________________ हो-सन्निधान मन्त्रणा-सभा में उस पर विचार कर निर्णय करेंगे। ठीक है न?" कहकर शान्तलदेवी ने अपने हाथ से लस तलवार को एक बार चमकाया। विधियण्णा ने उसी स्त्री-वेश में ही वीरोचित ढंग से घुटन टेककर बहुत विनीत भात्र से दोनों हाथों की अंर्जाल आगे बढ़ायी। शान्तलदेवी ने अपने हाथ से तलवार उसकी अंजलि में रखकर उसके सिर पर अपने दोनों हाथों से आशीर्वाद दिया, "वटा: तुम तंजस्वी होकर जीओ; राष्ट्र के कार्य में तुम्हारा जीवन उपयुक्त बना रहे। तुम्हारे माता-पिता तुम्हें राजमहल के बर्चस्व में छोड़कर चल बसे। उनकी आकांक्षाओं को सफल बनाने के लिए ही हमने अपनी शक्ति-भर योग्य शिक्षण दिया। वह शिक्षण तुममें अच्छी तरह पल्लवित हांगा--इसका विश्वास हमें हो गया है। तिस पर तुममें अब आत्म-स्थर्य का भी विकास हुआ है। इस वजह से हम अव यह समझ सकते हैं कि हमारी ज़िम्मेदारी एक सीमा तक बहुत कम हां गयी। वह प्रजा पांसल राष्ट्र की प्रतीक है। वह तुमसे इस बात की अपेक्षा करती है कि तुमसे गष्ट को शापनल और कीरिक सेवा मिले।" इतना कह पट्टमहादेवी अपने आसन पर बैठ गयीं। बिॉयण्णा पट्टमहादेवी द्वारा दी गयी उस तलवार को ऊपर उठाकर, चमकाकर, भाल से लगाकर तथा एक बार अपना पाथा महाराज की और और फिर पट्टमहादेवी की ओर झुकाकर प्रणाम करने के बाद उठ खड़ा हुआ और बोला, "आपके आशीर्वाद से मेरा जीवन सार्थक बने, पेरा जीवन पासल राजवंश की सेवा के लिए ही धरोहर बने। मुझे अपने माता-पिता से भी बढ़कर प्रेम से पाल-पोसका बड़ा बनानेवाले अपने इन राजदप्पती की और इनकी सत्सन्तान की उन्नति के लिा! मैं आजीवन परिश्रम करता रहूँगा-इस अवसर पर मैं यही प्रतिज्ञा करता हूँ। उपस्थित प्रजाजन इस पात्र एक बालक की बात न समझकर, अपना आशीवांद देते हए मेरी इस प्रतिज्ञा को सफल बनाने की शक्ति प्रदान करें।" उसने सागरोपम जनसमुदाय को प्रणाम किया। जनसमुदाय की तालियों की गड़गड़ाहट से सारा वातावरण झंकृत हो उठा। विट्टियण्णा यह देख पुलकित हो उठा / उसने फिर राजदम्पती के पैर छूकर प्रणाम किया। सभा समापन की घोषणा के साथ राजदम्पती सभामंच से उठे और राजमहल की ओर बढ़ गये। सभा विसर्जित हो गयी। GED पट्टमहादेवी शान्तला : भाग दो :: 468