उस पर अवलंबित दार्शन्तिक भी असंगत ही है । अतः अनुद्भूत स्पर्श से उद्भूत स्पर्श की उत्पत्ति की कल्पना अप्रामाणिक है । अतः आप स्याद्वादी ने जो कहा था कि पाटित पट के सूक्ष्म अवयव ( त्रसरेणु) में उद्भूत रूप न होने पर भी तत्स्थित अनुद्भूत रूप से उद्भूत रूप की उत्पत्ति हो सकती है। यह ठीक नहीं है । उद्भूत रूप से ही उद्भूत रूप की उत्पत्ति मुमकिन होने से चतुरणुक आदि में उत्कट रूप के जनक त्रसरेणु के स्पर्श को उत्कट मानना आवश्यक है । इस स्थिति में तो नीलद्रव्य के त्रसरेणु में उत्कट नील रूप उत्कट स्पर्श का व्यभिचारी नहीं होगा, क्योंकि दोनों ही उसमें रहते हैं । अतः उद्भूत नील रूप में उद्भूत स्पर्श की व्याप्ति अबाधित है । अतएव अन्धकार में उद्धृत नील रूप की सत्ता को मान्यता प्रदान करने पर उसमें उद्भूत स्पर्श की आपत्ति अपरिहार्य ही बनी रहती है"
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न. तथापि, इति । मगर विचार करने पर नैयायिकादि की ओर से किया गया यह आपादन निराधार है । इसका कारण यह है कि त्रसरेणु में उद्भूत स्पर्श होने पर उसके स्पार्शन प्रत्यक्ष की आपत्ति होगी । त्रसरेणु तीन द्व्यणुक से निर्मित