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३०१ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ - का... * प्रमाणनयतत्त्वालोकालझारसूत्रोपयोगः * । उत्पत्ती प्रदीपादेवश्यं विपत्तेस्तस्य प्रदीपादिध्वंसरूपस्याऽभ्युपगमादिति चेत् ? न, | भावाऽभावकरम्बितेकवस्तुनः परैरतभ्युपगमात् ।
तेजसोऽतिनिवृत्तिरूपता, स्वीकृता तमसि या कणाशिना । द्रव्यतां वयममी समीक्षिणस्तर परमवलम्ब्य चक्ष्महे ॥9॥
* गया - प्रदीपपरिणामत्वाऽभ्युपगमेऽपि नैयायिकादिमतप्रवेशः स्यादेवेत्यर्थः । अत्रैव हेतुमाह- तमसः उत्पत्ती प्रदीपादेरवश्यं विपनेरिति । अवश्यमन्धकारोत्पत्तिप्रयोज्यप्रदीपानुपलब्धेरिति । ततः किम् ?' इत्याशङ्कायां परः प्राह- तस्य = अन्धकारस्य, प्रदीपादिध्वंसरूपस्याऽभ्युपगमादिति । स्याद्वादिना त्वयेति शेषः । अयं पराशयः, 'यदुत्पत्तो कार्यस्याऽवश्यं विपत्तिः सोऽस्य प्रध्वंसाभावः' (प्र.न,त. ३५७) इति सूत्रेणाऽन्धकारोत्पत्ती निग्रमतो विद्यमानस्य प्रदीपस्य प्रध्वंसाभावः तमः इति सिध्यति । एवं स्याद्वादिसिद्धान्तेनाऽपि तमसो भावरूपता सिद्धयति । तस्याभावात्मकत्वे सिद्धे ध्रुवो नैयायिकादिमतप्रवेशः स्याद्वादिनः; परेणान्धकारय तेजोऽभावरूपताऽङ्गीकारादिति तन्निरासकृते प्रदीपादेरे कान्ताऽनित्यत्वमेव श्रेयः स्याद्वादिनोऽ पीतो व्याघ्र इतस्तटी' ति न्यायादिति ।
स्याद्वादी तत्पत्याचष्टे- नेति । यथा कपालस्य घटध्वसत्वेन रूपेणा भावात्मकत्वेऽपि द्रव्यत्व-पृथ्वीत्वादिना भावात्मकताबाधिता तथैव तमसः प्रदीपध्वंसत्वेन रूपेणाभावात्मकत्वेऽपि द्रव्यवादिना भावात्मकता बाधितवेति तमसोऽपि भावाभावोभयात्मकत्वमच्याहतम् । न चैवं परैः स्वीक्रियते । अत एव नाइन्यमतप्रवेशप्रसङ्ग इत्याशयेनाऽऽह- भावाऽभावकरम्बितकवस्तुनः = भावान विद्धाभावलक्षणवस्तमात्रस्य, परैः = नैयायिक-कणादादिभिः अनभ्युपगमादिति । ततः प्रदीपादेः द्रव्यात्मना स्थिरत्वोपगमेऽपि न परमतप्रवेश इति सिद्धम् ।
ननु तमसस्तेजोऽभावरूपताङ्गीकारेणैवोपपत्नी द्रव्यान्तरकल्पनाया अनुचितत्वात, गौरवात्, प्रमाणाभावात् । तस्य द्रव्यत्वाऽसिद्धी कुतः तद्व्यापकं नित्यत्वं प्रदीपादेः सिद्भिसाधमध्यास्ते : इति पराशङ्का पञनाऽपहस्तयति- तेजस इति । तद्व्याख्यालेशस्त्वेवम् - कणाशिना = कणादेन वैशेषिकदर्शनप्रणेत्रा तमसि = अन्धकारे या तेजसः द्रव्यस्य अतिनिवृत्तिरूपता = संसर्गाभावात्मकता स्वीकृता तत्र -- तमसि द्रव्यतां = द्रव्यान्तरत्वं समीक्षिणः अमी वयं = स्याद्वादिनः पत्रं
वैसे ही 'प्रदीप का परिणाम अन्धकार है' ऐसे कहने-मानने पर अन्धकार भी द्रव्यात्मक हो जायेगा । अतः अन्धकाररूप से दीप का परिणमन मानना युक्तिसह नहीं है।" - तो यह ठीक नहीं है क्योंकि स्याद्वादियों ने अन्धकार को तेजाऽभावात्मक नहीं माना है, किन्तु द्रव्यात्मक भावस्वरूप माना है। अतः अन्धकार में द्रव्यत्व का आपादन वस्तुतः अनिष्ट आपत्तिरूप नहीं है, किन्तु इष्टापत्तिस्वरूप ही है। यहाँ यह कहा जाय कि → “अन्धकार को द्रव्यस्वरूप मानने पर भी नैयायिक आदि मनीषियों के मत में स्याद्वादी का प्रवेश हो जायेगा । इसका कारण यह है कि पूर्व में (प्रधम कारिका की व्याख्या के प्रारंभिक ध्वंसस्वरूपविचार के अवसर पर) स्याद्वादी की ओर से यह कहा गया था कि - "जिसकी उत्पत्ति से 'जिसकी अवश्य अनुपलब्धि प्रयोज्य हो वह उसका श्वंस है, जैसे कपाल की उत्पत्ति से घट की अवश्य अनुपलब्धि प्रयोज्य होने से कपालोत्पाद ही घटध्वंस है। : वैसे यहाँ अन्धकार की उत्पत्ति होने पर प्रदीप का अवश्य विनाश होता है। अर्थात प्रदीप की अनुपलब्धि अन्धकारोत्पाद से प्रयोज्य होती है। अतः अन्धकार प्रदीपवंसस्वरूप ही सिद्ध होगा । जस अभाव का ही एक प्रभेद होने से अन्धकार अभावात्मक सिद्ध होता है" (-तो यह मुनासिब नहीं है। इसका कारण यह है कि अन्धकार प्रदीपध्वंसत्वरूप से अभावात्मक होने पर भी द्रव्यत्वरूप से भारात्मक है । यह ठीक उस तरह संगत हो सकता है, जैसे कि कपाल घटध्वंसत्त्वरूप से अभावात्मक होने पर भी द्रव्यत्व-मृत्त्वरूप से भावात्मक भी है । इस तरह अन्धकार को भावाऽभावोभयात्मक मानने से नैयायिक आदि परवादी के मत में प्रवेश की आपत्ति नहीं होगी, क्योंकि वे वस्तु को भाव-अभाव उभयात्मक नहीं मानते हैं। अतः प्रदीप को भास्वर पर्यायरूप से अनित्य एवं द्रव्यत्वरूप से नित्य मानना ही संगत प्रतीत होता है।
अ अन्धकार भावरूप नहीं है - एतादी तेजसा, इति । यहाँ महामहोपाध्यायजी का कहना है कि कणाद ने जिस अन्धकार को अत्यन्तामावस्वरूप माना है,
१. देखिये, पृ.१४