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सूत्रकृताङ्गसूत्रे
१०
म्लम्-एवं विपडिबन्नेगे अपणा उ अजायणा ।
तमाओ ते तमं जति मंदा मोहेण पाउडा ॥११॥ छाया--एवं विपतिपन्ना एके आत्मना तु अज्ञाः।
तमस्ते तमसो यान्ति मन्दा मोहेन पावताः ॥११॥ अन्वयार्थः---(एवं) एवमनेन पकारेण (विडिवन्ना) विपतिपन्नाः साधु सन्मार्गद्वेषिणः (एके) एके केचन-अनार्याः (अप्पणा उ) आत्मना तु (अजायणा) अज्ञाः विवेकाविज्ञा: (मोहेन पाउडा) मोहेन प्रावृताः मोहेन मिथ्यादर्शनरूपेण माता आच्छादितमतयः (ते) ते (तमाओ) तमस: अज्ञानरूपान्धकारात् (तम) तमा उत्कृष्टमज्ञानान्धकार जति) यान्ति गच्छन्तीति ॥११॥
शब्दार्थ-~-एवं-एवम्' इस प्रकार विपडियन्ना-विप्रतिपन्नाः' साधु और सन्मार्ग के द्रोही 'एगे-एगे' कोई कोई 'अप्पणा उ-आत्मना तु' स्वयं 'अजायणा-अज्ञाः' अज्ञ जीव 'मोहेण पाउडा-मोहेन प्रवृताः' मोह से ढके हुए अर्थात् मिथ्यादर्शन से ढकी हुइ मतियाले हैं 'ते-ते' वे 'तमाओ-तमसः' अज्ञान रूप अंधकारसे तमं-तामः' उत्कृष्ट अज्ञान ही अन्धकार को 'जंति-यान्ति' प्रवेश करते हैं ।।११॥
अन्वयार्थ-जो लोग इस प्रकार साधु ओं के विरोधी हैं, अनार्य हैं, विवेकविकल हैं, मोह से अच्छादितमति वाले हैं, ते वे अज्ञान से अज्ञान की ओर जाते हैं अर्थात् अज्ञानान्धकार से उत्कृष्ट अन्धकार की दिशा में अग्रसर होते हैं ॥११॥
था- 'पव-एवम्' मा प्रमाणे 'विप्पडियन्ना-विप्रतिपन्नाः' साधु भने सन्माना 'एके -एके' । । 'अप्पणा उ-आत्मना तु' पोते ०५ श्रजःयणा-अज्ञाः' म 'मोहेण पाउडा मोहेन प्रवृतः' मा यी ढ अर्थात मिथ्या शनी disी मतिबा छे, 'ते-ते' ते 'तमाओ-तमसे:' अज्ञान ३५ ५४।२थी 'तमं-तमः' उत्कृष्ट मज्ञान ३५ी २२ 'जति-यन्ति' प्राप्त ४२ छे. ॥११॥
सूत्रा-२ मा प्ररे साधुयाना विधी हेय छ, गनाये અને વિવેકથી વિહીન હોય છે, અને તેથી અચ્છાદિત મતિવાળા હોય છે, તેઓ એક અજ્ઞાનમાંથી બીજા અજ્ઞાન તરફ જાય છે એટલે કે અજ્ઞાન રૂપ અંધકારમાં ડૂબેલા તે લેકે નરક આદિ રૂપ ઉત્કૃષ્ટ અંધકારની દિશામાં અસર થાય છે. ગાથા ૧૧
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