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२६९ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ का ५ * विद्यानन्द-विमलदासमतकर्तनम्
'स्वाऽस्तित्वेनैव पररूपेण नास्तित्वप्रतीतिनिर्वाहानास्तित्वमलीकमि'ति तु पापीयांसः,
* जयलता
| किन्तु ज्ञप्तौ ज्ञेयः । तल्लक्षणञ्च - 'स्वग्रहसापेक्षग्रहसापेक्षग्रहकत्वमि' त्यामनन्ति मनीषिणः । प्रकृतेऽयं भावः, अबच्छेदकभेदो | हि अवच्छेद्यविरोधे सत्यपेक्ष्यते । अवच्छेद्यविरोधश्वाऽवच्छेद्याऽभेदे सति नैव सम्भवति, स्वस्य स्वाऽविरोधित्वात् । अवच्छेद्यभेदे सिद्धे सत्येव क्वचित् अवच्छेद्यविरोधः सम्भवति । सिद्धे चाऽवच्छेद्यविरोधेऽवच्छेदकभेदो मृग्यते । ततोऽवच्छेदकभेदसिद्ध्यर्थं परम्परयाऽवच्छेद्यभेदज्ञानमावश्यकम् । किन्तु विद्यानन्दमते तु अवच्छेद्यभेदसिद्धिरवच्छेदकभेदसिद्ध्यधीना, तेन अवच्छेदकभेदेन सत्त्वासत्त्वभेदसाधनात् । ततोऽवच्छेद्यभेदग्रहसापेक्षोऽवच्छेदकग्रहः तत्सापेक्षश्वाऽवच्छेद्यबोध इति ज्ञप्तावितरेतराश्रयदोषाचैव सत्त्वासत्त्वलक्षणाऽवच्छेद्यमेदः सिध्येत् । एतेन स्वरूपाद्यवच्छिन्नं सन्तं पररूपाद्यवच्छिन्नमसत्त्वमित्यवच्छेदकभेदात्तयोर्भेदसिद्धेः ( स.न.त. पृ. ११) इति सप्तभङ्गीनयतरङ्गिणीकारस्य विद्यानन्दानुगामिनो दिगम्बरस्य विमलदासस्य वचनं प्रतिक्षिप्तम् । न चैवं स्वरूपादिचतुष्टयापेक्षयेव परद्रव्यादिचतुष्टयापेक्षयाऽपि सत्त्वप्रसङ्गः, तदपेक्षयेव स्वरूपाद्यपेक्षयाऽपि वाऽसत्त्वप्रसङ्ग इति शङ्कनीयम्, विरुद्धधर्माध्यासप्रदर्शनेन तदभेदप्रच्यवप्रदर्शनतः, तदनवकाशात् ।
अन्ये तु वदन्ति स्वद्रव्यादिचतुष्टयावच्छिन्नास्तित्वमेव परद्रव्यादिचतुष्कावच्छिन्नाऽस्तित्वाऽभावप्रकारकप्रतीतिविषयः । अतो न तगोचरतया पररूपावच्छिन्नाऽस्तित्वाऽभावसिद्धिरित्यनुमन्यन्ते । तन्मतम पहस्तयितुमुपक्रमते स्वाऽस्तित्वेनैवेति । एवकारेण पररूपनास्तित्वं व्यवच्छिन्नम् । पररूपेण नास्तित्वप्रतीतिनिर्वाहात् पररूपावच्छिन्नास्तित्वाभावप्रकारकज्ञानोपपत्तेः, |नास्तित्वं = परद्रव्यादिचतुष्कावच्छिन्नास्तित्वाऽभावात्मकं, अलीकं काल्पनिकं, इति वदन्तः तु पापीयांसः = कदाग्रह
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मगर ऐसा नहीं है । स्वास्तित्व का अवच्छेदक केवल स्वद्रव्यादि चतुष्क है और परनास्तित्व का अवच्छेदक केवल परद्रव्यादि चतुष्टय है । अवच्छेदक में भेद होने की वजह अच्छेय अस्तित्व और नास्तित्व में भी भेद सिद्ध होता है । अतः प्रथम और द्वितीय भंग भी स्वतंत्र है, एक-दूसरे से चरितार्थ नहीं होते हैं" मगर महोपाध्यायजी महाराज कहते हैं कि विद्यानंद का यह वचन विचारणीय है । मतलब कि वह मीमांसा - परीक्षा करने योग्य है, क्योंकि वैसा प्रतिपादन कर के प्रथमद्वितीय भंग में स्वातन्त्र्य की सिद्धि करने पर ज्ञप्ति में अन्योन्याश्रय दोप प्रसक्त होता है । A के ज्ञान के लिए B के ज्ञान की अपेक्षा हो और B का ज्ञान A विषयक ज्ञान से सापेक्ष हो, यह ज्ञप्ति में अन्योन्याश्रय कहा जाता है। प्रस्तुत में अस्तित्व और नास्तित्व में विरोध सिद्ध होने पर ही एक धर्मी में उन दोनों के समावेश के लिए भिन्न भिन्न अवच्छेदक की अपेक्षा सिद्ध हो सकती है। यदि अस्तित्व और नास्तित्व अभिन हो, तब तो उन दोनों में विराध ही नहीं हो सकता । भला 1 अपना विरोध स्वयं कौन करेगा ? अतः अवच्छेदकभेद के लिए अपेक्षित अवच्छेयविरोध अपनी सिद्धि के लिए कमसे कम अवच्छेद्यभेद की अपेक्षा रखता है । अर्थात् अवच्छेदक (= स्वपरद्रव्यादि चतुष्क) में भेद की सिद्धि परंपरा से स्वाऽवच्छेय सत्त्व और असत्त्व के भेद पर अवलम्बित है । कम से कम जब तक सत्त्व और असत्व में भेद की सिद्धि न हो, तब तक उनके अवच्छेदक में भेद की सिद्धि नहीं हो सकती। मगर विद्यानन्द के मतानुसार अवच्छेय में भेद की सिद्धि अवच्छेदक के भेद की सिद्धि पर अवलम्बित है, क्योंकि पृथक् पृथक् अवच्छेदक होने की बजह ही सत्त्व और असत्त्व में वैलक्षण्य होता
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यह उसका कथन है । अतः पृथक् पृथक् अवच्छेय (सत्त्व और असत्त्व) सिद्ध होने पर अवच्छेदक में वैजात्य की सिद्धि होगी और अवच्छेदक ( स्व पर द्रव्यादि चतुष्टय) में पार्थक्य की सिद्धि होने पर उनसे अवच्छेद्य सत्त्व असत्त्व अलगअलग सिद्ध होगे । फलतः भेदसिद्धि न तो अवच्छेय में होगी, न अवच्छेदक में । ऐसा होने पर परवाड़ी का जो आक्षेप था कि > 'प्रथम भंग से ही द्वितीय भंग चरितार्थ हो जाने की वजह दो अलग अलग भंग बताने की क्या जरूरत है ?' - उसका समाधान न हो सकेगा । इसके समाधान के लिए हमने ( प्रकरणकार ने ) जो पूर्व में बिरुद्धधर्माध्यास से सत्य और असत्त्व में भेद की सिद्धि की थी, वही उचित है ।
पररूपनातित्व काल्पनिक नहीं है - स्थादादी
स्वा. इति । यहाँ "स्वास्तित्व से ही पररूपनास्तित्व का निर्वाह समर्थन हो जाने से परद्रव्य-क्षेत्र काल-भावावच्छिन्नाऽस्तित्वाभाव काल्पनिक ही है, वास्तविक नहीं । मतलब स्वद्रव्यादिचतुम्काऽवच्छिन्नाऽस्तित्व ही प्रामाणिक है, न कि परद्रव्यादिचतुम्कावच्छिन नास्तित्व" <- ऐसा कथन करने वाले लोग अत्यंत पापी (= कदाग्रहदोपग्रस्त अन्तःकरण वाले) हैं, क्योंकि एक की प्रामाणिकता से अन्य में अप्रामाणिकता सिद्ध करने पर तो ऐसा भी कहा जा सकता है कि 'स्वद्रव्यादिचतुष्टया - वच्छिन्न अस्तित्व विषयक प्रतीति की उपपत्ति परद्रव्यादिचतुम्कावच्छिना नास्तित्व से ही हो जाने के सबब स्वद्रव्यादिचतुष्कावच्छिन्न