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___ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * Moreworrorsensorrorresorrowserversemurror.wevontronoterpto
तरी: संस्कृत एकवचनान्त षष्ठयन्त रूप है। इसके प्राकृल रूप तरुणो और तहस्स होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या ३-२३ से संस्कृतीय षष्ठी विभक्ति के एक वचन में प्राप्त प्रत्यय 'इस' के स्थानीय रूप 'अस् के स्थान पर प्राकृत में 'णो' आदेश-प्राप्ति होकर प्रथम रूप तरुणो सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-( तरी:-) तरुस्स में सूत्र--संख्या ३-१० से संस्कृतीय षष्ठी विभक्ति के एक वचन में माप्त प्रत्यय 'डास' के स्थानीय रूप 'अस्' के स्थान पर प्राकृत में 'रस' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप तरुस्स सिद्ध हो जाता है।
गिरिणा संस्कृत सृतीथान्त एक वचन का रूप है । इसका प्राकृत रूप (भी) गिरिणा होता है। इममें सूत्र-संख्या ३-०४ से तृतीया विभक्ति के एक वचन में संस्कृतीय प्राप्त प्रत्यय 'टा' के स्थानीय रूप 'णा' के स्थान पर प्राकृत में भी 'णा' प्रत्यय की प्राप्ति होकर गिरिणा रूप सिद्ध हो जाता है।
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तरुणा संस्कृत तृतीयान्त एक घचन का रूप है । इसका प्राकृत रूप (मो) तरुणा ही होता है। इपमें सूत्र-संख्या ३-२४ से संस्कृतीय तृतीया विभक्ति के एक वचन में प्राप्त प्रत्यय 'टा' के स्थानीय रूप णा' के स्थान पर प्राकृत में भी 'णा' प्रत्यय की प्राप्ति होकर तरुणा रूप भी सिद्ध हो जाता है।
फय रूपाकी सिद्धि सूत्र संख्या १-१२F में की गई है।
बुख्याः संस्कृत पंचमी विभक्ति के एक वचन का और पाठी विभक्ति के एक वचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप बुद्धीन होता है । इसमें सुत्र--संख्या-३-२६ से संस्कृतीय पंचमरे विभक्ति के एक वचन में प्राप्त प्रत्यय 'सि' के स्थानीय रूप 'अस-पास' के स्थान पर और षष्ठी विभक्ति के एक वचन में प्राप्त प्रत्यय 'कस्' के स्थानीय रूप 'अस-आस्' के स्थान पर प्राकृत में मूल रूप 'बुद्धि' में स्थित अन्त्य हस्व स्वर '६' को दीर्घ 'ई' की प्राप्ति करते हुए 'अ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर (दोनों विभक्तियों में बुखी रूप सिद्ध हो जाता है।
धन्याः संस्कृत पंचमी विभक्ति के एक वचन का और षष्ठी विभक्ति के एक वचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप घेणूम होता है । इसमें सूत्र-संख्या १--२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और ३-६ से संस्कृतीय पंचमी विभक्ति के एक वचन में प्राप्त प्रत्यय 'सि' के स्थानीय रूप 'श्रस्'='पास के स्थान पर और संस्कृतीय षष्ठी विभक्टि के एक वचन में प्राप्त प्रत्यय 'स' के स्थानीय रूप 'अस्' पास' के स्थान पर प्राकृत में मूल रूप घेणु' में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ 'क' की प्राप्ति करते हुए' 'अ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर (दानों विभक्तियों) में घेणूम रूप सिद्ध हो जाता है।
लब्धम् संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप लद्धं होता है। इसमें सूत्र--संख्या २-६ से 'चू' का लोपः २-८६ से लोप हुए 'ब्' के पश्चात शेष रहे हुए 'ध्' को द्वित्व 'धू धू' की प्राप्ति; २-६० से