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"मालूम है क्यों?"
"नहीं"-कहने का उसे मन हुआ परन्तु मुंह से नहीं निकला। उसने सिर हिलाकर बताया कि नहीं मालूम है।
"तुमने अपने इस वामाचार से कितने घरों का सर्वनाश किया है अब तक?" "औं! मैं...नहीं...नहीं..."
“झूठ बोलकर तुम यहाँ से जीवित नहीं लौट सकोगे। पहली बार तुमने जन्न मेरी बहिन को अपने यहाँ बुलवाया था तभी से तुम्हारी चाल-ढाल का पता हमें लगता रहा है।"
''मेरी भला क्या हिम्मत कि ऐसे बड़ों को अपने यहाँ बुलवाऊँ। वे खुद ही आयी थीं प्रधानजी।" ___ "ती मतलब यह हुआ कि तुमने अपनी प्रतिष्ठा, शक्ति, सामर्थ्य के प्रवार का माध्यम उन्हें चुना । दण्डनायक के घर का कौन-सा नौकर तुम्हारा भक्त है?"
''पालकी ढोनेवाला चोकी।" .
"जब भी कोई बहाना मिले तब तुम्हारा नाम लेकर तम्हारी प्रशंसा करता रहे-वही तुमने उससे कहा था न।'
"जो कोई मेरे पास आते हैं उन सबसे मैं ऐसा ही कहा काता हैं। नहीं तो मैं जीऊँ कैसे? फिर जिन्हें मेरी शक्ति पर विश्वास हो जाता है वे ऐसा ही कहते हैं। कुछ लोग अपनी तरफ़ से भी कह उठते हैं।" ___"वह तुम पर विश्वास करने लगे इसके लिए तुमने चोकी का कुछ काम भी कर दिया। है न?"
"हाँ" "क्या किया?" पण्डित तुरन्त कुछ बोला नहीं।
"कुछ देर प्रतीक्षा करने के बाद आखिर गंगराज गरम होकर बरस पड़े, "चुप क्यों हो गये पण्डित, बताओ।" ___"वह किसी स्त्री को चाहता था, मालिक । उसे उसकी वशवर्तिनी बना देने
की प्रार्थना की थी उसने ।" ___"वह स्त्री भी उसे चाहती थी या नहीं, इस बात को जाने बिना तुमने वह काम कर दिया। है न?"
"हमारा व्यवहार एकतरफ़ा होता है। यह सब पूछताछ हम नहीं करते। हमें • अपने गुरु की आज्ञा का पालन भर करना होता है। वे कहते थे कि वे ही लोग हमारे पास आते हैं जिन्हें अपनी समस्या का अन्यत्र परिहार नहीं दिखाई देता। उनकी समस्या का परिहार करना मात्र हमारा काम है। अन्य विषयों से हमारा कोई
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग दो :: 53