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३३०९ मध्यमस्यावादरहस्ये खण्डः २ . का.५ * मुक्तावली-मञ्जूषा-प्रभाकारमतनिराकरणम् * || 'द्रव्याऽन्य-द्रव्यसमवेतस्पार्शनजनकतावच्छेदकीभूतप्रकर्षवन्महत्त्वाऽभावाभायं दोष' इति । चेत् ? न, तादृशप्रकर्षस्यैकत्वेऽपि कल्पयितुं शक्यत्वेन विनिगमनाविरहात् ।
----..-..........= =* जयलता * स्पार्शनप्रत्यक्षोदयाऽऽपत्तेः । तस्योद्भुतत्वेन योग्यत्वादयश्यमुपलब्धिः स्यात् । न चैवमस्ति । प्रमाणाऽविषयस्याऽप्यभ्युपगमेऽतिप्रसङ्गात् । इत्यञ्च नीलबसरेणुस्पर्शाऽस्पार्शनाऽन्यधानुपपत्त्या तत्रोद्भूतरपश्भिावसिद्धेः पारिदोषन्यायात् अनुभूतस्पर्शपरिकल्पनम् । त्रसरेणुस्पर्शस्याऽनुभूतत्वेऽपि तज्जन्यचतुरणुकस्पर्शस्योद्भूतत्वेनोद्भुतस्पर्शस्याऽनुभूतस्पर्शजन्यत्वमव्याहतम् । अनेन -> 'अदृश्यस्य दृश्याऽनुपादानत्वात्, अन्यथा चक्षुरुष्मादिसन्ततः कदाचित् दृश्यत्वप्रसङ्गात्' - (मुक्ता.३७ पृ.२४५) इति मुक्तावलीकारवचनं प्रतिक्षिप्तम्, तेजोलेझ्यादिलब्धिमतः चक्षुरुष्मादिसन्ततेर्दृश्यत्वाऽभ्युपगमेनेष्टापत्तेः नव्यनैयायिकैरपि चक्षुरादिध्वनुद्भूतस्पर्शानभ्युपगमाच । एतेन 'तैलान्तर्गतरदृश्यदनावयवेरेव स्थूलदहनोत्पत्तिस्वीकार स्थूलदहमेऽप्यनुद्भूतरूपापत्त्या तत्प्रत्यक्षरय दुरुपपादत्वाऽऽपातादि' (मु.म.पृ.२८६)ति मुक्तावलीमञ्जूषाकारवचनमपि निराकृतम् । एवञ्च नीलत्रसरेणाबुद्भूतनीलरूपरलोभूतपय गारान्ह तो
भूतस्पर्शाभावः बाधक इति समाधानाशयः । ननु नीलसरेणोरुभूतस्पवित्वेऽपि स्पार्शनकारणीभूतमहत्त्वविशेषविरहान्न तत्स्पर्शस्पार्शनप्रसङ्ग इत्याशयेन गौतमीयादिः शङ्कने - द्रव्याऽन्य-द्रव्यसमवेतस्पार्शनजनकताऽवच्छेदकीभूतप्रकर्षचन्महत्त्वाऽभावात् = द्रन्यान्यत्वे सति यो द्रव्यसमवेतः तद्गोचरस्पार्शनप्रत्यक्षस्य कारणतावच्छेदकीभूतो यः प्रकर्षः तद्विशिष्टमहत्त्वस्य नीलत्रसरेणी विरहात्, नाऽयं = न बसरेणुसमवेतस्पर्शस्पार्शनप्रसङ्गलक्षणः दोपः । अयं भावः त्रसरेणुस्पर्शः द्रव्यान्यो द्रव्यसमवेतश्च । द्रन्यान्यत्वविशिष्टद्रव्यसमवेतस्पार्शनप्रत्यक्षं प्रति महत्त्वस्य कारणत्वम् । न च महत्त्वस्य त्रसरेणुसमवेत्तत्वन तत्पर्शस्पार्शनं दुर्निवारम्, तदुक्तं मुक्तावलीप्रभाकृता 'त्रसरेणुमहत्त्वस्य नित्यत्वस्वीकारादि' (मु.प्र.पृ.२०४) ति वक्तव्यम्, महत्त्वस्य तब समवेतत्वेः पि द्रव्याऽन्यत्वविशिष्टद्रव्यसमवेतस्पार्शनकारणताचच्छेदकीभूतप्रकर्षशून्यत्वेन तत्स्पर्शस्पार्शना नापत्तेः । अत एवोद्भूतनीलरूपस्योद्भूतस्पर्शव्याप्यत्वा बाधेन तमस उद्भूतनीलरूपवत्त्वे तत्स्पार्शनं स्याद्वादिनये दुर्निवारम् । न चैवं भवति । अतो 'नीलं तम' इति प्रतीतेन्तित्वाद् रूपवत्त्वस्य स्वरूपाऽसिद्भिग्रस्तत्वम् । अतो न तमसो द्रव्यत्वं सङ्गतिमङ्गतीति नैयायिकाद्यभिप्रायः ।
स्याद्बादी तन्निराकरोति- नेति । तादृशप्रकर्पस्य = द्रव्याऽन्यत्वविशिष्टद्रव्यसमवेतस्पार्शनजनकतावच्छेदकीभूतप्रकर्षस्य, एकत्वेऽपि = एकत्वसंख्यायामपि कल्पयितुं शक्यत्वेन विनिगमनाविरहात् । तादृशप्रकर्षः किं महत्त्वे यदुत एकत्वे ?
होता है, जिसका हमें स्पर्श हो सकता है । अतः यदि उसमें अद्भुत स्पर्श होगा, तब तो उसका स्पार्शन प्रत्यक्ष अवश्य होगा, क्योंकि उद्भुत स्पर्श स्पर्शनेन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष का विषय होता है। मगर सरेणु के स्पर्श का स्पार्शन प्रत्यक्ष तो नैयायिक आदि को भी अमान्य है एवं अनुभवविरुद्ध है । अतः त्रसरेणु में उद्भूत स्पर्श नहीं माना जा सकता । अतः नीलद्रव्य के त्रसरेणु के उद्भुत नील रूप में उद्भूत स्पर्श का व्यभिचार दुर्निवार है । इसलिए उद्भूत नील रूप में उद्भूत स्पर्श की न्याप्ति न होने से उद्धृत नील रूप से उद्भुत स्पर्श की आपत्ति का कोई भय नहीं है। अत: बाधक न होने से अन्धकार में नील . रूप सिद्ध होता है और इसलिये रूप से अन्धकार में व्यत्व की अनुमिति करने में कोई बाधा नहीं है । अतः अन्धकार द्रव्यात्मक सिद्ध होता है, न कि आलोकान्यन्ताभावस्वरूप ।
महत्त्वविशेष के अभाव से प्रसरेणुस्पर्शप्रत्यक्षविरह अनुपपन्य - स्यादादी ट्रव्यान्य. इति । यदि नैयायिक आदि मनीषियों की ओर से यह कहा जाय कि --> "त्रसरेणु | उद्भूत स्पर्श होने पर भी विजातीय महत्व न होने की वजह त्रसरेणु के स्पर्श का स्पार्शन प्रत्यक्ष नहीं होता है । आशय यह है कि जो द्रव्य से भिन्न होता है एवं द्रव्य में समवेत होता है, उसका स्पार्शन प्रत्यक्ष होने में महत्त्वविशेष कारण होता है और कारणतावच्छेदक धर्म प्रकर्ष होता है । त्रसरेणु में महत्त्व होने पर भी तादृश प्रकर्पविशिष्ट महत्त्व न होने की वजह त्रसरेणुसमवेत्तस्पर्शविषयक स्पार्शन की आपत्ति नहीं दी जा सकती । कारणतावच्छेदकधर्मविशिष्ट कारण के न रहने पर कार्य का आपादन नहीं किया जा सकता । इस तरह नील त्रसरेणु का स्पर्श उद्भूत होने पर भी सरेणुस्पर्शप्रत्यक्ष का आपादन अयुक्त होने से उत्कट नील रूप उद्भुत स्पर्श का अव्यभिचारी सिद्ध होता है । अतएव अन्धकार में उद्धत नील रूप मानने पर उद्भूतस्पर्शाऽभाव बाधक बनेगा। इसलिए अन्धकार को द्रव्य नहीं माना जा सकता" - तो यह नैयायिककथन नामुनासिब है । इसका कारण यह है कि नाइश कारणताअवच्छेदक धर्म के आश्रय के रूप में महत्त्व का अंगीकार किया जाय या एकत्व संख्या का ?