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और कैसे प्रकट करें, समझ में नहीं आता। आश्रय की खोज में यहाँ आयीं, आश्रय चाहा। उन्हें आश्रय दिना - यह अहंकार हममें हुआ होगा, इसलिए यह घटना ऐसी हुई। लगता है, भगवान के द्वारा पूर्वनियोजित था कि हमारे सीमांगल्य को बचाने की के लिए उन्हें यहाँ चुलवा दिया। आश्रय पाने के लिए यहाँ आना शायद एक बढ़ाना है। साधारणतः मानव में उपकृति की याद बहुत समय तक टिककर नहीं रहती । कृतज्ञता की भावना को स्थायी बनाये रखने की इच्छा हृदय में होने पर उसे एक स्पष्ट रूप देना चाहिए। इसलिए मैं सन्निधान के सम्मुख अपनी इच्छा प्रकट किये देती हूँ। बाद में राजधानी लौटने पर पन्त्रणा सभा में उस पर विचार कर निर्णय कर लें। सन्निधान की रक्षा ही पोय्सल सिंहासन की रक्षा है। इस कर्तव्य को अपने प्राणों की परवाह न करके उन्होंने निभाया है। इसलिए आसन्दीनाडु पाँच-सौ परगना पल्लव राजकुमारी वम्मलदेवी को देखकर पोप्सलों के आश्रय में वहाँ अधिकार निर्वहण करें - इसके लिए उन्हें योग्य आदेश दें। उन्होंने जो महान् कार्य क्रिया हैं उस कार्य के अनुलक्ष्य में यह एक अल्पभेंट मात्र है ।"
यह बात सुनते ही बम्मलदेवी के शरीर में बिजली- सी दौड़ गयी। उसका हृदय धधक उठा। अपने अन्तरंग की बात को खुलकर कह सकने की हालत में नहीं इसलिए उसने िकी ओ
मंचिदण्डनाथ बड़े इंगित थे। राजलदेवी से बम्मलदेवी के अन्तरंग की बाल उन्होंने जान ली थी। फिर भी इस तरह की बात कह सके इतनी मिलनसारी या ऐसा विश्वास उत्पन्न नहीं हुआ था। चूँकि यह बात को समझते थे, इसलिए उट खड़े हुए, झुककर प्रणाम किया और बोले, "हम सन्निधान की उदारता के लिए कृतज्ञ हैं। राजकुमारीजी को इस तरह की कोई चाह नहीं है । आश्रय की आशा लेकर आये। हम पर विश्वास पाकर हमें आश्रय दिया गया। हम कृतार्थ हुए। हमें यह बहुत बड़ी भेंट है। अभी हम जैसे हैं वैसे ही रहने देने का आदेश सन्निधान दें। सन्निधान ऐसा न समझें कि हमने सन्निधान की उदारता को अस्वीकार किया है, धृष्टता की है। ये सब ऐसी बातें हैं जिनका विवेचन जल्दबाजी में नहीं कर सकते । राजकुमारी बम्मलदेवी सन्निधान की प्राणरक्षा में सहायक बन सकीं - इस तरह का अवसर प्राप्त होने पर वे अपने को बड़ी भाग्यशाली मानती हैं। वे समझती हैं कि इससे बढ़कर उनका और क्या भाग्य हो सकता है। मैं उन्हें अच्छी तरह पहचानता हूँ। सन्निधान के समक्ष अपनी भावनाओं को व्यक्त करने में भी इस उदारता के सामने संकोच का अनुभव कर रही हैं । कर्तव्यपालन का महत्त्व उससे प्रतिफल प्राप्त करने में नहीं है। प्राप्त हो सकनेवाले प्रतिफल से दूर रहने में हैं इसलिए अब यह बात यहीं समाप्त करना अच्छा है । परन्तु हम इस बात को जानने के लिए अतीव उत्सुक हैं कि ऐसी क्या बात हुई।"
पट्टमहादेवी शान्तला भाग दो 451