________________
२९७ मध्यमस्यावादरहस्ये खण्डः २ . का.५ * अष्टसहस्रीकारमतनिकन्दनम् * | इति । एकपदमेकया वृत्त्या एकमेवाऽर्थ बोधयतीति 'सकृदुच्चरिते'त्याद्यर्थ इति तु न युक्तम्, 'सर्वे सर्वार्थवाचका' इत्यभ्युपगमेनैकया शक्त्याऽप्येकपदस्याऽनेकार्थबोधकत्वात् ।
____* जयलता * । त्युभयतात्पर्यग्रहे सति 'श्वेतवर्णः कुकुर इतो धावती'त्युभयविषयकशाब्दबोधस्य युगपदनुदयनिर्वाह. प्रदर्शितनियमस्याऽऽवश्यकत्वम्, अन्यथा हरिपदादुपस्थितयोः सिंहकृष्णयोराधाराधेयभावसम्बन्धेनाऽन्वयबोधप्रसङ्गादिति । एतेन वेदाऽपौरुषेयकल्पनाऽपि प्रत्युक्ता, तात्पर्यज्ञानस्याऽन्चयव्यतिरेकाभ्यां शाब्दबोधहेतुत्वनिश्चयादिति तात्पर्यम् ।
विद्यानन्दमतमपाकर्तुमुपदर्शयति - एकपदमिति । एकया वृत्त्या = शक्त्या एकमेवार्थं बोधयति = शाब्दबोधविषयीकरोति, इति = एवंप्रकारः, 'सकृदुचरिते त्याद्यर्थः = 'सकृदुचरितं पदं सकृदेवाऽर्थं गमयती ति न्यायाधः, इति मतं तु न युक्तम् । तदुक्तमष्ट सहस्त्रां -> 'शब्दशक्तिस्वाभाव्यात्, सर्वस्य पदल्यैकपदार्थविषयत्वप्रसिद्धेः, सदिति पदस्याऽसदविषयत्वात्, असदिति पदस्य च सदविषयत्वादिति' - (अ.स.पृ.१९७/१)। एतदनुवादरूपेण तद्विवरणे प्रकृतप्रकरणकृद्भिरपि 'एकं पदमेकया वृत्त्या एकमेवार्थं बोधयतीति स्वभावकल्पनादिति' (अ.स.वि.पृ. २०१/१) विवृतम् । एतन्मतायुक्तत्वमाविष्करोति - 'सर्वे सर्वार्थवाचकाः, सति तात्पर्य इति शेपः । इत्यभ्युपगमेन = इतिनियमाऽङ्गीकारेण, एकया एव शक्त्या = पदशक्त्या, अपि एकपदस्य अनेकार्थबोधकत्वात् = नानाविषयविषयकशाब्दबोधजनकत्वात् । 'सति तात्पर्ये सर्वे शब्दाः सर्वार्थवाचकाः' इतिन्यायेन प्रतिशब्दं सर्वार्थनितारनशक्तियोगताना ले। अब एक प्रत्येकः शब्दः सर्वदा एकौन शक्त्या नानार्थबोधजनको न तु भिन्नशक्त्येति सिद्रेः एकं पदं एकया शक्त्या एकमेवाऽर्थं बोधयतीति वक्तुं न पार्यते किन्तु यधासङ्केतमनेकानर्थानपीति भावः ।
से सहकारी कारण मानने पर कारणताअवच्छेदक तात्पर्यज्ञानजनकत्व धर्म होगा । जब कि तात्पर्यज्ञान को ही सहकारी कारण मानने पर तात्पर्यज्ञानत्व कारणताअवच्छेदक धर्म होगा । अतः प्रकरण आदि की अपेक्षा तात्पर्यज्ञान को पदशक्ति का सहकारी मानने में कारणतावच्छेदक धर्म में लाघव है। इस तरह तात्पर्यज्ञान को ही पदशक्ति का सहकारी मानना आवश्यक है, तर एक काल में उभय वस्तुविषयक एक पद का तात्पर्य होने पर एक पद से एक काल में उभयविपयक झाब्द बोध प्रसक्त होता है, जिसका निवारण करने के लिए यानी उसके अप्रामाण्य का निर्वाह करने के लिए 'सकदचरित...' न्याय को मान्यता प्रदान करना आवश्यक है। जैसे, 'वेतो धावति' इस वाक्य के घटक 'श्वेतो' पद 'श्वेतवर्णविशिष्ट का एवं श्वा = कुकुर, इतः = यहाँ से ऐसा उभयविषयक बोध के तात्पर्य से प्रयुक्त है . ऐसा उभयविषयक नात्पर्य का ज्ञान होने पर 'श्वेतवर्णविशिष्ट कुकुकुर (कुत्ता) यहाँ से दौडता है। ऐसे शाब्द बोध की अस्वाभाविकता - अप्रामाण्य के लिए 'सकृदुहरित...' न्याय आवश्यक है, जो 'एक पद एक काल में वाक्यतावच्छेदकतावच्छेदकीभूत सम्बन्ध से अवच्छिन एकधर्मनिष्ठ प्रकारता से निरूपित रिशेप्यता के अवगाही शान्द बोध का जनक है' इस नियम का विधान करता है। अब श्वेतत्व और कुकुरत्व, इन दो धर्म से निरूपित विशेष्यता के अवगाही तादृश शाब्द बोध की अप्रामाणिकता सिद्ध हो सकती है । अतः 'सदचरितं पदं सकृदेवाऽर्थ गमयति' यह न्याय प्रामाणिक है . यह निर्विवाद सिद्ध होता है।
'सर्वे सार्थिवाचकाः' प्रवाद का स्यादाद में स्वीकार एकप. इति । अन्य विद्वान् मनीषिओं की यह मान्यता है कि -> 'सकदचरित...' इस न्याय का फलितार्थ यह है कि एक पद एक शक्ति से एक ही अर्थ का बोध करता है, न कि अनेक अर्थ का' - मगर यह ठीक नहीं है। इसका कारण यह है कि 'सर्वे शब्दाः सर्वार्धवाचकाः सति तात्पर्य' यह न्याय स्थाद्वादमत में स्वीकृत है । मतलब कि प्रत्येक पद सभी अर्थ का बोध कराता है। इससे यह सिद्ध होता है कि एक पद एक शक्ति से भी अनेक अर्थ का बोध करा सकता है। जैसे चौर शब्द से गुजरात में चोरी करने वाले का बोध होना है, मगर उसीसे दक्षिणदेश में (कालविशेप की अपेक्षा) पके चावल का बोध होता है। अभी तामिलनाडु में सोरहाब्द पश्य चावल का बोध कराता है। मालूम होता है कि चीरशब्द का तामिल भाषा में अपभ्रंश होकर सोर शब्द बना हो । हिन्दी भाषा में भी यह प्रसिद्ध है। जैसे 'और आगे बढो', राम
और सीता' इत्यादि स्थल में और शब्द से क्रमशः 'अधिक' एवं 'समुच्चय'. इन दो अर्थ का बोध होता है । एक ही शब्द एक शक्ति से अनेक अर्थ का शान्द बोध कराता है - इस विषय में अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं। इसलिए 'एक शब्द एक शक्ति से एक ही अर्थ का बोध कराता है - ऐसा मानना असंगत है । हाँ, एक शक्ति से एक पद एक काल में अनेक अर्थ का बोध नहीं करा सकता है । इसीलिए तो 'सकृदुश्चरित...' न्याय का आश्रय करना जरूरी है।