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कार दिन-ब-दिन स्वस्थ होकः शक्तिलाभ कर रहे थे। उनकी मालत ध्यान में . रखकर विहिदेव द्वारसमुद्र में ही रह गये। वधता के समारम्भ के बाद उदयादित्य यादवपुरी चले गये। किसी तरह की विशेष घटना के बिना पार्थिव संवत्सर समाप्त होकर व्यय संवत्सर ने प्रवेश किया।
महाराज वन्लास जब से वेगान्चों के युद्ध में गये तब में रानियों की मानसिक शान्ति भंग हो गयी थी। उसके बाद पूर्णरूप से मानसिक शान्ति रही ऐसा कहा गह जा सकता था ! एक आरोग्य जीवन राजमहल में गुजार रहा था लेकिन बाद म महाराज की अस्वस्थता के कारण उसमें हेर-फेर अा गया था। अन्तरंग के यह विचार दिमाग में कीड़ा बनकर मस्तिष्क में छंद बनाने जा रहे थे। महाराज कामक्तो कदम: द टीवन्न कारण देश्यवश गनियों से सम्पर्क नहीं लख रहे थे। कभी प्रसंगवश मिलने तो गन्टहास के प्रति मन्द्रहास कर देते। इतना हो। इससे अधिक घटने का मौका ही नहीं देते। वास्तव में कान्त में वे किसी रनी स मिलने डरत थे, कहा जा सकता है। उन्हें इस बात का डर था कि
नई माथ का कान्न, पता नहीं किधर घसीट देगा। इस तरह रहने में इन्हें कोई मानांसक वेदना अनभूत नहीं हुई थी। या यों कहा जा सकता है कि इससे उन्हें वह मानभिः शान्ति मिली थी।
शनियों की मनःस्थिति गम। नहीं थी। काकी जीवन के कारण च और उदास हो गयीं थीं। बाप्पादेवी का ग अकंपन के ऋष्ट से बचाने के लिए अपनी बच्ची का का सहारा मिल जाता। शेप दोनों को ऐसी कोई सहूलियत भी नहीं थी। चामानदवी त-साई के कष्ट का अनुभव करने पर भी संयम के साथ बलती रहीं। उसका यहीं अभिनाय था कि अपने ताल्मालिक सुख से भी सन्निधान का स्वास्थ्य अधिक प्रधान है।
पदमादेवी भी सह सकती थी; सन्निधान के स्वास्थ्व सं वह अपरिचत तो नहीं थी। एकान्त में उनसे दो-चार बातें करने तक का मौक़ा न हो, इसके क्या माने हैं: एकान्त में थोड़ा समय उनके साय घट्गी तो क्या में उनके शरीर का खून वृस लँगी: क्या मैं नहीं चाहती कि वे स्वस्थ रहें, भी भी अपन सहाग की चाह है। अपना मौमांगल्य बच्चा रखने में मुझे श्रद्धा है। फिर भी मुझो एकान्त में उन न मिलने टने के लिए राजमहल में कोई पड़यन्त्र रचा जा रहा है। असूया के कारण ही य किया जा रहा है। निधान से मेरा सम्पर्क है। छुड़ा देने पर शायद किसी की कोई आशा पूरी होगी। इसीलिए! यह सब हो रहा है। यह स्थिति यों ही रहने दूं तो वे पड्यन्त्रकारी मुझे राजमहल से भी बाहर कर देंगे ! चामला जो इतनी मिलनसार थी वह भी आजकल बहत ही सीमित और कम मिलती है।
334 :: पामहाची शान्तत : भाग दो