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२९३ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ - का.५ *'प्रजयति' वास्थविचार: * नाऽपि शक्तिलक्षणाभ्यां युगपदनेकार्थाबोधनिर्वाहाय, 'प्रजयती'त्यत्रैकरमादेव जिधातोः शक्त्या जयस्य लक्षणया प्रकृष्टजयस्य च बोधाभ्युपगमात् । अत एव 'चित्रगुरित्या शक्त्या गोर्लक्षणया स्वामिनश्च बोधो नाऽनुपपम: । 'जामार्थयो देनाऽन्वयः कथमिति चेत् ?
....... ------ -* जयलता * सानिध्यलक्षणसंयोगेन सन्निकष्टघटगोचरो बोधो जायते न त विप्रकटघटविषयकः । 'घटमानय' इत्यत्र दूरस्थत्वलक्षणवियोगेन । चटपटात् दूरस्थघटविषयको बोधो जायते, न तु समीपस्थघटविषयकः । 'घटं पटञ्चानये त्यत्र साहचर्यात् एकदेशवृत्तिघटपटविषयकबोधो जायते । एवञ्च प्रकरणादिभिरेवाऽर्थविशेषबोधनियमसम्भवेन तादृशनियमपरिकल्पनमकिश्चित्करमित्यर्थः ।।
___ द्वितीये आह- नापीति । तत्र हेतुमाह- 'प्रजयती' त्यत्रेति । लक्षणयोपस्थितेन प्रकृष्टजयेन समं शक्त्योपस्थितस्य जयस्याऽभेदान्वयबोधोऽभीष्ट एवाऽस्माकमिति भावः । एवमेव च मुरज्यलक्ष्योभयपरे 'गङ्गायां धोषमत्स्यौ स्त' इत्यादी सकृदुचरितेऽपि गङ्गापदेऽनेकार्थतात्पर्यग्रहेणैकदैव शाब्दबोधाभ्युपगमात्, सामान्यतः उभयतात्पर्यग्रहे प्रथमस्यैव बोधो नान्यस्येति | नियन्तुमशक्यत्वाच नाऽवृत्त्या तनिर्वाह इति सकृदुचरिते' त्यादिन्याये मानाभाव इति नव्याभिप्रायः ।।
अत एवेति । एकस्मादपि पदान् शक्तिलक्षणाभ्यां युगपदनेकार्थबोधाभ्युपगमादेवेति । 'चित्रगु'रित्यत्र बहुव्रीहिसमासस्थले शक्त्या = समासघटकीभूतगोपदस्य शक्त्या, गोः = सास्नादिमतः, लक्षणया द्वितीयवृत्त्या स्वामिनश्च = स्वामित्वसम्बन्धेन गोमतश्च, बोधः = शाब्दबोधः, नानुपपन्नः । शक्यार्थे गयि चित्राभेदान्वयः लक्ष्यार्थे पुरुषे च गोः स्वनिष्ठस्वत्वनिरूपितस्वामित्वसम्बन्धेनाऽन्य इति शक्तिलक्षणाभ्यां युगपदनेकार्थान्वयबोधस्याउनुभवप्रसिद्भत्यान्न तनिषेधार्थं 'सकृदुचरिते' त्यादिनियमस्याऽध्वस्यकत्वम् ।
मनु गवि चियाऽभेदान्वयः पुरुषे च गोर्भेदान्यय इति न युज्यते, निपातातिरिक्तनामार्थयोः साक्षाद् भेदान्वयस्याऽव्युत्पन्नत्वादिति चित्रगुरित्यादी शक्तिलक्षणाभ्यां युगपदनेकार्थन्वयबोधस्य ने प्रामाणिकत्वम्, अन्यथा 'राजा पुरुषः, 'भूतलं घट' इत्यादेरपि प्रसङ्गादित्याशयेन कश्चिच्छते - नामार्थयोः = निपातातिरिक्तप्रातिपदिकायोः, भेदेन = साक्षात् भेदेन, अन्वयः कथम् ? निपातातिरिक्तनामार्धनिष्ठविभक्त्यर्थातिरिक्तभेदसम्बन्धावच्छिन्नप्रकारतानिरूपितविशेष्यतासम्बन्धेन शाब्दबोध प्रति नामपद| निरूपित्तवृत्तिज्ञानजन्योपस्थित विशेष्यतासम्बन्धेन प्रतिबन्धकल्यानैतच्छाब्दबोधो भवितुमर्हतीत्याशयः शङ्काकारस्य ।
RATi-latण से युगपदजेकार्थबोध मान्य - नव्य नैयायिक नापिश. इति । यहाँ यह शंका हो कि >"अनेकार्थवाचक एक पद से एक काल में शक्ति और लक्षणा से अनेकार्थबोध के अनुदय के निर्वाहार्थ 'सकृदुश्चरित...' यह न्याय प्रामाणिक है, अन्यथा शक्ति और लक्षणा के द्वारा एक पद से एक काल में अनेक अर्थ का बोध होने लगेगा" «- तो यह नामुनासिब है । इसका कारण यह है कि शक्ति और लक्षणा से एक ही काल में अनेक विपय का शाब्द बोध तो हमें अभिमत है । वह इस तरह - 'प्रजयति पद में एक ही जिथातु की शक्ति से जय का और लक्षणा से प्रकृष्ट जय का एक ही काल में बोध होता है . ऐसा हम स्वीकार करते हैं। मतलब कि प्र उपसर्ग का समभिन्याहार होने पर जिधातु के शक्यार्थ जय से अभिन्न प्रकृष्ट जय का, जो जिधातु का लक्ष्यार्थ है, शाब्द बोध होता है । एक ही काल में एक पद के शक्यार्थ और लक्ष्यार्थ का अन्वयबोध अभिमत होने से ही 'चित्रगु' इत्यादि पद के घटक गोपद के सक्या धेनु और लक्ष्यार्थ स्वामी का एक ही काल में बोध हो सकता है । 'चित्रगु' यह बहुव्रीहिसमास है, जिसका अर्थ है चित्र गाय का स्वामी है। यह बोध तभी उपपन्न होता है जब कि गोपद के शक्यार्थ गो में चित्र का अभेदान्वय एवं चित्र गाय का गोपद के लक्ष्या स्वामी पुरुप में भेदान्वय एक ही काल में माना जाय। अतः एक ही काल में एक ही पद के वाक्यार्थ और लक्ष्यार्थ की पदशक्ति और पदलक्षणा के द्वारा उपस्थिति होनी न्यायसंगत है । यहाँ यह नहीं कहना चाहिए कि > "गोपद का शपयार्थ धेनु और लक्ष्यार्थ स्वामी, ये दोनों नामार्थ हैं । यह एक नियम है कि नामार्थ का नामार्थ के साथ भेदान्वय नहीं होता है। अतः धेनु का स्वामित्वसम्बन्ध से, जो कि तादात्म्यसम्बन्ध से भिन्न सम्बन्ध होने से भेदसम्बन्ध है, पुरुप में अन्वय नहीं हो सकता है" - यह अनुचित होने का कारण यह है, कि न्युत्पत्तिविशेष के चल से तादृश अन्वयबोध भी हो सकता है । तात्पर्य यह है कि दो प्रातिपदिकार्थ (= नामार्थ) का साक्षात् भेदसम्बन्ध से अन्वय तब निषिद्ध होता है, जब दो नामार्थ शक्यार्थ हो । मगर जब एक नामार्थ की पदशक्ति से और अन्य नामार्थ की पदलक्षणा से उपस्थिति होती है, तब उन दोनों में भेदसम्बन्ध से भी अन्वय हो सकता है । इस |