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२८७ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः ६ . का.५
* काशिकावनिमंवादः* || नैकर्मप्रत्यायनमुखेन वस्तुतोऽनेकधर्मात्मकस्यैव धर्मिणो बोधाद योमपद्यं निराबाधमिति | || शेत् ? तर, अभेदविवक्षायामेवैकपदेन नानाधर्मावच्छिमधर्मिबोधसम्भवे योगपद्यप्रवृत्तेः । । एकशेषस्थले तु वस्तुत: पदान्तरस्मरणमेव कल्यं, अन्यथा घटपदात् समवाय-कालिकविशेषणताभ्यां पटत्वावच्छिन्नयो: युगपदबोधप्रसक्तिभिया एकधर्मावच्छिमत्वस्य बोध्यतावच्छेदकतावच्छेदकैकसम्बन्धावच्छिन्नत्वगर्भतावश्यकतया विषयितासमवायाभ्यां गुणत्व
====== === जयलता * = = = = = = अभेदविवक्षायामेवेति । द्रव्यार्थिका देनास्तित्वनास्तित्वादिधागामभदाणायां सत्यामेव, एवकारेण भेदकल्पनाव्यवच्छेदः कृतः । एकपदेन = एकथर्मावच्छिन्नार्धवाचकेन नानाधर्मावच्छिन्नधर्मियोधसम्भवे = अनन्तधर्मावच्छिन्नविशेष्यकधीसम्भवे, || योगपद्यप्रवृत्तेः । अयं समाधानाशयः, द्रव्यार्थिकनयावतारे घटादिवत्तीनामस्तित्वनास्तित्वादिधर्माणामभेदग्रहात सत्त्वाऽभिन्नानन्त
वस्तुज्ञानं युगपद् भवितुमर्हति । द्रव्यार्धादेशेन वस्तुनः सत्त्वाद्यभिन्नाऽसत्त्वाद्यनन्तधर्मात्मकत्वेऽपि पर्यायाधिकनय - पुरस्कारऽस्तित्वनास्तित्वादिधर्माणां विभिन्नत्वेन स्वाश्रयभेदकत्वात् सदादिपदेन शक्त्या युगपन्न नानाधर्मावच्छिन्नधर्मिबोधः | सम्भवति, तन्नये विरुद्धनानाधर्मावच्छिन्नस्यैकस्य धर्मिणः एवाऽसत्त्वात् । ततश्च कालादिभिरभेदविवक्षायामेव स्वाभिन्ना:- || नन्तधर्मात्मकत्वसंसर्गेण स्वाश्रयविशेष्यकैकधर्मप्रकारकबोधतात्पर्यकत्वं पदे वाक्ये चानविरुद्धमिति स्थितम ।
एकशेषस्थले तु वस्तुत इति । व्यवहितान्वयात् वस्तुतस्त्वेकशेषस्थल इति । पदान्तरस्मरणमेर = लुप्तपदस्मरणमेव, कल्प्यम् । प्रत्यर्थं शब्दनिवेशात, तस्यैवैकशेषचीजत्वात् । तदुक्तं काशिकायां -> 'प्रत्यर्थं शब्दनिवेदशान्नैकेना नेकस्याऽभिधानम् । तत्रानेकार्थाभिधानेन्नेकशब्दत्वं प्राप्तं तस्मादेकोषः' - (पा.का.पृ.३९) । ततश्च 'घटा बित्यत्र लुप्तघटपदस्मरणमहिम्ना । प्रत्येकपदेन घटत्वावच्छिन्नस्यैकैकघटस्य बोधो जायत इति फलितम् । विपक्षबाधमाह . अन्यथेति । एकशेषस्थले लुप्तपदस्मरणनियमाउनुपगमे इत्यर्थः । अन्धयश्चाऽस्य 'उभयप्रतीतिर्न प्रादुर्भवेदि'त्यत्र बोध्यः । घटपदात् = घटत्वावच्छिन्नवाचकात्, समवाय-कालिकविशेषणताभ्यां संसर्गाभ्यां, घटत्वावच्छिन्नयोः = घटत्वविशिष्टयोः घट-पटाद्योः, युगपत् = समकालं बोधप्रसक्तिभिया = ज्ञानोत्पादप्रसङ्गभयेन, एकधर्मावच्छिन्नत्वस्य एकपदजन्यबोधविषयनिष्ठस्य, बोध्यतावच्छेदकतावच्छेदकैक
सम्बन्धावच्छिन्नत्वगर्भतावश्यकतया = शक्यतावच्छेदकीभूतधर्मनिष्ठावच्छेदकताया अबच्छेदकीभूतेनैकसंसर्गेणाऽवच्छिन्नत्वं यत् || तेन घटितत्वस्य क्लुप्तत्वेन, विषयिता-समवायाभ्यां, गुणत्ववद्वोधकैकशिष्टनदादिपदात् = विषयितया गुणत्यवतः समवायेन - - - - - - - -
- - ___वं सः इति. । यहाँ यह शंका हो सकती है कि -> "कालादि अष्टक के द्वारा सत्त्व, असत्त्व आदि धर्मों में अभेद की विवक्षा हो या भेद की विवक्षा हो, मगर प्रमाण से वस्तुमात्र अनन्त धर्मात्मक सिद्ध है । अतएव सत्त्व, असत्त्व आदि धर्मों में भेदविवक्षा होने पर भी वस्तुतः अनन्त धर्मात्मक धर्मी का ही बोध होगा । अतः एक धर्म के बोधक एक पद से एक ही काल में अनेक धर्म से अवच्छिन्न धर्मी का बोध तो निराबाथ ही होगा" - मगर यह शंका इसलिए निराकृत हो जाती है कि कालादि अष्टक की अपेक्षा संपादित सत्त्वासत्त्व आदि धर्म में अभेदविवक्षा होने पर ही एक पद | से नानाधर्मावच्छिन्न धर्मी का बोध हो सकता है इसलिए 'या तो सर्वत्र अविशेषरूप से नानाधर्मावच्छिन्न धर्मी का युगपत् || i/ चोध होगा या तो कहीं भी नहीं होगा' इस समस्या को भी अवकाश नहीं है, क्योंकि पूर्वोक्न रीति से अनेक धर्म में |! अभेदविक्षा होने पर नानाधर्मावच्छिन्न धर्मी का एक पद से एक ही काल में बोध हो सकता है ।
एक शेष में पदान्तटस्मरण आवश्यक छ एकशेष. इति । यहाँ यह भी ध्यातव्य है कि 'घटी, घटाः' इत्यादि एकशेपसमासगर्भित पद को सुन कर श्रोता को पूर्व में लुप्त घट आदि पद का स्मरण अवश्य होता है और बाद में दो या अनेक घट का बोध होता है । 'यह मानना क्यों जरूरी है ?' ऐसी शंका यहाँ हो सकती है। मगर इसका समाधान सुनने से पहले यह बात समझना आवश्यक है । कि 'सकृदुचरित...' न्याय का संपूर्ण अर्थ क्या है ? यदि उक्त न्याय का अर्थ यह समझा जाय कि -> "एक पद एक || काल में एक धर्म से अवच्छित्र अर्थ का ही बोथक होता है - यह एक अटल नियम है;" - तो यह ठीक नहीं है। इसका कारण यह है कि 'घटी' इस पद से श्रोता को जैसे समवाय सम्बन्ध से घटत्वविशिष्ट घटद्वय का बोध होता है, ठीक वैसे ही समवाय सम्बन्ध से और कालिकविशेपणना सम्बन्ध से घटत्वविशिष्ट धर्मी का बोध होने लगेगा, क्योंकि वह एकधर्मावच्छिन्नार्थविषयक है। मगर ऐसा शाब्द बोध होता नहीं है। अतः इसका वारण करना आवश्यक है । तदर्थ एकधर्मावच्छिन्न