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* भासर्वज्ञप्रतिभाभङ्गः * एकान्तः कान्त एवेत्यपि यदि मनुषे किं तवाऽम्बा तदेयं, ब्राह्मण्यं भोः । तपस्विन् । प्रथयति नियतं शुददारानुरूपम् ॥॥ " विशेषणसङ्गर्तवकारस्य विशेष्यनिष्ठव्याप्यवृत्त्यत्यन्ताभावाऽप्रतियोगित्वं,
=* जयलवा * = सप्तभङ्गीष्टा-स्यात् सत्यम्, स्यादसत्यम, स्यादुभयम्, स्यादवक्तव्यमित्यादिका; तदा प्रमाणाऽप्रमाणव्यवस्थानुपपत्तिः'' (न्या.भू. पृ.५६०) इति भासर्वज्ञवचनमपि प्रत्याख्यातम्, स्वविषयाऽपेक्षयाऽर्हद्वचसि सत्यत्वस्य स्वाऽगोचरापेक्षया चाऽसत्यत्वस्योपगमेऽपि स्वविषयेऽबाधित-बाधितवचस्त्वयोः व्यवहारसत्यत्वा सत्यत्वनियामकत्वेन प्रमाणाऽप्रमाणव्यवस्थानिर्वाहात् अनेकान्ते सम्यगेकान्ताविनाभाबित्वस्य बहुश उक्तत्वात् ।
पद्यपूर्वार्धबलादेव 'एकान्तवादो हित' (पश्यतां २७२ तमे पृष्ठे) इति पूर्वोक्तं जर्जरीकृतं तथापि तत्र विशेषत आह प्रकरणकृत् - 'एकान्तः कान्त एवे'त्यपीति । यदि त्वं एकान्तः = एकान्तवाद एव कान्तः मनोहारी इत्यपि मनुषे ।
कामं चेत् ? तदा भोः ! तपस्विन : तव एकान्तवादिन इयं एकान्तवादरुचिलक्षणा अम्बा = जननी नियतं
रूपं ब्राह्मण्यं प्रथयति = प्रकटयति, शम्भुवचस्येव प्रामाण्यैकान्तविरहात् । 'घर: सन्नेवे त्यत्राऽपि सत्लैकान्तो न कान्तः, घटे कृत्स्नसत्त्वप्रसङ्गेन परसत्त्वस्य दुर्निवारत्वात् । न चैवम् । अतः पराउसत्त्वमपि तत्रोपगन्तुमर्हति । ततः स्थितमिदमनेकान्तस्य सर्वच्यापितत्वमिति समाधानग्रन्धाशयः ।
पूर्वपक्षयति नव्यनैयायिकः अधेति । द्वितीयचेत्पदपर्यन्तं पूर्वपक्षो बोध्योऽत्र । विशेषणसंगतैक्कारस्य = विशेषणवाचकपदाऽव्यवहितोत्तरैवपदस्य, विशेष्यनिएव्याप्यवृत्त्यत्यन्ताभावाप्रतियोगित्वं = विशेष्यार्थवृत्तिव्याप्यवृत्तिप्रतियोगिकात्यन्ताभावनिरू
मतलब की प्रत्यक्षत्वादि धर्म की अपेक्षा महेश वचन में अप्रामाण्य भी है। प्रत्यक्षत्वादि धर्म की अपेक्षा शिववचन में प्रामाण्य मानने पर वह वचन प्रत्यक्ष, अनुमान आदि स्वरूप बन जायेगा । अतः अप्रामाण्य के संकर = मिश्रण से एकान्तप्रामाण्य की कुक्षि उत्कीर्ण-दुषित हो जाती है। अतः शिववचन में भी स्यान् प्रामाण्य, स्यात् अप्रामाण्य, कथचिन्प्रामाण्य-अप्रामाण्य आदि का स्वीकार नैयायिक आदि एकान्तवादिओं को भी करना पड़ेगा । इस तरह सप्तभंगी की प्रवृत्ति सर्वत्र अव्याहत है। : एकान्तबादी ने जो कहा था कि --> 'एकान्तवाद ही हितकर है' - इसका निराकरण प्रकरणकार श्लोक के पश्चार्द्ध से। करते हैं। है तपस्वी श्रोत्रिय ब्राह्मण ! क्या तुम 'एकान्त द्दी कान्त = रम्य है। यह मानते हो ? यदि वैसी मान्यता का स्वीकार करोगे तब इस मान्यतारूपी तुम्हारी मां जिस ब्राह्मणत्व को प्रकट करेगी वह अवश्य शूद्रपत्नी के अनुरूप = समान | होगा, न कि ब्राह्मणस्त्री के समान । इसका कारण यह है कि शिववचन में भी प्रामाण्य का एकान्त नहीं है । “घटः सन् एव' = 'घट सत् ही है यहाँ भी एकान्ततः घट में सकल सत्त्व प्रतीत नहीं होता है, अन्यथा पटत्वादि पररूप से भी घट सत् बन जायेगा । अतः एकान्तवाद व्यापक नहीं है, मगर अनेकान्तवाद ही सर्वव्यापक है । अतएव वही हितकर है।
* विशेषणसंगत एषकार का अर्थ - पूर्वपदा * 'नव्यनैयायिक :- अथ विशे. इति । 'घटः सत् एव यहाँ आपने (स्याद्वादी ने) जो अनेकान्तोद्भावन किया है वह ठीक नहीं है। इसका कारण यह है कि उक्त वाक्य में विशेष्य है घटपद और विशेषणवाचक है सत्पद । सत्पदस्वरूप विदोपणवाचक पद से समभिव्याहृत है 'एच' पद । विशेषणसंगत एक्कार का अर्थ है अन्ययोगव्यवच्छेद जिसको नल्य न्याय की परिभाषा में इस तरह कहा जा सकता है. विशेप्यनिष्ठव्याप्यवृत्त्यत्यन्ताभावाप्रतियोगित्त्व । जैसे 'एटः सन् एच' यहाँ विशेप्यपदार्थ घट में रहा हुआ व्याप्यवृत्नि अभाव है गुणत्वाभाव, कर्मवाभाव आदि । उनका प्रतियोगी है गुणत्व, कर्मत्व आदि । अतः तादृश अभाव का प्रतियोगित्व गुणत्व आदि में रहेगा । मगर घट विद्यमान होने की वजह उसमें अस्तित्व का अभाव नहीं रहता है । अतः घटवृत्ति व्याप्पवृत्ति अभाव का अप्रतियोगी बनेगा अस्तित्व = सत्व । अतः सत्त्व में घटवृत्ति व्याप्यवृत्तिअभाव का
| रहेगा । यहाँ शाब्दबोध का आकार होगा-घट स्वनि च्याप्यवृत्ति अत्यन्ताभाव के अप्रतियोगी सत्त्ववाला है।
शंका :- यदि विशेषणसमभिव्याहत एवकार का अर्थ विशेष्यार्थनिष्ठ व्याप्यवृनि अत्यन्ताभाव का अप्रतियोगित्व माना जायेगा, तब तो 'वृक्षः संयोगी एच' इत्यादि स्थल में एक्कारार्थ अप्रसिद्ध बन जायेगा । इसका कारण यह है कि यहाँ 'वृक्षः' पद विशेष्यवाचक है और विशेषणवाचक 'संयोगी' पद से एक्कार संगत है। वृक्षात्मक विशेप्य पदार्थ में जो व्याप्यवृत्ति १. यह दीर्घ पूर्वपक्ष २७७ पृष्ठ पर समाप्त होता है।