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* कुटशब्दविचारः * विनाभाव्येकधार्मिणी'त्यादिना स्वाऽस्तित्वस्य प्रतिषेध्याऽविनाशावित्वोक्तावपि प्रतिषेध्यस्य | स्वास्तित्वविनाशावित्वस्य यौक्तिकत्वात्, पटत्वादिना नास्तित्वस्य घटेतरकुटादिवृत्तित्वेन प्रमीयमाणत्वं तु निराबाधम् । ___ 'स्वपररूपादिचतुष्टयभेदात्तद्वेद' इति असहसीकारवचनं तु विचारणीयम्, अवच्छेद्यभेदादवच्छेदकभेदः अवच्छेदकभेदाच्चाऽवच्छेद्यभेद इत्यन्योन्याश्रयात् ।
==-* जयलता. * === धर्मिणी'त्यादिनेति । ‘स्वरूपावच्छिन्नकालसंसर्गाश्रयत्वं पररूपाश्वच्छिन्नकालसम्बन्धाश्रयत्वाभावच्याप्यमभिन्नाधिकरणे इति सिद्धं' इति वचनेन । स्वाऽस्तित्वस्य = स्वरूपावच्छिन्नास्तित्वस्थ्य, प्रतिपेध्याऽबिनाभावित्वोक्तावपि = पररूपावच्छिन्नाऽस्तित्वा भावा:भावाश्रयत्वाऽवच्छिन्ननिरूपित्तवृत्तित्वाऽभाववत्त्वप्रतिपादनेऽपि, प्रतिषेध्यस्य = पररूपाऽवच्छिन्ननास्तित्वरूपस्य, स्वाऽस्तित्व| विनाभावित्वस्य = स्वरूपावच्छिन्नास्तित्वाऽव्याप्यत्वस्य. योनिकत्वात् - युक्तिसिद्धत्वात् । तदेव दर्शयति- पटत्वादिनेति । । घटेतरकुटादिवृत्तित्वेनेति । यद्यपि कुटतीति कुट इतिव्युत्पत्त्या कुटशब्दार्थों घटः सम्भवति तथापि इतरपदसमभिव्याहारीत् कुट्यतेऽस्मिन्निति कुट इति व्युत्पत्त्या गृह इत्यों बोध्यः, यद्वा कोशविशेषात् कुटशब्देन पर्वत-लौहमुद्गर-वृक्ष-प्राकारादयोर्धा ज्ञेयाः । धूमस्य बहिव्याप्यत्वेऽपि बयव्यापकत्ववत् स्वरूपावच्छिन्नाऽस्तित्वस्य पररूपाऽवच्छिन्नाऽस्तित्वाऽभावत्र्याप्यत्वेऽपि | तदन्यापकत्वमुपपद्यत इति भावः । शेषार्थश्चाऽनुपदमेव भावित इति न पुनः प्रतन्यते ।
गान बिरयापिणा "यिनुरायो - 'स्वपरचतुष्टयभेदात्तद्भेदः' इति । स्वद्रव्यपरद्रव्यादि-चतुष्कलक्षणाsवच्छेदकभेदात अस्तित्वनास्तित्वयोर्भेद इत्यर्थः । साम्प्रतन्तु अष्टसहस्यां 'स्वपररूपादिचतुष्टया पेक्षया स्वरूपभेदात्सत्त्वाऽसत्त्वयोरेकवस्तुनि भेदोषपत्तेः' (अ.स. परि-१ श्लो.१५, पृ. १५.३ A) इत्येवं पाठो लभ्यत इति ध्येयम् । अयं अष्टसहस्रीकारस्य विद्यानन्दस्याऽभिप्रायः सर्वं स्वद्रव्यादिचतुष्टयेन सत् परद्रव्यादिचतुष्टयेन चाऽसत् । वस्तुनि सत्त्वासत्त्वयोरवच्छेदकभेदात् भेदः | सिध्यति, कपिरंयोग-तदभावयोः स्वाऽवच्छेदकीभूतशाखामूलभेदाझेद इवेति । विचारणीयमित्यनेन स्वाऽस्वरसः प्रदर्शितः | प्रकरणकृता । विचारचीजमेवाऽऽह- अबच्छेयभेदात् = सत्त्वाइसत्त्वभेदात्, अवच्छेदकभेदः = स्वपरद्रव्यादिभेदः, सिध्यतीति
शेषः । अवच्छेदकभेदात् = स्वपरद्रत्र्यादिचतुष्टयलक्षणाचच्छेदकभेदात् च अवच्छेद्यभेदः = स्वास्तित्व- परनास्तित्वविभेदः, | सिध्यतीति गम्यते । ततः किमित्याह. इति = एतस्मादेतोः, अन्योन्याश्रयात् । अत्र परस्पराश्रयो नोत्पत्ती, नाऽपि स्थिती
कि स्वरूपास्तित्व पररूपनास्तित्व को छोड़ कर कहीं भी रहता नहीं है। मगर पररूपनास्तित्व का स्वरूपास्तित्व विनाभाक्त्वि | तो पुक्तिसंगत ही है अर्थात् पररूपनास्तित्व स्वरूपास्तित्व को छोड़ कर भी अन्यत्र रह सकता है। यह तो हम उपर देख ही चुके हैं कि पररूपनास्तित्व घटेतर पर्वत, वृक्ष आदि में भी रहता ही है । अतः पररूपावच्छिन्नास्तित्वाऽभाव में घटेतर कुट (= पर्वतादि) आदि वृत्तित्वविधया प्रमीयमाणत्व निराबाध ही है, जब कि घटेतरवृत्तित्वरूप से प्रमीयमाणत्व स्वरूपावच्छिन्न | अस्तित्व में नहीं रहता है । तात्पर्य यह है कि जैसे 'धूम अग्नि का व्याप्य है' ऐसा प्रतिपादन करने पर भी 'धूम अग्नि का व्यापक नहीं है', 'अग्नि हो वहाँ धूम अवश्य हो ऐसा नहीं है' यह कहा जा सकता है, जिसके फलस्वरूप धूम और अग्नि में भेद सिद्ध हो सकता है। ठीक वैसे ही स्वरूपास्तित्व पररूपनास्तित्व का व्याप्य है। ऐसा प्रतिपादन करने पर भी "स्वरूपास्तित्व पररूपनास्तित्व का व्यापक नहीं है" अर्थात् . 'पररूपनास्तित्व जहाँ रहे वहाँ स्वरूपास्तित्व अवश्य हो ऐसा नहीं है' . यह कहा जा सकता है, जिसका निरूपण अभी ही हमने किया है । इसके फलस्वरूप स्वरूपास्तित्व और पररूपनास्तित्व में भेद सिद्ध हो जायेगा, जिसकी वजह प्रथम भंग से अतिरिक्त द्वितीय भंग की आवश्यकता सिद्ध हो जायेगी। अतः तत् नत् प्रामाणिक भंगों के समूह से निर्मित सप्तभंगी भी प्रामाणिक सिद्ध होती है, इसमें लेश भी संदेह नहीं है।
अष्टसहसीकारमतजिन्दन स्वपर. इति । यहाँ प्रकरणकार श्रीमद्जी अष्टसहनीकार दिगम्बर विद्यानन्द के मत को निराकरणार्थ बताते हैं । अष्टसहनीकर्ता का यह कथन है कि -> "स्वाऽस्तित्व और परनास्तित्व के भेद की सिद्धि उनके अवच्छेदक के भेद से होती है। आशय यह है कि स्वास्तित्व और परनास्तित्व यदि एक = अभित्र हो, तब तो परनास्तित्व की भांति स्वास्तित्व का भी अवच्छेदक परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव होना चाहिए या स्वस्तित्व की भाँति परनास्तित्व का भी स्वद्रव्यादिचतुष्टय अवच्छेदक बनना चाहिए।
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