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मुझमें उस पर विश्वास पैदा किया। इन नौकर-चाकरों को ज़्यादा मुँह नहीं लगाना चाहिए। उसे दूर रखती तो वह सय न हुआ होता। अब खुद लापता हो गया है। शायद वह उस वामाचारी के साथ ही गया होगा। पता नहीं उससे किस-किस की क्या बुराई होगी। अब जो भी हो, अब मैं इस परिस्थिति से पार हो जाऊँ तो काफ़ी हैं। हे भगवान, कृपा करी! मालिक को इतनी बुद्धि दो कि वे कह सकें कि ये तावीज़ हमारे नहीं हैं।" घुमा-फिराकर बात वहीं आकर अटक जाती। साथ ही कुछ और विचार दिमाग़ पर हावी हो गये। जब तक मालिक घर न लौटें तब तक चुप रहने की बात दिमाग़ में आयी मगर अपने मन पर उसका काबू ही नहीं था- एक विचार दूसरे में फंसता गया। ___ भोजन के वक्त दण्डनायक : ने। वह रेल ग्रीनही सिडाई दिये कोई परिवर्तन नहीं। सबने साथ मिलकर भोजन किया। बाद में दण्डनायक अपने कमरे में चले गये। थोड़ी ही देर में दण्डनायिका भी पनबट्टा लेकर वहाँ पहुंच गयी। दोनों ने पान खाये।
बात दण्डनायिका ने ही छिड़ी, “वेलापुरी की क्या खबर हैं?" "क्या सब कहीं से लौटने के बाद तुम्हें समाचार देना जरूरी हैं?"
"ठीक है। मैं इसलिए पूछ रही थी क्योंकि आपके साथ भाई भी गये थे। इसके अलावा आपको कल ही लौट आना चाहिए था मगर आये नहीं। इसलिए पूछा कि कोई खास काम पर शायद वहां ठहरना पड़ा हो।' ___“हाँ, कुछ ख़ास राजनीतिक कार्य था। दोनों को जाना पड़ा था। ठहरना पड़ा. ठहरे।" ___ "एक साल बीतने को आया न महाराज के दोरसमुद्र लौटने के बारे में कोई बातचीत चली?"
"उस सबसे तुम्हारा क्या मतलब:" "अगर ने यहाँ आ जाएँ तो आपको बार-बार आना-जाना न पड़ेगा। इसलिए
पूछा।"
__"तुमको तो आना-जाना नहीं न? बिना किसी तकलीफ़ के आराम से यहाँ रड़ने की सुविधा जब है, तब तुम्हें इसकी चिन्ता क्यों?'' ____ "हाँ, आप इस ढलती उम्र में दिन-रात की परवाह न करके घूमत-फिरते रहें और मैं आराम से यहाँ पड़ी रहँ। आजकल आप मेरे प्रति उदसीन हैं। महेशा आपकी ही सेवा-शुश्रूषा में लगी रहती हूँ, फिर भी आप मेरे प्रति उदासीन क्यों?
"नहीं, तुम्हें सिर पर बैंटाकर ढिंढोरा पीटकर जुलूस में कहता चलूँगा कि देखो यह वही दण्डनायिका है जिसने दसों बार चोट पर चोट खाने पर भी ठीक तरह से बतांब करना न सीखा और यों कह खुश होऊँगा।"
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग दो :: 155