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"ठीक ।" कहकर अपने गाने की सुवर्णमाला निकालकर, पोय्सल सिंहासन को यह बहुत पसन्द आया। या प्रतीक पुरस्कार लो।" कहकर शान्तलदेवी ने हार के साथ हाथ आगे बढ़ाया।
नर्तकी सर झुकाकर धीरे से पट्टमहादेवी के पास जाकर सामने खड़ी हो गयी। अपने हाथ से पट्टमहादेवी ने उसे हार पहना दिया। नतंकी ने पैर छूकर प्रणाम किया।
तब बिट्टिदेव ने पूछा, “इस नतंकी ने शायद गुरुदक्षिणा दी होगी न? पट्टमहादेवी की क्या राय है?"
"ओह, वह, वह बहुत पुरानो बात! युवगनीजी ने जो पुरस्कार दिया था उसे मैंने स्वीकार नहीं किया था, उसी पुरानी स्मृति के कारण यह प्रश्न किया, है न?'' शान्तलदेवी ने पूछा।
इतने में नर्तकी उठकर दूर जाकर खड़ी हो गयी।
बिट्टिदेव ने उदयादित्य से कहा, "उदय! इस ननकी से पूछकर बताओ कि उसने गुरुदक्षिणा दी है या नहीं"
उदयादित्य ने नर्तकी के पास जाकर पूछा और लौटकर कहा, “बताती है कि अभी गुरुदक्षिणा नहीं की है।'
"तां इस नर्तकी ने अपने परम गुरु की उस परम्परा का पालन न करके सिंहासन के पुरस्कार को स्वीकार किया है। इसका मतलब हुआ कि पट्टपादेवी की परम्परा का ही उल्लंघन किया। वह उचित नहीं होगा।" कहकर बिट्टिदेव ने व्याघ्रपदक से अलंकृत हार को उतारकर कहा, "अभी तुरन्त इस नर्तकी के गुरु को यहाँ बुलवाकर इस नर्तकी ही के हाथ से यह गुरुदक्षिणा दिलवायी जाय । ऐसा न होगा तो पट्टमहादेवी ने जो पुरस्कार दिया उसे स्वीकार करना गलत होगा।" हार के साथ बिट्टिदेव ने हाथ आगे बढ़ाया।
"यदि गुरु यहाँ उपस्थित न हों तो बेचारी क्या करे?'' शान्तलदेवी ने कहा। उदयादित्य ने नर्तकी की ओर सशंक दृष्टि से देखा। फिर भी नर्तकी ने घुटने टंककर हाथ आगे बढ़ा दिये ।
इस क्रिया का अर्थ समझकर, महागज से उस हार को ले आकर उदयादित्य ने नर्तकी के हाथ में दिया। नर्तकी ने उस हार को वैसे ही हाथों में लेकर धीरे-से पट्टमहादेवी के समक्ष जाकर हार को बढ़ाते हुए कहा, "गुरुवर्य इस शिष्य की दी हुई गुरुदक्षिणा स्वीकार कर अनुग्रह करें।
नर्तकी की बात सुनकर वेदी पर के और आसपास के सभी जन चकित झो गये।
शान्तलदेवी ने भी चकित होकर देखा उस नर्तकी को। आश्चर्ययुक्त आनन्द
456 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग दो