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*त्वाचवत्त्वस्य विशेषणत्वोपलक्षणत्वकल्पनमयुक्तम् * ता, आश्रयत्वाचस्य नियमतः पूर्वमभावेन त्वाचवत्त्वस्य विशेषणत्वाऽयोगात, - - - - -- -=-* जयलता * -- -
= =:| त्रुटिसमवेतस्पर्शगोचरस्पार्शनजनकतावच्छेदकप्रत्यासत्तित्वाऽयोगात्, कारणतावच्छेदकसंसर्गेण त्वगिन्द्रियस्य द्रव्यान्य-द्रव्यसमवेत| स्पार्शनकारणस्य त्रुटिस्पर्श-विद्यमानत्वेनाऽऽपादकविरहात् न विषयतासम्बन्धेन त्रुटिस्पर्श स्पार्शनप्रसङ्ग इति नोद्भूतनीलरूपस्योद्भूतस्पर्शच्याप्यत्वे व्यभिचारी, येन तमस उद्भूतरूपवत्त्वे स्पर्शाभावस्य बाधकत्वं न स्यादिति नैयायिकैकदेशीयान्तराभिप्रायः ।
ननु पर्शनेन्द्रियसंयुक्तानुयोगिकत्वमिव विषयतासम्बन्धेन त्वाचप्रत्यक्षविशिष्टानुयोगिकत्वं किं समवायस्य विशेषणं यदुतोपलक्षणं १ इति कल्पनायुगली मञ्जुलकलमरालविहङ्गमयुगलीय विमलीभावं कलयन्ति कं लयन्ति तीनै प्रगुणयत्येव । गुणज्ञगणचित्ताङ्गणेष्वित्याशयेन प्रकरणकृत्तन्निराकुर्वन्नाह- तनेति । प्रथमकल्पनायामाह- आश्रयत्वाचस्य = द्रव्यान्यत्वे सति ।
यो द्रव्यसमवेतः तदधिकरणविषयकरपार्शनप्रत्यक्षस्य नियमतः पूर्वमभावेन = द्रव्यान्य-द्रव्यसमवेतस्पार्शनजन्माऽव्यवहित|| पूर्वक्षणाऽन्यापकत्वेन, त्वाचवत्त्वस्य = स्वनिष्ठविषयितानिरूपितविषयतासंसर्गेण स्पार्शनप्रत्यक्षविशिष्टानुयोगिक त्वाऽयोगात् = द्रव्यान्य-द्रव्यसमवेत्तस्पार्शनजनकतावच्छेदकसंसर्गविशेषणत्वाइसम्भवात, ज्यावृत्तिबुद्धिसमये विशेष्यसम्बद्भस्यैव व्यावर्तकस्य विशेषणत्वोक्तेः । तन्मते वायोरस्पार्शनत्वेऽपि वायुस्पर्शस्पार्शनस्य जायमानत्वात्त्वचो न स्वसंयुक्तत्वाचवत्समवायेन | हेतुत्वं किन्तु स्वसंयुक्तसमवायेनैव । तथा च त्रुटिस्पर्शस्पानिस्य दुर्निवारत्वमित्याशयः ।
- - - - - - के स्पार्शन प्रत्यक्ष के प्रति महत्त्व और उद्भुतस्पर्श को कारण मानना अनावश्यक है। फिर भी त्रसरेणु, परमाणु, प्रभा आदि द्रव्य के स्पर्श के स्पार्शन प्रत्यक्ष की आपत्ति नहीं दी जा सकती, क्योंकि उसके निवारणार्थ हम त्वगिन्द्रिय को द्रव्येतरद्रव्यसमवेत स्पादि के स्पार्शन प्रत्यक्ष के प्रति स्वसंयुक्तसमवायसम्बन्ध से कारण नहीं मानते हैं, किन्तु स्वसंयुक्तत्वाचप्रत्यक्षविशिष्टसमवाय सम्बन्ध से कारण मानते हैं । स्वपद से त्वगिन्द्रिय का ग्रहण अभिप्रेत है। उससे संयुक्त त्रसरेणु, परमाणु, प्रभा आदि द्रव्य हैं। उनमें यद्यपि स्पर्श गुण का समवाय रहता है, मगर त्रसरेणु, परमाणु आदि द्रव्य स्पार्शन प्रत्यक्ष (= त्वाच) का अविषय होने से विपयता सम्बन्ध से त्वाचरिशिष्ट नहीं बनते हैं। इसलिए त्रसरेणु, परमाणु आदि के स्पर्श में जो समवाय रहता है, वह स्पर्शनेन्द्रियसंयुक्त-त्वाचविशिष्ट-द्रव्यानुयोगिक नहीं है । अतएव त्वगिन्द्रिय स्वसंयुक्तत्वाचविशिष्टानुयोगिक समवाय सम्बन्ध से त्रसरेणु, परमाणु आदि के स्पर्श में नहीं रहती है। कार्यतावच्छेदकीभूत विषयतासम्बन्ध से त्रसरेणुस्पर्शविषयक स्पार्शन प्रत्यक्षात्मक कार्य के अधिकरणविधया अभिमन बसरेणुस्पर्श में कारणतावच्छेदकीभूत स्वसंयुक्तत्वाचविशिष्टानुयोगिक समवाय सम्बन्ध से स्पर्शनेन्द्रियात्मक कारण नहीं रहने से त्रसरेणुस्पर्शविषयक स्पार्शन प्रत्यक्ष की आपत्ति नहीं दी जा सकती। कार्याधिकरणविधया अभिमत पदार्थ में कारणतावच्छेदक सम्बन्ध से सभी कारण के रहने पर ही कार्योत्पत्ति का आपादन किया जा सकता है। क्या तादात्म्य सम्बन्ध से तंतुशुन्य कपाल में पटोत्पत्ति का आपादन किया जा सकता है । यहाँ यह शंका करना कि -> 'स्वसंयुक्तसमवाय की अपेक्षा स्वसंयुक्तत्वाचविशिष्टानुयोगिक समवाय को द्रव्यान्य-द्रव्यसमवेतगोचर स्पार्शन प्रत्यक्ष का कारणतावच्छेदक सम्बन्ध मानने में गौरव है' -भी नामुनासिब है। इसका कारण यह है कि स्वसंयुक्त-वाचविशिष्ट-द्रव्यानुयोगिक समवाय को तादृशकारणताअवच्छेदक सम्बन्ध मानने पर महत्व और उद्भूत स्पर्श में द्रव्यान्य-द्रव्यसमवेतविपयकस्पार्शनप्रत्यक्ष की कारणता की कल्पना अनावश्यक बन जाने से कारणशरीर में लाघव होता है, कारणतावच्छेदक-धर्मदेह में लायब होता है। निष्कर्ष :- त्रसरेणुस्पर्श के अस्पार्शन का निर्वाह होने से उद्भूत नील रूप में उद्धृत स्पर्श की व्याप्ति अबाधित है। * स्वातप्रत्यक्ष में समवाय की विशेषणता या उपलक्षणता नामुमकिन - स्यादादी *
तन्न. इनि । उपर्युक्त विद्वानों के मत का प्रतिकार करते हुए प्रकरणकार श्रीमद्जी कहते हैं, नैयायिक मनीपियों का यह कथन कि • 'स्पर्शनेन्द्रिय स्वसंयुक्तत्वाचविशिष्ट समवाय सम्बन्ध से द्रव्यान्य-द्रव्यसमवेतविषयक स्पार्शन प्रत्यक्ष का कारण है' - असंगत है। इसका कारण यह है कि त्याच प्रत्यक्ष दर्शित सम्बन्ध का न तो विशेषण हो सकता है और न तो उपलक्षण । व्यावर्तक धर्म या तो विशेषण होता है, या तो उपलक्षण । सामान्यतः विशेष्य की अन्य से ज्यावृत्ति करने के समय जो नियमतः विशेष्य में विद्यमान रहता हो वह विशेषण कहा जा सकता है। जैसे 'दण्डी पुरुषः' यहाँ अदण्डी से विवक्षित पुरुप की ब्यावृत्ति + व्यवच्छेद करने के समय पर दण्ड पुरुष में अवश्य रहने से वह पुरुप का विशेषण होता है। अतः प्रस्तुत में त्याच प्रत्यक्ष को समवाय का विशेपण मानने का मतलब यह होता है कि द्रव्यान्य-द्रव्यसमवेतस्पर्शादिविषयक स्पानि प्रत्यक्षात्मक कार्य का जन्म होने की पूर्व क्षण में व्यस्पर्श में स्वसंयुक्त-स्वाचविशिष्टानुयोगिक समवाय सम्बन्ध से = = = = = = = = = = = = =