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लगे। ऐसे ही व्याकरण, छन्दशास्त्र भी मेरे लिए कभी सरदर्द नहीं बने। बल्कि इन सबमें मुझे राज्पाही अन्य उन्होंने जो कहा राय है। पर मेरा अन्तरंग मेरे जन्मदाताओं की ही बात पर विचार करता रहता है। इसलिए मुझे युद्ध मुख्य मालूम पड़ता है। इसी का अनुग्रह करें।" चिट्टिया ने स्पष्ट किया ।
पट्टमहादेवी जी की बात भूल गये? उसी का अनुग्रह करने का अर्थ होगा नृत्य को त्याग दो। क्या यही तुम्हारी इच्छा है?" बिट्टिदेव ने सवाल किया ।
"मेरी कला की गुरुवर्या ने आदेश दिया है कि उसका भी पोषण होते रहना चाहिए। उनके आदेश को अस्वीकार नहीं कर सकता। मैं सन्निधान एवं उनकी गोद में पला हूँ। आप दोनों के आदर्श मुझमें समाये हुए हैं। आप ही के द्वारा चित्रित मेरे माता-पिता के चित्र मेरे मन पर अंकित हैं। मेरा लक्ष्य है कि मैं अपने पिताजी से बढ़कर प्रभु की सेवा कर अपने पिता का योग्य पुत्र कहलाऊँ। इसके लिए आवश्यक सभी तरह का शिक्षण देकर उसका उपयोग करने के लिए मुझे मौका न देकर मुझे दूर रखने के कारण मेरा मन बहुत दुःखी था। केवल आश्चर्य चकित करने तथा मन बहलाने के उद्देश्य से मैं उदयादित्यरस के सामने गिड़गिड़ाकर आज इस देश में आया। अब मैं पछता रहा हूँ कि बाद की बातें प्रकृत प्रसंग के अनुकूल नहीं रहीं। सन्निधान इसके लिए मुझे क्षमा करें। पट्टमहादेवी जी की जन्मपत्री में भी यह रुचकयोग है यही सुना है। इसीलिए वे इस युद्ध व्यापार में भी परिणत हैं। यह नृत्यकला मुख्य न होने पर भी, जैसे मेर लिए इस ज्ञान का पोषण करना जरूरी है, वैसे ही उनके लिए युद्ध-व्यापार अप्रधान होने पर भी उसका पोषण करना जरूरी है। इसी के अनुरूप उन्होंने अपनी कार्य-योजना को रूपित किया है। मैं उनका ही शिष्य हूँ। यहां प्रधान और अन्य विषय- इनमें एकरूपता हम दोनों में नहीं, इतना ही अन्तर है। हम सबके रहते हुए उन्हें आगे बढ़ाकर हम पीछे रह जाएँ तो यह हमारे पुरुषत्व के लिए ही गौरवहीनता की बात होगी। मेरी नृत्यकला मुझमें बच रहना हो तो उसे जिस प्रमाण में मुझमें होना चाहिए उसी प्रमाण में मेरी गुरुचर्या में रण-व्यापार बना रहना चाहिए। यह रण व्यापार आज की तरह प्रधान न बने। यह हो तो में अपने को कृतार्थ समझँगा । जनमते ही मैं माँ को खो बैठा। ऐसे मातृहीन मुझ पर मातृ- वात्सल्य की विमलधारा ही बहा दी पट्टमहादेवी ने उन्हें युद्धक्षेत्र की अनिश्चित परिस्थितियों का शिकार नहीं बनना चाहिए, यही मेरी आकांक्षा है। ऋषियों ने बहुत पहले ही कह दिया था मातृदेवो भव ! इससे देवत्व, पूजा, सुख, सन्तोष सभी बातों में उन्हीं का अग्रस्थान है- यह बात सिद्ध हो जाती है। ऐसी हालत में उन्हें दुःख-दर्द से दूर रखना हम पुरुषों का कर्तव्य हैं। इस सम्पूर्ण पोय्सल राष्ट्र की माँ हैं वे उनकी रणभूमि की स्फूर्ति और हस्त कौशल आदि से
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पट्टमहादेवी शान्तला भाग दो 461