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* शकुन्तलानाटकसंवादः * । अत्र नव्या: -> नलु किमर्थमयं नियम: ? न तावतानार्थकपदालानार्थानां युगपदबोधनिर्वाहाय, नानार्थकपदस्य प्रकरणादिना शक्तिर्यत्र नियम्यते तस्यैव बोधनियमेन तसिवाहात, अन्यथा भोजनवेलायां सैन्धवपदाल्लवणमेव प्रतीयते, न त्वश्व इति नियमो न स्यात् ।
= =जयलता - नव्यनैयाकिकमतमुपदर्शयितुमाह- अत्रेति । 'सकृद्दरिते' त्यादिन्यायप्रामाणिकत्वपरीक्षायां प्रस्तुतायामिति । नन्विति प्रश्ने, तदुक्तं हलायुधकोशे 'ननु प्रश्नेऽवधारणे' (हला, ५/८८४) किमर्थ = कस्मै प्रयोजनाय, अयं प्रदर्शितस्वरूप: | नियमः ? किं नानार्थकपदजन्यनानार्थबोधस्य युगपदुदयनिरासाय यदुत शक्तिलक्षणाभ्यां युगपदनेकार्थबोधानुत्पादनिर्वाहाय ?
इति विकल्पयुगली समवतिष्ठते । तत्र प्रथमे आह- नेति । अन्वयश्चाऽस्य युगपदबोधनिर्वाहायेत्यत्र । तावदिति प्रथममित्यर्थे || यधा शकुन्तलायां 'आर्ये : इतस्ताबदागम्यता' (श.१) इत्यत्र । नानार्थकपदात् सैन्धवादिपदात्, नानार्थानां अश्वलवणादि रूपाणां, युगपदबोधनिहाय = समकालं ज्ञानानुत्पादोपपत्नये । अत्र हेतुमाह- नानार्थकपदस्येति । प्रकरणादिनेति आदिशन्देन संयोग-वियोग-साहचर्यादीनां ग्रहणम् । तस्यैव = प्रकरणादिनियन्त्रितशक्तिविषयस्यैव, बोधनियमेन = शाब्दबोधोदयव्याप्त्या, तनिर्वाहात् = नानार्थ कैकपदजन्यनानार्थविषयकरसमकालीनशाब्दबोधानुदयोपपत्तेः । विपक्षबाधमाह- अन्यथेति । प्रकरणादिना नानार्थकैकपदाक्तिविषयनियमानभ्युपगमे इति । भोजनवेलायां = भुक्तिप्रकरणे, सैन्धवपदात् लवणावाद्यर्थकात लवणमेव प्रतीयते = शाब्दबोधविषयीभवनि । एबकारफलमाह- न त्वश्व इति । इति = एवंप्रकारकः, नियमो न स्यादिति । अयं नव्याशयः, यदि नानार्थकपदजन्यशाब्दबोधविषयप्रतिनियमस्य प्रकरणादिप्रयुक्तत्वं नोपयते तदा अश्वलवणबोधौपयिकसामग्रयाः अविशिष्टत्वात्सर्वदाऽअलवणबोधस्यात्, एकसामग्रया अपरशाब्दबोधप्रतिबन्धकत्वे तादृशवाक्याच्छाब्दबोध एव न स्यात् । न चैत्र भवति, लवणतात्पर्यग्राहकभोजनप्रकरणे लवणस्यैव बोधात, अश्रतात्पर्यग्राहकप्रयाणप्रकरणे चाऽश्वस्यैव । ततश्च तात्पर्यग्राहकत्वेन क्लप्तानां प्रकरणादीनां क्लसनियतपूर्ववर्तिताकत्वेनाइनन्यथासिद्धत्वमाबकल्पने लायवात्प्रकरणादिभिरेव नानार्थकपदशक्तिप्रतिनिय|| मोऽजीकार्यः । तथा चैकपदस्यैकस्मिन काले शक्यतावच्छेदकतावच्छेदकीमतैकसम्बन्धावच्छिन्नेकधर्मनिष्ठप्रकारतानिरूपितविशेष्यताकशाब्दबोधोपधायकत्वमिति नियमो नातिप्रयोजनः, तन्निर्वाह्यस्य प्रकरणादिनैव निर्वाहात् । एवं 'घटोऽपसारणीय' इत्यत्र
. 'सकारित...' न्याय प्रामाणिक - नत्यनैयायिक पूर्वपक्ष :- अत्र नव्याः, इति । उपर्युक्त वक्तव्य के खिलाफ नन्य नैयायिकों का यह मन्तव्य है कि 'सकृदुचरित...' यह न्याय अप्रामाणिक है, क्योंकि उसकी कल्पना का कोई चीज ही नहीं है। वह इस तरह - इस न्याय से 'एक पद एक काल में एकधर्मावच्छिन्नार्थबोध का जनक है' इस नियम की कल्पना क्यों की जाती है ? इसके प्रत्युत्तर में यह तो नहीं कहा जा सकता कि . 'अनेक अर्थ के वाचक एक पद से एक काल में अनेकअर्थविषयक शाब्दबोध के अनुदय का निर्वाह-उपपादन करने के लिए उस न्याय का आश्रय लिया जाता है' -, क्योंकि अनेकार्थवाचक पद की शक्ति अनेक अर्थ में कोश आदि से सिद्ध होने पर भी प्रकरण आदि से जिस अर्थ में उसकी शक्ति का नियमन होगा उसीका शाब्द बोध अनेकार्थक पद से होता है - यह नियम है । इसीसे अनेकार्थक एक पद से एक काल में अनेक अर्थ के शाब्दबोध के अनुदय का निर्वाह हो सकता है। यदि अनेकार्थशचक पद की शक्ति का अर्थविशेष में नियंत्रण न माना जाय, तर तो भोजनप्रकरण में सैन्धवपद से लवण = नमक का ही बोध होता है, न कि अश्व का - यह नियम नहीं हो सकेगा। आशय यह है कि सैन्धवशन्द का अर्थ है लवण और अश आदि । जब भोजन का समय = अवसर होता है, तब 'सैन्धर्व आनय' इस वाक्य से थोता को लवण लाने का ही ज्ञान होता है, न कि अश्व को लाने का, क्योंकि भोजनप्रकरण से 'यह सैन्धव पद लवण का बोध कराने की इच्छा से रक्ताने बोला है ऐसा तात्पर्यग्रह श्रोता को होने से वहाँ सैन्धव पद की शक्ति लवण अर्थ में नियन्त्रित होती है। यदि भोजनप्रकरण से सैन्धव पद की शक्ति का लवण में नियमन न हो, तब तो भोजन के अवसर श्रोता लवण के स्थान में अश्व को या दोनों को लायेगा । मगर ऐसा नहीं होता है। भोजन के अवसर 'सैन्धवमानय' इस वाक्य से श्रोता को मालूम हो ही जाता है कि-भोजन में नमक कम होने की वजह थीमान् मुझे नमक लाने की आज्ञा दे रहे हैं । अतः प्रकरण आदि को ही अनेकार्थकपदजन्य शाब्दबोध के विपयविशेष का नियामक मानने से एक काल में नानार्थवाचक एक पद से अनेकार्थगोचर शाब्द रोध के अनुदय का निर्वाह हो सकता है। उसके लिए 'सकृदुचरित...' i: इस न्याय की आवश्यकता नहीं है । मतलब कि निप्प्रयोजन होने के सबब तादृश नियम अप्रामाणिक है।