Book Title: Pattmahadevi Shatala Part 2
Author(s): C K Nagraj Rao
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 458
________________ हम परिचित हैं। इस सुअवसर पर उन्हें 'रण- व्यापारनिपुण' कहकर घोषित करें। आगे से अपनी सारी शक्ति की वह धारा हममें प्रवाहित करने का अनुग्रह करें, और स्वयं मातृप्रेम की सारे संसार में बहाकर जती मानिनी मला मात्र बनकर रहें। मुझे यह वरदान देने की कृपा करें।" यह कहते हुए बिटिया ने बिट्टिदेव - शान्तलदेवी के चरण छूकर प्रणाम क्रिया । दोनों ने झुककर उसके कन्धे और पीठ पर हाथ फेरा। वह उठ खड़ा हुआ । बोला, "नतंन के लिए जो पुरस्कार दिया वह वैसा ही रहे। इसी स्त्री वेष में, माँ! मेरे इस वीरोचित निश्चय पर शक्ति का आवाहन कर एक तलवार देने का अनुग्रह करें ।" बिट्टिदेव ने उदयादित्य की ओर देखा। उन्होंने महाराज का आशय समझकर एक परात में सुन्दर तलवार मँगवायी। अभी नर्तकी के वेष में ही बिट्टिया खड़ा था। शान्तलदेवी ने उसकी ओर मुड़कर कहा, "बेटा, तुम वीर बनो! तुमने जो नृत्य सीखा है, उसने तुम्हारे पैरों की योद्धा का भी बल दिया है। वह कैसी शक्ति है - इसे सन्निधान भी जानते हैं। इसलिए इस नृत्य का फल भी तुम्हें युद्धक्षेत्र में सहायक बनेगा। तुम्हारी आकांक्षाएँ बहुत ही युक्त ओर योग्य हैं। किसी को अपनी किसी भी शक्ति का अनुचित उपयोग नहीं करना चाहिए और उस शक्ति को जंग लगने देना भी नहीं चाहिए। औचित्य को समझकर उसके अनुसार चलना ही सूक्त मार्ग है। यहाँ सबको स्वातन्त्र्य प्राप्त है। इस स्वतन्त्रता से किसी को किसी तरह का दुःख-दर्द नहीं हो। इसका दुरुपयोग हो तो वह त्याज्य है । स्वतन्त्रता का प्रधान ध्येय राष्ट्र की उन्नति है। वहीं प्रधान लक्ष्य है। राष्ट्रहित की बात जब कहते हैं तो उसमें सन्निधान, पट्टमहादेवी, दण्डनायक, सेनानी, प्रजा-इन सबका भेद नहीं होना चाहिए। उसमें सब समान रीति से भागीदार हों । तुम्हारा युद्धोत्साह तो सहज ही है। ऐसा समझकर में अथवा सन्निधान मनमाना व्यवहार करें, कैसे यह साध्य होगा? सब लोगों को सभी समयों में उपयोग करना साध्य नहीं । उपयोग न करने की अन्यार्थ कल्पना भी उचित नहीं । तुम्हारी आयु अभी छोटी है। फिर भी गरम खून से पुलकित होकर जो उत्साह छलक रहा है, उसमें तुम्हारी विचारशक्ति कुछ कुण्ठित सी हुई हैं। अच्छा होगा यदि आगे जब तुम विचार करो तो तुम तुम न रहकर विचार किया करो। तुम्हारी तीव्र निराशा और अत्यन्त उत्साह ये दोनों पहलू आज यहाँ प्रकट हुए। तुम्हारे गुरु ने तुम्हें साहित्य को घोंटकर पिलाया है तो उसके बल पर तुम मुझे विरुदावली देकर सम्मानित करने चल दिये ! अब उस कर्तव्य पालन का बहुत प्रसार हो गया। इस प्रसार ने मुझे संकोच में डाल दिया। तुम्हारी आकांक्षा के अनुसार यह तलवार तुम्हारी वज्र-मुष्टि की शोभा बढ़ाए। राष्ट्र के लिए तुम्हारी सेवा किस प्रकार की 162 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग दो

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