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२८३ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ का ५
** कालायष्टकविचारः
धर्मात्मकवस्तुन: कालादिभिरभेदवृत्तिप्राधान्यादभेदोपचाराद्वा यौगपद्येन प्रतिपादकं वचः सकलादेश:" (प्र.न.त. ४/४४) तदन्यो विकलादेश: /
* जयलता
४ । य एव चोपकारोऽस्तित्वे स्वाऽनुरक्तत्वकरणम् स एव शेषैरपि गुणैरित्युपकारणाभेदवृत्तिः ५ । य एवं गुणिनः सम्बन्धी देश: क्षेत्रलक्षणोऽस्तित्वस्य स एवाऽन्यगुणानामिति गुणिदेशेनाऽभेदवृत्तिः ६ । य एव चैकवस्त्वात्मनाऽस्तित्वस्य संसर्ग : स एवा शेषधर्माणामिति संसर्गेणाभेदवृत्तिः । ननु प्रागुक्तसम्बन्धादस्य कः प्रतिविशेष: ? उच्यते, अभेदप्राधान्येन भेदगुणभावेन च प्रागुक्तः सम्बन्धः, भेदप्राधान्येनाऽभेद्गुणभावन चैषः संसर्ग इति ७ । य एवाऽस्तीति शब्दोऽस्तित्वधर्मात्मकस्य वस्तुनो वाचकः स एव शेषानन्तधर्मात्मकस्याऽपीति शब्देनाऽभेदवृत्तिः ८ । पर्यायार्थिकगुणभावे द्रव्यार्थिकप्राधान्यादुपपद्यते । द्रव्याकिगुणभावेन पर्यायार्धिकप्राधान्ये तु न गुणानामभेदवृत्तिः सम्भवति, समकालमेकन नानागुणानामसम्भवात् सम्भवे वा तदाश्रयस्य तावद्वा भेदप्रसङ्गात् १। नानागुणानां सम्बन्धिन आत्मरूपस्य च भिन्नत्वात् आत्मरूपाभेदे तेषां भेदस्य विरोधात् २ स्वाश्रयस्यार्थस्यापि नानात्वात, अन्यथा नानागुणाश्रयत्वविरोधात् ३ । सम्बन्धस्य च सम्बन्धिभेदेन भेददर्शनात्, नानासम्बन्धिभिरेकत्रैकसम्बन्धाघटनात् ४ । तैः क्रियमाणस्योपकारस्य च प्रतिनियतरूपस्यानेकत्वात्, अनेकैरुपकारिभिः क्रियमास्योपकारस्यैकस्य विरोधात् ५ । गुणिदेशस्य च प्रतिगुणं भेदात्, तदभेदे भिन्नार्धगुणानामपि गुणिदेशाऽभेदप्रसङ्गात् ६ । संसर्गस्य च प्रतिसंसर्गिभेदात् तदभेदे संसर्गिभेदविरोधात् ७ | शब्दस्य च प्रतिविषयं नानात्वात् सर्वगुणानामे कशब्दवाच्यतायां सर्वार्थानामेकशब्दवाच्यतापत्तेः शब्दान्तरवैफल्यापत्तेः ८ तत्त्वत्तोऽस्तित्वादीनामेकत्र वस्तुन्येवमभेदवृत्तेरसम्भवे कालादिभिर्भिन्नात्मनामभेदोपचारः क्रियते । तदेताभ्यामभेदवृत्त्यभेदोपचाराभ्यां कृत्वा प्रमाणप्रतिपन्नानन्तधर्मात्मकस्य वस्तुनः समसमयं यदभिधायकं वाक्यं रा रान्तादेशः प्रसइति स्थितम्" कालात्मरूपसम्बन्धाः संसर्गोपक्रिये तथा । गुणिदेशार्थशब्दाचेत्यष्टी कालादयः स्मृताः ॥ ( रत्ना अब ४-४४) |
केचन तु 'अनन्तधर्मात्मकवस्तुप्रतिपादकत्वाऽविदशेषेऽपि प्रथम द्वितीय चतुर्थभङ्गाः निरवयवप्रतिपत्तिद्वारा सकलादेशाः, | शेषास्तु चत्वारः सावयवप्रतिपत्तिद्वारा विकलादेशा' इति व्याचक्षते । श्रीवादिदेवसूर्यादिमते तु 'इयं सप्तभंगी प्रतिभङ्ग सकलादेशस्वभावा विकलादेशस्वभावा चे (प्र.न. ४ / ४३ ) ति ध्येयम् ।
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तदन्यो विकलादेश इति । सकलादेशान्यो विकलादेशः । तथाहि नयप्रतिपन्नवस्तुधर्मस्य भेदवृत्तिप्राधान्याद् भेदोपचाराद्वा क्रमेण यदभिधायकं वचः तत् विकलादेश इत्यर्थः ।
है। वस्तु की समग्रता का प्रतिपादन करने वाला वचन ही सकलादेश कहा जाता है । यह प्रतिपादन कभी कालादि के द्वारा उपपन्न अभेदवृत्ति की प्रधानता से होता है और कभी अभेदोपचार अभेद में लक्षणा से होता है । अभेदवृत्ति की प्रधानता का अर्थ यह है कि द्रव्यार्थिकनयानुसार काल आदि के द्वारा प्रतिपाद्य वस्तु के अनन्त धर्मों में अभेद का ज्ञान होने से वस्तु के अनन्त धर्मों में अभेदबुद्धि द्वारा पर्यायार्थिक नय की दृष्टि से सत् आदि पद से होने वाले शाब्दबोध का विघटन होना । इन्यार्थिक नय द्वारा सत्आदि पदों का सत्ता आदि से अभिन्न अनन्त धर्मात्मक वस्तु में शक्तिज्ञान होता है। अतः सत् आदि पदों से घटित वाक्य से अनन्त धर्मात्मक वस्तु का बोध होना चाहिए । मगर पर्यायार्थिक नय द्वारा वस्तु के विभिन्न पर्यायों की उपस्थिति होने पर एक वस्तु में विभिन्न धर्मो की अभिन्नता बाधित होने से सत् आदि पदों | से घटित वाक्य का अर्थबोध दुर्घट हो जाता है । ऐसी स्थिति में जब काल आदि की दृष्टि से प्रतिपाद्य वस्तु के धर्मों में अभेद का ज्ञान होने से वस्तु में अभिन्नरूप से गृहीत अनन्त धर्मों के अभेद का ज्ञान होता है तब उससे उक्त रीति से पर्यायार्थिकनयप्रयुक्त वाक्यार्थं बाध का अवरोध होने से सत् आदि पदों से घटित वाक्य से अनन्त धर्मात्मक वस्तु का रोध सम्पन्न होता है । इस प्रकार होने वाला वस्तु की समग्रता का बोध ही अभेद वृत्ति की प्रधानता से अनन्त धर्मात्मक वस्तु के प्रतिपादनस्वरूप सकलादेश है । अभेदोपचार का अर्थ है अभेद से अनन्त धर्मात्मक वस्तु में सत् आदि पद की लक्षणा | काल आदि पदार्थ की, जिनकी दृष्टि से वस्तुधर्मो में अभेद का ज्ञान होता है, संख्या आठ है । जैसे १ काल, २ आत्मरूप, ३ अर्थ, ४ सम्बन्ध, ५ उपकार, ६ गुणिदेश, ७ संसर्ग और ८ शब्द । जिस काल में किसी वस्तु में अस्तित्व धर्म रहता है, उस काल में नास्तित्वादि अनन्त धर्म भी होते हैं। ये सभी धर्म एक काल में होने से काल की दृष्टि से अभिन्न होते हैं । वस्तु के अनन्त धर्मों की यह अभिन्नता कालमूलक अभेदवृत्ति है । इस तरह आत्मरूप आदि दृष्टि से भी ज्ञातव्य है 1 प्रस्तुत मूल ग्रन्थ में उसका विशेषतः उल्लेख न होने से यहाँ विस्तार से निरूपण नहीं किया जाता है ।