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२८५ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ का ५ * 'सकृदुचरित.....' न्यायनिष्कर्षः
एकपदस्यैकस्मिन् काले एकसम्बन्धावचिनैक धर्मप्रकारतानिरूपितविशेष्यताशालिबोधोपधायकत्वमिति तु निष्कर्ष:, तेन नैकपदस्य वस्तुतो नानाधर्मावच्छिन्नार्थबोधकत्वेऽपि क्षतिः । एकोच्चारणान्तर्भावेन शक्तिमत्पदारिक्तस्थले चायं नियम:, तेन न पुष्पदन्तपदादे* गयलता है
एकपदस्येति । एतेन पृथगुचरितनानापदानां व्यवच्छेदः कृतः । एकस्मिन् काले इति । अनेन विभिन्नकालव्यवच्छेदः कृतः । एकसम्बन्धावच्छिन्नेकधर्मप्रकारतानिरूपितविशेष्यताशालिबोधोपधायकत्वं = एकसंसर्गेणाऽवच्छिन्ना या एकधर्मनिष्ठा प्रकारता तनिष्ठनिरूपकतानिरूपिताया विशेष्यताया अवगाही गृहीतशक्तिकपुरुषनिष्ठो यः शाब्दबोधः तदुत्पत्तिव्याप्यत्वम् । व्याप्यता।।बच्छेदकसम्बन्धश्च स्वाऽव्यवहितोत्तरजायमानत्वम् । यथा 'घट' इति पदोश्वारानन्तरोत्तरक्षणे घटपदशक्यतावच्छेदकतावच्छेदकीभूतसमवायसम्बन्धावच्छिन्नया घटत्वलक्षणैकधर्मनिष्ठया प्रकारतया निरूपिताया: तादात्म्यसम्बन्धावच्छिन्नाया विशेष्यताया अवगाहिनः शाब्दबोधस्थावश्यं जायमानत्वेन घटपदस्य स्वाऽव्यवहितीत्तरजायमानत्वसंसर्गेण तादृशशाब्दबोधोदयव्याप्यत्वम् । तत्फलमाहतेनेति । 'सकुदुच्चरिते' त्यादिन्यायस्योक्तार्धकत्वेनेति । न क्षतिरित्यन्वयः । एकपदस्य - पटादिलक्षणस्य वस्तुतः युगपत् नानाधर्मावच्छिन्नार्थबोधकत्वेऽपि = अनेकधर्मविशिष्टविषयकबोधजननेऽपीति । अयमभिप्रायः वस्तुगतिमनुरुध्य सर्वस्य वस्तुनोऽनन्तधर्मात्मकत्वमेवेति स्याद्वादिदर्शने एकस्मादपि घटपदान्नानाधर्मावच्छिन्नवस्त्ववबोधो जायते तथापि न प्रकृतन्यायभङ्गप्रसङ्गः, घटपदजन्यशाब्दबोधविशेष्यस्याऽनन्तधर्मात्मकत्वेऽपि तन्निष्ठविशेष्यतानिरूपितप्रकारताया घटत्वस्वरूपैकधर्मनिष्ठाया अनेकसंसगांवच्छिन्नत्वविरहात् । वस्तुनोऽनन्तधर्मात्मकत्वेऽपि एकस्मात् घटादिपदात् प्रातिस्विकरूपेणैव तद्बोधो, न तु नानाविधरूपेणेति भावः । एतेन शङ्कादिदोषा अपि परिहता भवन्ति ।
ननु पुष्पदन्तादाद् युगपत् सूर्यत्वचन्द्रत्वाभ्यामुभयोबंधन प्रकृतन्यायोऽसार्वत्रिक इत्याशङ्कायामपवादमाहएकीचारणान्तर्भावेन शक्तिमत्पदातिरिक्तस्थले चाऽयं दर्शितो नियमः बोध्यः । अयं भावः पदं द्विविधं समस्तमसमस्तं च । तत्र समस्तपदे एको चारान्तर्भाविनैव शक्तिः यथा 'रामलक्ष्मणौ' इति सहोच्चारे सत्येव रामलक्ष्मणोभये तच्छक्तिः । न 'हि 'राम' इति पृथगुचारे सति तदुभये शक्तिर्भवति । असमस्तपदे तु स्वातन्त्र्येणैव शक्तिः, न तु सहोचारणान्तर्भावेन । दर्शितनियम एको चारणान्तर्भाविन शक्तिमति पदे नास्ति । ततस्तत्रैकदैकसम्बन्धावच्छिन्नैकधर्मनिष्ठप्रकारतानिरूपितविशेष्यताशालिचोप्रादुर्भवेऽपि नायं नियमो भग्नः, तादृशनियममर्यादाबहिर्भूतत्वात्तस्येत्याशयेनाऽऽह तेनेति । दर्शितनियमस्यैकोक्त्य
'सकृदुष्परित..' न्याय का निष्कर्ष
एकपदस्यै. इनि । यहाँ तक के विचारविमर्श से ' सकृदन्तरितं पदं सकृद्देवाऽर्थं गमयति' न्याय का ऐदम्पर्य यह फलित होता है कि एक पद एक काल में एकसंसर्गाविच्छिन जो एक धर्मनिष्ठ प्रकारता, उससे निरूपित विशेष्यता के अवगाही शाब्दबोध का उपधायक = जनक है । एक पद में तादृशशाब्दबोधोपधायकत्व का अर्थ है एक पद स्वाऽव्यवहितोत्तरजायमानत्व संबन्ध से तादृशशाब्दबोधोत्पत्ति का व्याप्य है। मतलब कि एक पद के उच्चारण के अव्यवहित उत्तर क्षण में अवश्य तादृश शाब्दबोध का जन्म होता है । 'सकृदुचरित' न्याय का यह गूढार्थ होने की वजह यहाँ यह कहा जाय कि वस्तुमात्र अनन्त धर्मात्मक होने से एक पद से जिस वस्तु का बोध होगा वह भी अनन्त धर्मात्मक ही होगी । अतः एक पद से भी अनन्तधर्मावच्छिन्न अर्थ का ही बोध होगा । इसलिए एक पद से अनेकधर्मावच्छिन्न धर्मों का बोध हो सकता है - तो भी कोई दोष नहीं है । इसका कारण यह है कि एक पद से एक धर्म के पुरस्कार से ही अनेकधर्मावच्छिन्न धर्म का बोध होता है, न कि अनेक धर्म के पुरस्कार से । अनंतधर्मावच्छिन घट का ही घटपद से शाब्दबोध होता है, मगर वह घटत्वरूप धर्म से ही होता है, न कि द्रव्यत्व, पृथ्वीत्व, सत्त्व आदि धर्म से घटपद से घट का घटत्वेन ही बोध होता है, न कि सत्त्व, पृथ्वीत्व, द्रव्यत्व आदि रूप से यह सर्वजनसिद्ध है । इसलिए ' सकृदुचरित' न्याय का जो निष्कर्ष बताया गया है कि एक पद से एक काल में एकसम्बन्धावच्छिन एकधर्मनिष्ठ प्रकारता से निरूपित विशेष्यता के अवगाही शाब्द बोध का उदय होता है - वह संगत ही है । तादृश विशेष्यता का आश्रय नानाधर्मावच्छिन्न (= अनेकधर्मात्मक) हो, इसके साथ उसका कोई सम्बन्ध नहीं है । उस न्याय से तादृश विशेष्यता का आश्रय एक धर्म से ही विशिष्ट हो ऐसा नियमन नहीं किया जाता है । ॐ पुष्पदन्तपद से सूर्यचन्द्र का युगपत् बोध संमत
एकी. इति । यहाँ एक बात ध्यातव्य है कि 'सकृदुचरित...' न्याय से जिस नियम का विधान किया गया है, वह