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घटीं कि उन्होंने यह स्वीकार नहीं किया। इस बार हमें सन्तुष्ट करने के विचार से स्वीकार किया था लेकिन भगवान को ही इच्छा नहीं थी। जीना-मरना हमारे हाथ की बात नहीं। हमें अपनी आँखों के सामने उनका निधन देखकर शोक सन्तप्त होना लिखा था, सो हुआ। यह हमारे पूर्व संचित किन्हीं पापों का फल है। हम विनाश या मृत्यु से डरनेवाले नहीं, किसी तरह सह लेते हैं यह सब। परन्तु तुम्हारी माँ महासाध्वी प्रचलदेवी को इस दुःख का सहना कितना कष्टकर है, इसे हम सपझते हैं। सीता-सावित्री जैसी साध्वी, परमपवित्र सौम्यमूर्ति है वह। हमारे लिए बहु-बंटी दोनों वही है। अपनी उस माँ को कभी दुःख न पहुँचाना। वह दूसरों को सुखी बनाने के लिए खुद मौन रहकर दुःख सहन करती रहनेवाली देवी है। उसकी इच्छा के अनुसार चलना तुम लोगों का कर्तव्य है। छोटे अप्पाजी, उदय, यह बात मैं तुमसे भी कह रहा हूँ। ऐसी महिमागयी माता को सुखी बनाकर रखना तुम सबका धर्म है। दोनों भाइयों को परस्पर पूरक बनकर एक-दूसरे को सहयोग देते हुए, किसी तरह की अनबन के बिना आपस में मिल-जुलकर रहना चाहिए। छोटे अप्पाजी, मैं नाममात्र के लिए महाराज था, सारे कार्य तुम्हारे पिता ही निभाते रहे। सुनो, तुम्हारे पिताजी का जो सद्व्यवहार रहा वैसा ही अपेक्षा तुमसे की जाती है। अय तुम्हें अप्पाजी के इस गुस्तर राज्य-निर्वहण के कार्य में दायां हाथ बनकर कार्यरत होना होगा। उदय अभी छोटा है। वह जब तक बड़ा न हो जाय तब तक एक तरह का यह अतिरिक्त उत्तरदायित्व भी तुम पर है। जब उदय लायक बन जाय तो दोनों जिम्मेदारी को आपस में बाँटकर बड़े अप्पाजी के काम में हाथ बँटाना। तुम दोनों को पाण्डवों की तरह एक बनकर रहना होगा। इसका आश्वासन हमें देंगे? तुम्हारे पिता अपने अन्तिम समय में तो कुछ कह नहीं पाये। उन्हीं को कहाँ मालूम था कि वह उनका अन्तिम समय है। इसलिए हम भी अन्तिम समय तक प्रतीक्षा न करके जो कुछ कहना चाहते हैं उसे जल्दी कह देना चाहेंगे। हाँ, सब-कुछ एक ही बार नहीं कहा जा सकेगा। जब-जब सूझेगा, तब तुम्हें बताता चलूँगा। ठीक है न!"
बालक मौन रहे। उनके मनःपटल पर पट्टाभिषेक महोत्सव की सारी घटनाएँ एक साथ घूम गयीं। औंखें भर आयीं। उमड़ते हुए दुःख को रोकने के उनके सारे प्रयत्न बेकार हो गये। महाराज विनयादित्य की दृष्टि उन पर ही थी। बोले, "रोको मत, उन्हें बहिने दो। अन्दर के दुःख-भार के हल्का होने का यही तो एक मार्ग हैं। अच्छा हो, सारे आँसू वेलापुरी में ही बह जाएँ और इस यगची की धारा में मिल जाएँ, इन्हें दोरसमुद्र ढोकर न ले जाना पड़े। वहाँ जाने का समय भी तो अब निकट आता जा रहा है। यहाँ आये छः महीने बीतने को हुए । प्रधानजी से बुलावा भी आया है। राजधानी के लोग अब और प्रतीक्षा नहीं करना चाहते। हमें अब
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग दो :: I15