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* शक्तेरवश्यकल्पनीयत्वम् * न चैवं लक्षणाधुच्छेदः; नियन्त्रितसङ्केताऽसम्भवे तदवकाशात् । न च घटत्व-पटत्वादिना शक्तिकल्पने गौरवम् प्रमेयत्वेनैव तत्कल्पमात, तत्तदधर्मण बोधस्य सङ्केतविशेषनियम्यत्वात् ।
* जयलता - नन्चेकया वृत्त्यैकपदस्याऽनेकार्थबोधकत्ये तु गतं लक्षणया; पदशक्त्या एवाभिमतार्थबोधसिद्धेरिति शङ्कामपनोदयितुमाह- न चेति । एवं = एकया शक्त्याऽप्येकपदस्याऽनेकार्थबोधकत्वसम्भवे । लक्षणाद्यच्छेदः इति | आदिशब्देन व्यञ्जनापरिग्रहः । तदनुच्छेदे हेतुमाह- नियन्त्रितसकेताऽसम्भव = कोशादिनियमितसङ्केतविरहे, तदवकाशात् = लक्षणाद्यात्मलाभसम्भवात् । यथा गङ्गापदस्य जलप्रवाहविशेषे को शादिना सङ्केते कृते ततः तत्तीरे सङ्केताऽसम्भवे गङ्गाधदस्य गङ्गातीरे लक्षणा तात्पर्यानुपपत्त्यादितः सम्भवति ।
नन्वेकपदस्यकया शक्त्या नानार्थबोधकत्वे घटत्ववत् पटत्व -कटत्वादावपि बटपदशक्यतावच्छेदकत्वकल्पनागौरवमतिरिव्ये - तेति शङ्कामपहस्तयितुमाह- न चेति । घटत्व-पटत्वादिना शक्तिकल्पने = घटत्व-पटत्वाद्यवच्छिन्नाया घटपदशक्त्याः कल्पने, गौरवं = शक्यतावच्छेदकत्वगौरवम् । तदपोहे हेतुमाह - प्रमेयत्वेनैवेति । एवकारेण प्रमेयत्वव्याप्यघटत्व-पटत्वादेयवच्छेदः कृतः । तत्कल्पनात् = घटपदशक्तिकल्पनात् । प्रमेयत्वस्यैव प्रत्येकपदशक्यतावच्छेदकत्वे तु घटपदात् घटत्ववत् पटत्वादिनाऽपि शाब्दबोधस्य दुर्निवारत्वम्, प्रमेयत्वत्र्याप्यत्वाऽविशेषादित्याशङ्कायामाह- तत्तद्धर्मेण बोधस्य = प्रातिस्विकधर्मावच्छिन्नप्रकारताकशान्दबोधस्य, सङ्केतविशेषनियम्यत्वात् = तत्तत्सङ्केतनियन्त्रितत्वात् । एतेनेकशब्दस्याइनेकार्थप्रतिपादने शक्तिसद्भावे एकस्मादपि || पदात् समसमयं नानार्थप्रतीतिप्रसक्तेः प्रतिनियते वस्तुनि प्रवृत्तिन प्राप्नोतीति प्रत्याख्यातम, शब्दस्याग्नेकार्धप्रतिपादने नैसर्गिकशक्तिसद्भावेऽपि प्रतिनियतसङ्केतसामर्थ्यात् प्रतिनियतार्थप्रतिपादकत्वोपपत्तेः । अनुभूयते हि एकस्यापि पदस्य देशादिभेदेन प्रतिनियतः सङ्केतः । यधा गूर्जरादौ चौरशब्दस्य तस्कर द्रविडादौ पुनरोदन इति । दृश्यते च सर्वत्र रूपप्रकाशने योग्य - स्याऽपि चक्षुषः प्रत्यासन्नतिमिरवशादसन्निहिते दूरतिमिरसामर्थ्याच्च सन्निहिते रूपे विशिष्टाऽअनादिवशादन्धकारान्तरितेऽपि काचकामलादिदूषणबलाच्च विवक्षितरूपाऽभावेऽपि ज्ञानजनकत्वम् । ततो यथाऽनेकरूपप्रकाशनयोग्यस्यापि चक्षुषो दूरतिमिरादिप्रतिनियतसन्निहितरूपादिविज्ञानजनकत्वं तधाइनेकार्थप्रतिपादनयोग्यस्याऽपि झाब्दस्य प्रतिनियतपदार्थप्रतिपादकत्वं सङ्केतसा
Kाणा का अवकाश - स्याद्धादी न च ल. इति । यहाँ यह शंका हो सकती है कि -> "एक ही शब्द में अनेक अर्थ का प्रतिपादन करने वाली शक्ति मानने पर तो लक्षणादि का उन्नछेद ही हो जायेगा । वह इस तरह 'गंगायां घोपः' यहाँ गंगापद में जैसे जलप्रवाहविशेष की प्रतिपादक शक्ति है, ठीक वैसे ही गंगानदीतट की बोधक शक्ति भी रहती है - ऐसा मानने पर तो गंगातट भी गंगापद का शक्यार्थ बन जायेगा । इस तरह गंगापद से गंगातट का बोध गंगापद की शक्ति से ही हो जाता है तब तो लक्षणा का आश्रय करना जरूरी नहीं है । लक्षणा का अवकाश तब हो सकता है जब कि शक्यार्थ का अवलंबन करने पर अन्वय की या तात्पर्य की अनुपपत्ति हो । मगर एक शब्द में सर्वार्थप्रतिपादक शक्ति मानने पर तो लक्षणा के बिना भी वक्ता के अभिमत अर्थ का पदशक्ति से बोध हो सकता है । अतः 'सर्वे शब्दाः सर्वार्थवाचकाः' इस न्याय को मान्यता देने पर तो लक्षणा का उच्छेद ही हो जायेगा" - मगर इसका समाधान यह है कि प्रत्येक पद में सर्वार्थप्रतिपादक शक्ति होने पर भी श्रोता विवक्षित पद में जिस संकेत का ग्रहण करेगा उसी अर्थ का पदशक्ति से बांध होता है। जब विवक्षित शब्द में कोशादि से नियन्त्रित संकेत का असंभव होता है, तब लक्षणा का भी अवकाश है। जैसे 'मंगायां घोपः' यहाँ गंगापद का संकेत, जो कोशादि से नियन्त्रित है, जलप्रवाहतर में असंभव है। अतएव गंगापद की गंगातट में लक्षणा का अवकाश है। यहाँ यह शंका हो कि -> "एक पद की शक्ति सब अर्थ में मानने पर तो शक्यतारच्छेदक धर्म में गौरव होगा । वह इस तरह . घटपट की शक्ति घट, पट आदि अनेक अर्थ में मानने पर शक्यतावच्छेदक घटत्व, पटत्व आदि अनेक धर्म बनेंगे, न कि केवल घटत्व । अतः अनेक धर्म में शक्यतावच्छेदकता की कल्पना का गौरव होमा" - तो यह ठीक नहीं है। इसका कारण यह है कि घटपद की शक्ति सब अर्थ में रहने पर भी घटपदशक्यतावच्छेदकता तो प्रमेयत्वावच्छेदेन ही मानी गई है। प्रमेयत्वावच्छेदेन घटपद की शक्ति मानने पर भी घटपटजन्य शाब्दबोध प्रमेयत्वरूप से अवच्छिन्न प्रकारता का अवगाहन नहीं करता है, किन्तु संचविशेष से नियन्त्रित धर्म विशेष से अवच्छित्र प्रकारता का ही अवगाइन करता है। अतएव प्रवृत्ति आदि की अनुपपत्ति को भी अवकाश नहीं है, क्योंकि संकेतविशेप की वजह नियतरूप से अर्थ विशेष का